काश ‘भूख’ का भी कोई धर्म होता तो यह भी राजनीतिक मुद्दा बनता
अभी मैं खाने के न्याय से ज्यादा कुछ नहीं मांगता-पाब्लो नेरुदा
यह शब्द हैं चिली के नोबेल पुरस्कार विजेता एक कवि के जो आज भी सार्थक हैं. वर्तमान में इंसान ने अपार प्रगति कर ली है. विज्ञान व तकनीक के विकास से इंसानी जीवन लगभग बदल ही गया है. पलक झपकते ही पूरे विश्व की सूचनाएं आपके फोन पर उपलब्ध हो जाती हैं फिर भी हम, मानव के जीवन की प्राथमिक जरूरत, भूख को पूरा नहीं कर पाए हैं. यह अपार प्रगति सबके लिए भोजन का प्रबन्ध नहीं कर पाई है.
एक तरफ हम मंगल पर जीवन की खोज करने में मशगूल हैं, अपने पुराने सपनों के चांद पर इंसानी बस्ती बनाने की सिर्फ कल्पना ही नहीं कर रहे बल्कि योजना भी बना रहे हैं. दूसरी तरफ पूरे विश्व में लगभग 80.2 करोड़ से ज्यादा लोग भूख से ग्रस्त हैं, मतलब कि आज भी विश्व में 80.2 करोड़ लोगों को भरपेट खाना नहीं मिल पा रहा है. इसलिए जिस समय जब हम आर्टिफीसियल इंटेलिजेंस युक्त बिना भूख वाले रोबोट तैयार कर रहे हैं, ठीक उसी समय आदमजात लक्ष्य ले रहा है कि सन् 2030 तक सबको खाना खिलाने का.
यह साफ बताता है कि पूरे विश्व में विकास का फायदा सब लोगों को समान रूप से नहीं मिल पाया है. इसके बाबजूद विश्व राजनीति के लिए भूख बड़ा मुद्दा नहीं है क्योंकि बड़े मुद्दे धर्म, राष्ट्रों के बीच की लड़ाई व बाजार पर नियन्त्रण है ना कि भूख.
हमारा देश भी तरक्की के नए आयाम बनाने का दम भरता है. हम दावे करते हैं कि हम विश्व की पांचवीं और छठी आर्थिकी हैं लेकिन भारत में सभी नागरिकों की भूख हम मिटा नहीं पाए हैं. भूखे रहने के कारण कुपोषण का शिकार हुए लोगों में से 24 प्रतिशत लोगों का घर भारत है. एफएओ (FAO) 2019 की The Study of food Security and nutrition in the World Report, 2019 के अनुसार भारत में 19.44 करोड़ नागरिक कुपोषित हैं, जो हमारी कुल आबादी का लगभग 14.5 प्रतिशत हैं. ग्लोबल हंगर इंडेक्स (Global Hunger Index) 2019 रिपोर्ट में भारत का स्थान 119 देशों में से 103वां हैं.
भारत में लगभग हर चौथा बच्चा कुपोषित है. सबको खाना ना मिलने पर या सीधा कहूं तो भूख का सबसे बड़ा प्रभाव बच्चों के शारीरिक और मानसिक विकास पर पड़ता है जो केवल हमारे वर्तमान को ही नहीं बल्कि भविष्य की पीढ़ियों को भी प्रभावित करेगा. भारत में बच्चा पैदा कर सकने वाली आयु (रिप्रोडक्टिव ऐज, Reproductive Age) की 51.4 प्रतिशत महिलाओं में खून की कमी है. इसका परिणाम है कि पांच वर्ष के नीचे के लगभग 20.8 प्रतिशत बच्चे कम बजन के हैं, इसी आयु वर्ग में 37.9 बच्चे छोटे कद वाले हैं.
भारत में इस भूखमरी का कारण क्या है, क्या संसाधनों की कमी है? नहीं ऐसी स्थिति कम से कम भारत में नहीं है. भारत में ना तो प्राकृतिक संसाधनों की कमी है और ना ही वित्तीय संसाधनों की, कमी है तो केवल प्राथमिकता की. भूखमरी के इस हालात के लिए जिम्मेवार है सरकार की नीतियां जिनके चलते अपार जैविक विविधता और अनुकूल पर्यावरण के वावजूद भारत में कृषि संकट है. यह कृषि संकट तो अब स्थाई प्रतीक हो चला है. क्योंकि ना तो किसानों की आय बढ़ रही है, ना उनका कर्ज कम हो रहा है और ना ही उनकी आत्महत्याओं का सिलसिला रुक रहा है.
लेकिन इससे कोई इस निष्कर्ष पर ना पहुंच जाए कि भारत में अनाज की कमी है. अनाज तो गोदामों में सड़ रहा है और चूहों का पेट भर रहा है. कमी है लोगों के पास क्रयशक्ति की जिससे वह अनाज खरीद पाए क्योंकि उनके पास आमदनी के साधन नहीं हैं. कृषि संकट के कारण जमीन पर काम करने वाले सभी लोग प्रभावित हुए हैं लेकिन गैर-कृषि क्षेत्र के हालात भी कुछ अलग नहीं हैं. भारत में रोजगार की खराब हालत किसी से छिपी नहीं रही है. पहले अखबारों में नए रोजगार के लिए विज्ञापन प्रकाशित होते थे लेकिन अब आर्थिक संकट के वर्तमान दौर में केवल नौकरी छूटने की खबरे नहीं आ रहीं बल्कि बाकायदा यह विज्ञापन जारी किए जा रहे हैं कि अमुख कंपनी से कितने लोगों को आर्थिक संकट के चलते काम से निकाला गया.
