छत्तीसगढ़: बीजेपी की तुरूप चाल कितनी मददगार
छत्तीसगढ़ में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) ने लोकसभा चुनाव के लिए दुस्साहसिक कदम उठाकर बड़ा दांव लगा दिया है. एक झटके में सभी दस सांसदों का पत्ता साफ करके नए चेहरों को चुनावी महासमर में उतारने का फैसला सबकी जुबान पर है. सवाल है कि क्या बीजेपी की तुरूप चाल संसदीय चुनाव में अपने ‘गढ़ों’ को बरकरार रखने में मददगार साबित होगी?
निवर्तमान सांसदों से मतदाताओं की नाराजगी की काट के तौर पर नए चेहरों को मैदान में उतारा गया है. वहीं दूसरी ओर नाराज आदिवासियों के जख्मों पर मरहम लगाने के लिए कांकेर के निवर्तमान सांसद बिक्रम उसेंडी को प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया है. वह बस्तर क्षेत्र के वरिष्ठ आदिवासी नेता हैं और साल 1993 में वह पहली बार अविभाजित मध्य प्रदेश विधानसभा के लिए चुने गए थे. बिक्रम उसेंडी साल 2008 से साल 2013 के दौरान रमन मंत्रिमंडल के सदस्य भी रहे. वह 2014 में पहली बार कांकेर संसदीय सीट के लिए निर्वाचित हुए थे.
बीजेपी के प्रदेश प्रवक्ता सच्चिदानंद उपासने कहते हैं कि राज्य निर्माण के बाद से पार्टी ने ज्यादातर आदिवासी वर्ग को नेतृत्व सौंपा है. उसेंडी बस्तर क्षेत्र के वरिष्ठ आदिवासी नेता हैं और वह लगातार सक्रिय भी हैं. उनकी छवि का लाभ पार्टी को जरूर मिलेगा. वे याद दिलाते हैं कि अनेक क्षेत्रों में विधानसभा चुनावों के नतीजे प्रतिकूल होने के बावजूद आम चुनाव में बीजेपी को नुकसान नहीं हुआ. ऐसे में छत्तीसगढ़ राज्य के गठन के बाद हुए तीन लोकसभा चुनावों के नतीजों, नए चेहरों को मैदान में उतारने के फैसले, राज्य संगठन में नेतृत्व परिवर्तन और मोदी फैक्टर को ध्यान में रखकर बीजेपी को भरोसा है कि वह अपने गढ़ों को बचाने में कामयाब होगी.
उधर कांग्रेस बेहद उत्साहित है. मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने अपनी सरकार के दो महीने पूरे होने पर खुद फेसबुक पर सवाल किया था, “हमने तो प्रेस कांफ्रेंस कर अपना 60 दिनों का रिपोर्ट कार्ड पेश कर दिया है क्या मोदी जी में हिम्मत है कि वे प्रेस कॉन्फ्रेंस कर अपने 60 महीने का रिपोर्ट कार्ड पेश करेंगे?”
बात आगे बढ़ाते हुए कांग्रेस संचार विभाग के अध्यक्ष शैलेश नितिन त्रिवेदी तो यहां तक कह दिया कि मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने जो काम 60 दिनों में कर दिखाया, मोदी सरकार 60 महीनों में नहीं कर पाई. बघेल सरकार ने वायदे के मुताबिक दस दिनों के भीतर किसानों के कर्ज माफ़ किए. किसानों को देश में पहली बार धान का मूल्य 2500 रुपए प्रति क्विंटल मिला. बिजली बिल भी आधा हो गया. कर्मचारियों के महंगाई भत्ते में वृद्धि की गई. यही नहीं, पुलिस और रक्षा सेवाओं से जुड़े लोगों के कल्याण के लिए प्रावधान किए गए. छोटे भूखंडो की रजिस्ट्री के लिए नियमों में बदलाव किया गया. जनहित में और भी कई ऐतिहासिक फैसले लिए गए हैं.
राज्य में लगभग 34 फीसदी आदिवासी मतदाता हैं. परंपरागत रूप से आदिवासी कांग्रेस के साथ रहे हैं. हालांकि छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद आदिवासियों के एक बड़े वर्ग का झुकाव बीजेपी की ओर हो गया था. नतीजतन, लोकसभा की 11 सीटों में से 10 सीटों पर बीजेपी का कब्जा होता रहा.
जब बड़े औद्योगिक घरानों को जमीन उपलब्ध कराने के लिए भूमि अधिग्रहण कानूनों को शिथिल किया जाने लगा तो आदिवासी और किसान बेहद नाराज हो गए. जल, जमीन और जंगल के अलावा विकास के अन्य मुद्दों को लेकर उनका बीजेपी से भरोसा उठने लगा. नौबत यहां तक आई कि उन्होंने बीते साल विधानसभा के चुनावों में बीजेपी को आईना दिखा दिया. आदिवासी बहुल बस्तर संभाग के बारह में से 11 विधानसभा सीटों पर कांग्रेस का कब्जा हो गया. यानी आदिवासियों का एकतरफा वोट कांग्रेस को मिल गया था.
