न्यू इंडिया में बहुत महंगा होगा इलाज कराना
अब इस बात का आभास हो रहा है कि जिस न्यू इंडिया की बात की जा रही है उसमें इलाज कराना बहुत महंगा होता जाएगा. इसका कारण यह है कि हाल ही में लोकसभा ने जिस ‘राष्ट्रीय आयुर्विज्ञान आयोग विधेयक’ (एनएमसी बिल) को मंजूरी दी है, उसमें इस बात का प्रावधान है कि मलाईदार तबके के बच्चे ज्यादा से ज्यादा एलोपैथी या मॉर्डन मेडिसीन की शिक्षा ग्रहण कर सके. इसी के साथ यदि कहा जाए कि न्यू इंडिया में नीम हकीमों की बन आएगी तो गलत न होगा. इस विधेयक में इस बात का उल्लेख किया गया है कि वे सीमित रूप से एलोपैथी की दवाएं लिख सकेंगे.
इस विधेयक को पारित होने के लिए लोकसभा में रखते हुए स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्री हर्षवर्धन ने कहा कि मोदी सरकार सबको गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सेवा उपलब्ध कराने को प्रतिबद्ध है और 2014 से लगातार इस दिशा में कदम उठाए जा रहे हैं.
उन्होंने कहा कि भारतीय चिकित्सा परिषद (एमसीआई) में लंबे समय से भ्रष्टाचार की शिकायतें आ रही थीं. इस मामले में सीबीआई जांच भी हुई. ऐसे में इस संस्था के कायाकल्प की जरूरत महसूस हुई.
मंत्री ने यह भी कहा कि यह विधेयक इतिहास में चिकित्सा के क्षेत्र के सबसे बड़े सुधार के रूप में दर्ज होगा. हर्षवर्धन ने कहा कि मोदी सरकार भ्रष्टाचार को बिल्कुल भी बर्दाश्त नहीं करने की नीति पर चलती है और यह विधेयक भी इसी भावना के साथ लाया गया है.
उन्होंने कहा, “मैं सदन को आश्वासन देता हूं कि विधेयक में आईएमए (भारतीय चिकित्सक संघ) की उठाई गई आशंकाओं का समाधान होगा.” हर्षवर्धन ने कहा कि एनएमसी विधेयक एक प्रगतिशील विधेयक है जो चिकित्सा शिक्षा की चुनौतियों से पार पाने में मदद करेगा.
इससे पहले भी जब भारतीय चिकित्सा परिषद (एमसीआई) को भंग करने की बात आई थी तब कहा गया था कि ऐसा वहां पर व्याप्त भ्रष्टाचार के कारण किया जा रहा है. ऐसे में सवाल किया जाना चाहिए कि क्या किसी संस्था पर भ्रष्टाचार के आरोप लगने पर भ्रष्टाचारी को हटाया जाना चाहिए या उस संस्था को ही भंग कर देना उचित है?
याद कीजिए कि एक समय भारतीय राजनीति के इतिहास में शेयर ब्रोकर हर्षद मेहता ने शपथ पत्र के जरिए तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव को घूस देने का आरोप सार्वजनिक रूप से लगाया था. क्या उसके बाद प्रधानमंत्री के पद को ही खत्म कर दिया गया था. क्या देश की अन्य संस्थाओं पर भ्रष्टाचार के आरोप नहीं लगे हैं. तो फिर एमसीआई को क्यों भंग किया जाने वाला है. दरअसल, वैश्वीकरण-निजीकरण तथा कॉर्पोरेटीकरण के युग की जरूरत के अनुसार एमसीआई को भंग करने की कोशिश लंबे समय से की जा रही है. हां, उसे परवान चढ़ाने का काम मोदी सरकार ने किया है.
आइए अब भविष्य में चिकित्सा के महंगे होने के सवाल पर आते हैं. इस बिल में कहा गया है, “निजी चिकित्सा शिक्षा संस्थाओं की आधी सीटों पर फीस तय करने का अधिकार वहां के मैनेजमेंट को होगा और राष्ट्रीय आयुर्विज्ञान आयोग आधे सीटों की फीस तय करेगी. वर्तमान में निजी शिक्षा संस्थाओं की 85 फीसदी सीटों की फीस तय करने का अधिकार राज्य सरकारों को होता है और 15 फीसदी सीटें मैनेजमेंट कोटा के तहत आती हैं.
