कश्मीर हमारा है, लेकिन कश्मीरी पराए?
ब्रिटेन के विदेश मंत्री डोमिनिक रॉब ने पिछले दिनों अपने देश की संसद में कहा कि अनुच्छेद 370 हटाए जाने के बाद कश्मीर में मानवाधिकार उल्लंघन के आरोप चिंताजनक हैं और इन आरोपों की ‘गहन, त्वरित और पारदर्शी’ जांच होनी चाहिए. यह बयान इस बात का एक और उदाहरण है कि कश्मीर का मसला अंतरराष्ट्रीय फलक पर चर्चा का विषय बन गया है. और यह मोदी सरकार के अनुमान या अपेक्षा के उलट है.
धारा 370 को हटाने या उसकी जड़ काटने वालों ने सोचा होगा कि जो थोड़ी-बहुत अंतरराष्ट्रीय प्रतिक्रिया होगी उसे साफ-सफाई के जरिए ठंडी कर देंगे, और पाकिस्तान बौखलाएगा तो उसकी फिक्र ही क्यों की जाए, उसकी बौखलाहट से तो सियासी फायदा ही होगा.
लेकिन कश्मीर को लेकर अंतरराष्ट्रीय चिंता जिस हद तक दिख रही है उससे एक लोकतांत्रिक देश के रूप में भारत की साख को गहरा धक्का पहुंचा है. सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्यों में सबसे पहले चीन ने नाखुशी जताई, फिर दबे स्वर में फ्रांस ने और अब स्पष्ट रूप से ब्रिटेन ने. अमरीका के कई सांसद और अगले राष्ट्रपति चुनाव के एक प्रमुख दावेदार बर्नी सैंडर्स भी कश्मीर में मानवाधिकारों के हनन का मुद्दा उठा चुके हैं और आगे भी उठाने के संकेत दिए हैं.
इस बीच भारत सरकार ने कई बार कश्मीर को अपना आंतरिक मामला बताया, तो कई बार इसे द्विपक्षीय भी कहा. लेकिन इससे कश्मीर को अंतरराष्ट्रीय चिंता का विषय बनने से रोका नहीं जा सका है. दरअसल, किसी देश के किसी इलाके को कितनी स्वायत्तता हो या कितने राजनीतिक-आर्थिक अधिकार दिए जाए, यह भले उसका आंतरिक मामला हो, पर लोगों के मौलिक अधिकारों पर पाबंदी, यह कभी आंतरिक मामला नहीं हो सकता. भारत खुद म्यांमार और श्रीलंका में मानवाधिकारों के हनन का मसला लंबे समय तक उठाता रहा. क्या भारत बदल गया है, या उस कसौटी को अपने ऊपर लागू नहीं करना चाहता?
अनुच्छेद 370 को पलीता लगाए एक महीना हो चुका है, पर सरकार और टीवी चैनल कुछ भी कहें, कश्मीर में हालात अब भी कतई सामान्य नहीं हैं. अधिकतर टीवी चैनलों ने तो सरकार द्वारा परोसे गए झूठ को दोहराने, फैलाने और फुलाने को ही अपना काम समझ लिया है. यह पत्रकारिता का अकल्पनीय पतन है. अलबत्ता भारत की ही कुछ वेबसाइटों, पोर्टलों और विदेशी मीडिया की बदौलत कश्मीर की सच्चाई छिपी नहीं रह सकी है.
कश्मीर में चप्पे-चप्पे पर सुरक्षा बल तैनात हैं. जन-जीवन कर्फ्यू या दूसरे प्रतिबंधों की गिरफ्त में है. कोई काम नहीं हो पा रहा है. यह मरघटी शांति है. पर सरकार ने बार-बार दावा किया गया कि हालात सामान्य हैं. अधिकांश मीडिया भी इसी बात को तोते की तरह दोहराता रहा. कई टीवी चैनल तो यह भी बताते रहे कि जो हुआ उससे कश्मीरी लोग खुश हैं!
सच्चाई इससे उलट है. और यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है. तीन सौ सत्तर का हटाया जाना, जम्मू और लद्दाख के लोग भले स्वीकार कर लें, पर घाटी के लोग कतई मंजूर नहीं करेंगे यह सबको मालूम था. बीजेपी को भी. फिर भी मोदी सरकार ने अपने इरादे को अंजाम दिया तो इसलिए कि ऐसा करना उसके सियासी गणित के माफिक बैठता था. उसे लगा कि इससे उसके परंपरागत समर्थक तो खुश होंगे ही, उसका ‘राष्ट्रवादी एजेंडा’ भी आगे बढ़ेगा. आलोचकों को पाकिस्तान की भाषा बोलने वालों के रूप में प्रचारित कर उनसे निबट लिया जाएगा.
इसमें दो राय नहीं कि पिछले एक माह में इस रणनीति ने बीजेपी के लिए गुल खिलाए हैं. विपक्ष को बचाव की मुद्रा में आना पड़ा. कई विपक्षी दलों ने तो सरकार का साथ देने में ही अपनी खैरियत समझी. जब अर्थव्यवस्था डांवांडोल है, अर्थव्यवस्था के सारे क्षेत्र कमजोरी से कांप रहे हैं, बेरोजगारी रिकार्ड स्तर पर है, नौकरी मिलना तो दूर, नौकरियां जा रही हैं, तब जन-असंतोष के अंदेशे से सरकार को काफी परेशान दिखना चाहिए था. पर सत्तापक्ष कम-से-कम राजनीतिक स्तर पर बेफिक्र नजर आता है. उसे लगता है कि सरकार के तीन सौ सत्तर के फैसले ने जहां उसे बुलंदियों पर पहुंचा दिया है वहीं विपक्ष को किनारे कर दिया है.