मौजूदा समय में एक तरफ आदिवासी नाराज हैं तो दूसरी ओर बीजेपी को अपने निवर्तमान सांसदों के गुस्से से दो-चार होना पड़ रहा है. ऐसे में आम चुनाव में भी बीजेपी की मुश्किलें बनी रह जाए तो हैरानी नहीं. निवर्तमान सांसदों और उनके समर्थकों की बगावत की चिंगारी अभी से दिखने लगी है. कुर्मी बहुल रायपुर से लगातार सात बार के सांसद रमेश बैस का टिकट कटने की बात फैलते ही उनके समर्थकों ने केंद्रीय नेतृत्व के विरोध में हंगामा कर दिया था.
बस्तर के सांसद दिनेश कश्यप ने टिकट न मिलने पर खुलेआम नाराजगी जताई. उन्होंने कहा, “सभी मौजूदा सांसदों का टिकट काटना सही नहीं है. मेरे पिता स्वर्गीय बलीराम कश्यप ने आखिरी सांस तक जनता की सेवा की है. उनके बाद दो टर्म से मैं सांसद हूं. क्षेत्र के लोगों का विश्वास हमारे साथ है.”
जाहिर है कि भूपेश बघेल सरकार के फैसलों से कांग्रेस में किसानो और आदिवासियों का बनता भरोसा और इसके उलट आदिवासियों व निवर्तमान सांसदों की नाराजगी बीजेपी की उम्मीदों के विपरीत तस्वीर प्रस्तुत करती हैं. 11 संसदीय सीटों वाले इस राज्य में पहले चरण के चुनाव में केवल बस्तर संसदीय क्षेत्र में चुनाव होना है. वहां के 70 फीसदी आदिवासी मतदाता हैं. उनका रुख कैसा रहेगा, उससे बहुत कुछ तय होना है.
आदिवासी बहुल बस्तर संसदीय क्षेत्र में नक्सलियों का दबदबा है. वे हर बार चुनाव बहिष्कार का नारा देते हैं. पर सुरक्षा बलों की सख्ती का नतीजा यह है कि वोटों का प्रतिशत हर चुनाव में बढ़ता गया. यह संसदीय क्षेत्र राज्य के दक्षिण में स्थित है. यहां के 70 फीसदी आदिवासी मतदाताओं में गोंड जनजाति, मारिया, मुरिया, ध्रुव, भतरा और हल्बा जनजाति प्रमुख हैं.
इस संसदीय क्षेत्रों में बीजेपी और कांग्रेस दोनों ने चुनावी रणनीति बदली है. दोनों ही दलों ने स्थापित नेताओं को किनारा लगाकर ऐसे नेताओं को मैदान में उतारा है, जिनके बारे में राजनैतिक हलकों में चर्चा तक नहीं थी. बीजेपी ने दो बार के सांसद दिनेश कश्यप का टिकट काट कर पूर्व विधायक बैदूराम कश्यप को उम्मीदवार बनाया है. वह मौजूदा समय में पार्टी के जिलाध्यक्ष हैं. वह साल 2013 में चित्रकुट से विधायक चुने गए थे. पिछले साल के विधानसभा चुनाव में उन्हें टिकट नहीं मिला था.
कश्यप का मुकाबला कांग्रेस के प्रत्याशी और चित्रकूट के मौजूदा विधायक दीपक बैज से होना है. कांग्रेस ने बस्तर संभाग के प्रमुख आदिवासी नेता रहे स्वर्गीय महेंद्र कर्मा के पुत्र दीपक कर्मा को साल 2014 के आम चुनाव में टिकट दिया था. लेकिन वह बीजेपी के दिनेश कश्यप से चुनाव हार गए थे. वह इस बार फिर टिकट के दावेदार थे. उनके अलावा छत्तीसगढ़ सरकार के मौजूदा मंत्री कवासी लखमा के पुत्र हरीश कवासी, स्वर्गीय महेंद्र कर्मा के बड़े पुत्र छविंद्र कर्मा, पूर्व मंत्री शंकर सोढ़ी, बस्तर जिला ग्रामीण के अध्यक्ष राजमन बेंजाम, युवा नेता सूरज कश्यप समेत कई नेता टिकट की मांग कर रहे थे. लेकिन कांग्रेस ने दीपक कर्मा को टिकट देकर सबको चौंकाया है.
साल 1998 से बस्तर सीट पर बीजेपी का कब्जा बरकरार है. बीजेपी के कद्दावर नेता बलिराम कश्यप ने कांग्रेस से यह सीट साल 1998 में छीनी थी. उन्होंने कड़े मुकाबले में कांग्रेस के मनकुराम सोंधी को लगभग 17 हजार मतों से पराजित किया था. वह यहां से तीन बार जीतते रहे हैं. साल 2011 में उनके निधन के बाद उपचुनाव में उनके पुत्र दिनेश कश्यप को बीजेपी ने मैदान में उतारा था. वे सहानुभूति लहर में जीत गए थे. फिर साल 2014 के मोदी लहर में भी जीते. इस तरह कश्यप परिवार के पास यह सीट 20 साल से थी. ऐसे में उनका पत्ता काटा जाना राजनीतिक रूप से बड़ा फैसला माना जा रहा है.