जाहिर है कि जब निजी चिकित्सा शिक्षा संस्थाओं के मैनेजमेंट को 50 फीसदी सीटों की फीस तय करने का अधिकार दे दिया जाएगा तो इसके तहत मलाईदार तबके के बच्चों के चिकित्सा शिक्षा में प्रवेश करने के लिए रास्ता और खुल जाएगा.
कहा जा सकता है कि भविष्य के 50 फीसदी चिकित्सक ऊंची फीस देकर चिकित्सक बनेंगे. जब 50 लाख या 1 करोड़ की फीस पटाकर कोई चिकित्सक बनेगा तो वह खुद मरीजों से कितनी फीस लेगा इसका अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है. इतना ही नहीं रोगी की जांच करने वाले रेडियोलाजिस्ट तथा पैथोलाजिस्ट भी ऊंची फीस देकर चिकित्सक बनेंगे तथा सबसे पहले चिकित्सा शिक्षा के लिए लगाई गई अपनी लागत को वसूलने की कोशिश में जुट जायेंगे. आने वाले समय में रोगी की जांच तथा निदान व सर्जरी दिन पर दिन और मंहगी होती चली जाएगी.
इस तरह से महंगी चिकित्सा भविष्य में और महंगी होती चली जाएगी. जिसका भुगतान या तो जनता को अपनी जेब से करने पड़ेगा या जनता के टैक्स के पैसों से सरकार द्वारा दिए जा रहे चिकित्सा बीमा से होगा. दोनों ही स्थितियों में भुगतान जनता को ही करना है तथा मालामाल किसी और को होना है शर्त यह है कि उसके पास चिकित्सा की डिग्री हो, जो ऊंची फीस चुकता करके हासिल की जा सकेगी. इसी के साथ उच्च कोटि की चिकित्सा उपलब्ध कराने के लिए बनने वाले बहुविशेषज्ञीय और सुपर स्पेशलिस्ट निजी अस्पताल और बनेंगे जहां की फीस चुकता करते-करते मरीज आर्थिक रूप से बीमार पड़ जाएगा.
अब आपकी समझ में आ रहा होगा किस तरह से एमसीआई के बदले अस्तित्व में आने वाला राष्ट्रीय आयुर्विज्ञान आयोग अपने साथ कॉर्पोरेटीकरण के एजेंडे को लिए हुए हैं. आइये अब इससे किस तरह से हमारे देश में चिकित्सा का स्तर गिर जाएगा उसकी चर्चा कर लेते हैं.
बिल में कहा गया है,
(1) The Commission may grant limited licence to practice medicine at mid-level as Community Health Provider to such person connected with modern scientific medical profession who qualify such criteria as may be specified by the regulations: Provided that the number of limited licence to be granted under this sub-section shall not exceed one-third of the total number of licenced medical practitioners registered under sub-section (1) of section 31.
(2) The Community Health Provider who are granted limited licences under sub-section (1), may practice medicine to such extent, in such circumstances and for such period, as may be specified by the regulations.
(3) The Community Health Provider may prescribe specified medicine independently, only in primary and preventive healthcare, but in cases other than primary and preventive healthcare, he may prescribe medicine only under the supervision of medical practitioners registered under sub-section (1) of section 32.
इसका लब्बोलुआब यह है कि ‘कम्युनिटी हेल्थ प्रोवाइडर’ को एलोपैथी दवाओं की पर्ची लिखने का सीमित लाइसेंस दिया जाने वाला है. इससे पहले जो बिल पेश किया गया था उसमें कहा गया था कि आयुष चिकित्सक एक ‘ब्रिज कोर्स’ को पूरा करने के बाद एलोपैथी दवा लिख सकेंगे. उसे अबकी बार बदल दिया गया है. इस बार ‘कम्युनिटी हेल्थ प्रोवाइडर’ की बात की जा रही है.
बेशक, इस बिल को पेश करने के पीछे सरकार की मंशा सकारात्मक है. इस बिल में चिकित्सा सेवा और चिकित्सा शिक्षा का स्तर बढ़ाने पर भी जोर दिया गया है. निश्चित तौर पर सरकार की मंशा ‘कम्युनिटी हेल्थ प्रोवाइडर’ के जरिए एलोपैथिक दवाओं की पहुंच व्यापक करने की है लेकिन इसका एक दूसरा पक्ष भी है जिस पर ज्यादा ध्यान देने की जरूरत है. वह है लोगों को लाभ पहुचाने की मंशा से जिस कदम को उठाया जा रहा है कहीं वही उन्हें हानि न पहुंचाने लगे.