लेकिन जो हुआ और जो हो रहा है उसे कश्मीर की समस्या का समाधान कहेंगे? कश्मीर की असल समस्या वहां के एक तबके में अलगाव की भावना थी. क्या वह दूर हो गई, या कम हुई? इसका उलटा हुआ है, तरह-तरह की अड़चनों को पार कर कश्मीर के जमीनी हालात के बारे में आने वाली सारी वास्तविक खबरें यही बताती हैं. इस तरह सरकार के फैसले ने कश्मीर की समस्या को और विकट बनाया है.
बीजेपी के लोग अपने मेनिफेस्टो और चुनाव में मिले जनादेश का हवाला दे रहे हैं. लेकिन बीजेपी ने और भी तो बहुत-से वादे किए थे. किसानों से स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट लागू करने और फसल का लागत से डेढ़ गुना दाम दिलाने का वादा किया था. पांच साल बीत गए, यह वादा क्यों नहीं पूरा किया? हर साल दो करोड़ नौकरियां देने का वादा किया था. नई नौकरियां निकलना तो दूर, उलटे लाखों नौकरियां चली गईं. इस तरह का कोई भी वादा पूरा करने की सुध बीजेपी को नहीं रही, बस तीन सौ सत्तर पर ध्यान लगा था. और घोषणापत्र में एलान तो सिर्फ तीन सौ सत्तर को हटाने का किया था, यह नहीं कहा था कि जम्मू-कश्मीर को एक राज्य भी नहीं रहने देंगे. फिर उसे केंद्रशासित क्यों बना दिया? जो कश्मीरी लोग तीन सौ सत्तर को कमजोर किए जाने यानी अपनी स्वायत्तता का लगातार क्षरण होने का रोना रो रहे थे, वे क्या नई स्थिति को चुपचाप स्वीकार कर लेंगे, जिसमें केंद्र से कश्मीर पर राज करने का बंदोबस्त किया गया है?
तीन सौ सत्तर का प्रावधान पहले की किसी सरकार ने नहीं किया था. इसके पीछे कोई फौरी सियासी स्वार्थ नहीं था. इसका प्रावधान हमारी संविधान सभा ने किया था, सर्वसम्मति से. संविधान सभा में अनेक विचारधारात्मक रुझान के लोग थे. मगर तीन सौ सत्तर पर आम सहमति थी, क्योंकि इसी के जरिए जम्मू-कश्मीर हमसे जुड़ रहा था. गौरतलब है कि इस आम सहमति में सरदार पटेल की राय भी शामिल थी, जिनकी देखरेख में तीन सौ सत्तर का मसविदा बना, और डॉ आंबेडकर की राय भी शामिल थी, जो संविधान के मुख्य शिल्पकार थे. फिर भी प्रधानमंत्री ने राष्ट्र के नाम अपने संदेश में तीन सौ सत्तर हटाए जाने को सरदार पटेल और आंबेडकर का सपना पूरा होना करार दिया.
क्या विडंबना है कि महात्मा गांधी के जन्म के डेढ़ सौवैं वर्ष में असत्य के प्रयोगों की बाढ़ आई हुई है. राष्ट्र के नाम संदेश तक इससे अछूता नहीं है. जम्मू-कश्मीर को तीन सौ सत्तर की सौगात संविधान सभा ने यानी स्वतंत्र भारत की नींव डालने वाले हमारे पुरखों ने दी थी. हमें उसका मान रखना चाहिए था. पर उसे हटाने का वादा करने और फिर उसे हटाने में बीजेपी को ध्रुवीकरण की अपनी राजनीति को परवान चढ़ाने की संभावना दिखती थी. ये कैसे रामभक्त हैं? भरत को राजगद्दी पर बिठाने का कैकेयी को दिया हुआ वचन राम का नहीं, उनके पिता दशरथ का था. पर उनके पिता का वचन पूरा हो, इसके लिए उन्होंने वनवास कबूल किया. क्या हम संविधान सभा के अपने पुरखों का मान नहीं रख सकते थे?
जब दस और राज्यों में तीन सौ सत्तर जैसे प्रावधान हैं, तो अकेले इसी राज्य को क्यों निशाना बनाया गया, जिसे हम भारत का अभिन्न अंग कहते नहीं थकते? यह कैसा अभिन्न अंग है कि इसे कितनी भी पीड़ा हो, इसे कितना भी चोट पहुंचाया जाए, बाकी शरीर को दर्द का कुछ भी अहसास नहीं होता? कश्मीर हमारा है, पर कश्मीरी पराए हैं?
पिछले एक महीने में जिस चीज ने सबसे ज्यादा दिल दुखाया है वह है हमारे मीडिया का रवैया. बेशक कुछ वेबसाइटों और पोर्टलों ने सच्चाई बताने की मेहनत और हिम्मत की, पर वे अपवाद की तरह हैं. भारतीय मीडिया का मुख्यधारा या उसका बड़ा हिस्सा तो सच्चाई पर परदा डालने और गफलत फैलाने में ही लगा रहा है. और यह सब ‘राष्ट्रहित’ या ‘राष्ट्रवाद’ के नाम पर हुआ.
क्या राष्ट्रवाद का सच्चाई से कोई बैर है? पत्रकार का काम है सच बताना, या सच न बताने की कायरता को महिमामंडित करना? बालाकोट के बाद यह दूसरी बार है जब भारतीय मीडिया और अंतरराष्ट्रीय मीडिया की रिपोर्टिंग में जमीन-आसमान का फर्क दिखा. दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की पत्रकारिता कहां पहुंच गई है, कि सच्चाई जानने के लिए हमें बाहर के मीडिया की तरफ देखना पड़े? क्या इसे भारतीय मीडिया का अंधकार युग कहना गलत होगा?