जानकारों का कहना है कि यदि कश्यप को टिकट दिया जाता तो सीट पर कब्जा बनाए रख पाना और भी मुश्किल होता. इसके कई कारण बताए जा रहे हैं. पहला तो यह कि उन्होंने अपने बयानों के जरिए पहले से ही चिढ़े बैठे आदिवासियों के जख्मों पर नमक डालने का काम कर दिया था. उन्होंने सार्वजनिक रूप से बयान दिया था कि धर्मांतरण करने वाले आदिवासियों को आरक्षण के लाभों से वंचित किया जाना चाहिए. जब विवाद बढ़ा तो उन्होंने कह दिया कि यह उनकी निजी राय थी.
इस कदम के बाद भी आदिवासियों की नाराजगी कम नहीं हुई. संसद में भी उनका प्रदर्शन ठीक नहीं था. उन्होंने पांच साल में महज सात सवाल पूछे. छह वाद-विवादों में हिस्सा लिया. संसद में उपस्थिति भी राष्ट्रीय औसत 80 फीसदी और प्रदेश के औसत 83 फीसदी के विरुद्ध 77 फीसदी रही.
पांच जिलों में फैले बस्तर लोकसभा क्षेत्र के तहत विधानसभा की आठ सीटें हैं. इनमें से सात अनूसूचित जनजाति और एक सामान्य वर्ग के लिए आरक्षित है. वे हैं, जगदलपुर, कोंडागांव(एसटी), नारायणपुर(एसटी), बस्तर(एसटी), चित्रकूट(एसटी), दंतेवाड़ा(एसटी), बीजापुर(एसटी) और कोंटा(एसटी). इस साल लोकसभा चुनाव में इन क्षेत्रों के कुल 12,98,083 मतदाता अपने मताधिकार का प्रयोग करेंगे.
बस्तर लोकसभा क्षेत्र में चुनाव का परिणाम हमेशा से अप्रत्याशित रहा है. साल 2013 के विधानसभा चुनाव में 8 में से 5 सीटों पर कांग्रेस का कब्जा हुआ था. पर साल बाद 2014 में लोकसभा के लिए हुए चुनाव में आठ विधानसभा में बीजेपी प्रत्याशी दिनेश कश्यप को लीड मिली थी. बीते साल भी विधानसभा चुनाव में आठ में से सात सीटों पर कांग्रेस का कब्जा हो गया है. बीजेपी के नेताओं को अनुमान है कि मतदाता अगले चुनाव में भी 2014 के आम चुनाव की तरह राष्ट्रीय मुद्दों पर वोट डालेंगे और इतिहास दोहराएंगे.
राजनीतिक प्रेक्षकों की मानें तो छत्तीसगढ़ में बड़ी संख्या में आदिवासियों का झुकाव कांग्रेस की ओर है. किसानों की भी कमोबेश ऐसी ही स्थिति है. भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधन और वनाधिकार क़ानून 2006 को पूरी तरह से लागू नहीं किए जाने से आदिवासी और किसान पहले से बीजेपी से नाराज थे. सुप्रीम कोर्ट में वनाधिकार क़ानून 2006 के विरोध में दायर मुकदमें की पैरवी ठीक से नहीं करके सरकार ने उनकी नाराजगी और बढ़ा दी है.
साल 2011 की जनगणना के अनुसार पूरे देश में लगभग 12 करोड़ आदिवासी हैं. इनमें 90 फीसदी से अधिक आदिवासी किसान हैं. वनाधिकार कानून 2006 के मुताबिक वे जिस जमीन में वर्षों से सिंचाई करते रहे हैं, उन्हें उसका स्थायी पट्टा मिलना था. लेकिन अबतक लगभग ढ़ाई लाख पट्टे ही दिए जा सके हैं.
किसानों की बीजेपी से नाराजगी है कि जब वे कर्ज के बोझ तले कराह रहे थे तो रमण सिंह की सरकार ने उनकी एक न सुनी थी. अनेक निर्दोषों को नक्सली होने के आरोप में जेलों में डाल दिया गया. कांग्रेस के नेता राहुल गांधी से लेकर राज्य स्तर के नेताओं तक ने आदिवासियों और किसानों को इस संकट से मुक्ति दिलाने का भरोसा दिलाया था.
सरकार बनने के बाद वायदे पूरे किए जाने लगे हैं तो जाहिर है कि उनका कांग्रेस में भरोसा बन रहा है. टाटा स्टील के लिए अधिग्रहित 1764.61 हेक्टेयर निजी जमीन 1,707 लोगों को वापस करने की प्रक्रिया शुरू कर दी गई है. यह कदम कांग्रेस के मास्टर स्ट्रोक की तरह है. ऐसे में आदिवासी अपने ज्वलंत मुद्दों को ध्यान में रखकर वोट करेंगें या राष्ट्रीय मुद्दों के आधार पर, यह देखने वाली बात होगी.