जमीनी हकीकत यह है कि आज की तारीख में एक एमडी चिकित्साधारी एलोपैथिक चिकित्सक खुद बारंबार डाइबिटीज, किडनी या हृदयरोग विशेषज्ञ की मदद लेते रहते हैं. इसके लिए मरीज को बीच-बीच में इनके पास भेजा है. दरअसल, एलोपैथिक चिकित्सा का इतना विकास हो गया है कि किसी एक के लिए संपूर्ण ज्ञान को समाहित करना संभव नहीं रह गया है.
उदाहरण के तौर पर एमडी मेडिसन चिकित्सक द्वारा लिखी गई उच्च रक्तचाप, उच्च कोलेस्ट्रॉल तथा डाइबिटीज की दवा को किडनी के चिकित्सक बदलने की सलाह देते हैं ताकि किडनी को सुरक्षित रखा जा सके. इस एक उदाहरण से ही समझा जा सकता है कि आज जमाना सुपर स्पेशलिस्ट चिकित्सकों का है. जाहिर है कि जब अन्य विधा के चिकित्सक एलोपैथी चिकित्सा करेंगे तो उसके साइड इफेक्ट भयावह होंगे.
एक और उदाहरण लीजिए. जब पतला दस्त ज्यादा बढ़ जाता है तो एमीकेसीन या जेन्टामाइसिन का इंजेक्शन लगाया जाता है. लेकिन यह दवा किडनी को क्षति पहुंचाती है इसलिए पहले रक्त की जांच करके किडनी की हालत देख ली जाती है उसके बाद ही यह दवा दी जायी है. यदि इस दवा को न दिया जा सके तो सिफलेस्पोरिन दवाओं का सहारा लिया जाता है. क्या पूरा ज्ञान न रखने वाला अन्य विधा का चिकित्सक इतनी सावधानी बरत पायेगा.
जाहिर है कि एलोपैथिक दवाओं के बारे में ज्ञान के अभाव के चलते एक मरीज की जान पर बन आएगी. इतना तो तय है कि ‘कम्युनिटी हेल्थ प्रोवाइडर’ को सभी रोगों के चिकित्सा करने की अनुमति नहीं दी जाएगी. लेकिन क्या सरकार के पास ऐसी कोई मशीनरी है जो इस पर लगाम लगा सकेगी. पुरानी कहावत है कि एक चिंगारी पूरे जंगल में आग लगा सकती है. जब चिंगारी बुझाने की मशीनरी ही नहीं हो जंगल की आग पर कैसे लगाम लगाया जा सकेगा.
अब इसके दूसरे पक्ष पर गौर फरमाते हैं. नेशनल हेल्थ प्रोफाइल के आकड़ों के अनुसार साल 2017 में देश में 10 लाख 05 हजार 281 एलोपैथिक चिकित्सक हैं. इस तरह से करीब 1319 लोगों के लिए एक एलोपैथिक चिकित्सक उपलब्ध है जबकि विश्व-स्वास्थ्य संगठन का मानना है कि प्रति 1000 लोगों पर एक चिकित्सक होना चाहिए. जहां तक सरकारी एलोपैथिक चिकित्सकों का सवाल है प्रति 11 हजार 097 लोगों के लिए एक चिकित्सक है. आयुर्वेदिक चिकित्सकों की संख्या 4 लाख 19 हजार 217 और होमियोपैथिक चिकित्सकों की संख्या 2 लाख 93 हजार 307 है. मोटे तौर पर अगर एलोपैथिक के साथ आयुर्वेदिक और होम्योपैथिक चिकित्सकों की संख्या को भी जोड़ दिया जाए तो करीब 776 लोगों के लिए एक चिकित्सक उपलब्ध हो सकेगा जो विश्व-स्वास्थ्य-संगठन के मानक से बेहतर होगा.
हम सरकार की प्राथमिकता की बात कर रहे हैं. स्वास्थ्य को उच्च गुणवत्ता वाला और व्यापक बनाना सरकार की जिम्मेदारी है. इसके लिए नीतियों को इस तरह से बनाया जाए कि उससे उससे जनता को लाभ हो. बहुत सारे प्रस्तावों वाले नेशनल मेडिकल कमीशन बिल से देश की स्वास्थ्य समस्या कम होती नहीं दिख रही है. उल्टे इससे स्वास्थ्य सेवा महंगी होगी और उसका स्तर गिरेगा जबकि इतिहास में चिकित्सा के क्षेत्र के सबसे बड़े सुधार का दावा किया जा रहा है.