जो नौकरी में हैं भी उनका बड़ा हिस्सा बाजार के रहमो करम पर है, जहां ना तो नौकरी की गारंटी है और ना ही वेतन की. अभी हाल ही में सरकार द्वारा घोषित राष्ट्रीय न्यूनतम वेतन की दर से पता चलता है कि देश में भूखमरी क्यों है और सरकार की इससे निपटने की क्या नीति है. प्रत्येक दो वर्षों में राष्ट्रीय न्यूनतम वेतन में संशोधन करने की बाध्यता के चलते सरकार को इसकी घोषणा तो करनी पड़ी लेकिन इसके निर्धारण के लिए आधारभूत मानकों में से एक प्रति व्यक्ति 2700 किलो कैलोरी को 2400 किलो कैलोरी करके.
राष्ट्रीय न्यूनतम वेतन में दो रुपये की बढ़ोतरी करके इसे 178 रुपये प्रतिदिन घोषित किया गया है. हालांकि मोदी सरकार की अनूप सत्पथी की अध्यक्षता में बनी कमेटी ने राष्ट्रीय न्युनतम वेतन लिए 375- 447 रुपये प्रतिदिन (9750- 11622 प्रति मास) की सिफारिश की थी. जब सरकार आधिकारिक तौर पर नीति ही ऐसी बना रही है कि लोग भूखे रहने पर मजबूर हों तो देश में हर इंसान को भरपेट खाना कहां से मिलेगा.
इन विकट परिस्थितियों के वावजूद भारत में भूख कोई मुद्दा नहीं है. यह बेहद चिंताजनक है. एक ऐसा मसला जो हमारे वर्तमान और हमारी भविष्य की पीढ़ियों के जीवन से जुड़ा है. यह न तो भारत की राजनीति का मुख्य मुद्दा है और ना ही मीडिया का. कभी-कभार कुछ ऐसी संवेदनशील खबरें मीडिया में जरूर आती हैं जब कोई भूख से मर जाता है या कुछ ऐसा खाता है जो इंसान के खाने के लायक नहीं है. तब लगता है भावनाओं की बाढ़ सी आ गई है परन्तु कैमरा भूख से मृत शरीर, उनके परिवार के सदस्यों के आंसू या कुपोषित बच्चों में कमजोर व करूणामय शरीर तक ही साीमित रहता है.
मीडिया का कैमरा भूख के असल कारणों और समाधानों को दिखाने का प्रयास तक नहीं करता. हमारे राजनेता व सरकारें तो इतनी जहमत भी नहीं उठातीं. जायज भी है जो कुपोषित है व मर रहे हैं व बड़ा संगठित वोट बैंक तो है नहीं और अगर वोट है भी तो भूखे पेट वाले वोट खरीदना कौन सा मुश्किल काम है. इसलिए राजनीति, भूख को कभी मुद्दा नहीं बनाती.
उनका मुद्दा तो है धर्म व जाति है. इसे समझने के लिए मस्तिष्क पर ज्यादा जोर डालने की भी आवश्यकता नहीं है. पिछले चुनाव या पिछले से पिछले चुनाव के समय को हलका सा याद करें तो तुरन्त याद आएगा कि किस नेता ने किस धर्म व जाति के बारे में क्या बोला. धार्मिक व जातीय आधार पर कितना ध्रुवीकरण हुआ. हमारे समाचार चैनल तो साधारण से धार्मिक मुद्दे को भी अपनी खोजी व सनसनी से भरपूर पत्रकारिता से बहुत बड़ा व जन मुद्दा बना देते हैं.
धार्मिक व राष्ट्रवाद के इस उन्माद वाले वातावरण में भूख मुद्दा बने भी क्यों. आखिर भूख का कोई धर्म तो होता नहीं और ना ही भूखे आदमी के लिए अन्न के अलावा कोई प्राथमिकता. जब हमारे राजनेता ही समाज को पहचानों के आधार पर बांटने की कोशिश कर रहे हैं, तो वह ऐसा मसला क्यों उठाएंगे जो सबको जोड़ेगा.
दूसरा कारण है 17 प्रतिशत कुपोषित नागरिकों का खाली पेट एक बड़ा व आधारभूत सवाल खड़ा करता है कि जब देश में अपार संसाधन है, देश तरक्की कर रहा है, हम लाइलाज बीमारियों को पराजित कर रहे हैं; ऐसे में भूख का इलाज नहीं नहीं कर पा रहें हैं, क्यों? क्यों सब संसाधनों का लाभ कुछ तिजोरियों तक ही पहुंच रहा है और आबादी का बड़ा हिस्सा जीने की जंग हार रहा है? क्या यह खाली पेट नागरिकों की हार है या जिनको इस संसाधनों के लाभ को सब तक पहुंचाने की जिम्मेवारी दी थी उन सरकारों की हार है?
काश भूख का भी कोई धर्म होता तो यह भी राजनीतिक मुद्दा बनता. इस पर चुनावी भाषण होते, समाचार चैनलों के एंकरों की जबान पर और प्रवक्ताओं के प्रतिवाद में भूख और भूख से मरने वालों का कोई जिक्र तो आता.