एंटीनेशनल तो बोलने दो यारो!
जज साहिबान की ये बात सही नहीं है. कह रहे हैं कि विरोध प्रदर्शन करने वालों को एंटीनेशनल नहीं कह सकते हैं. पहले मुंबई हाई कोर्ट ने सरकार और विरोधियों के बीच, डेमोक्रेसी का पेच डालने की कोशिश की और विरोध करने को भी अधिकार बता दिया.
अब तो सुप्रीम कोर्ट के भी एक जज ने कह दिया है कि विरोध की गुंजाइश डेमोक्रेसी की जान है. यानी विरोधियों को एंटीनेशनल बुलाना डेमोक्रेसी का मर्डर ही हो गया. जब एंटीनेशनल कह तक नहीं सकते हैं, तो राजद्रोह के लिए जेल भेजने का तो सवाल ही कहां उठता है. यानी विरोध करने वाले विरोध करते रहें और योगीजी तक की सरकार कुछ भी नहीं करे, बस खड़ी-खड़ी तमाशा देखती रहे!
और किसी ऐरी-गैरी नहीं छप्पन इंच की छाती वाली सरकार से यह मांग की जा रही है कि कुछ करे ही नहीं; करना-कराना सब विपक्षियों पर छोड़ दे! जज साहिबान का फरमान सिर-माथे, पर पनाला तो वहीं गिरेगा. मोटा भाई की सरकार का विरोध तो एंटीनेशनल ही माना जाएगा. गोरों की नहीं हुई तो क्या हुआ, किसी बात में अंगरेजों से कम है क्या? उस पर एक सौ तीस करोड़ भारतीयों की चुनी हुई सरकार है. ऐसी सरकार विरोध भी नेशन का विरोध नहीं हुआ तो फिर नेशन का विरोध क्या होगा?
दुनिया कितना भी शोर मचा ले, नेशन के विरोधियों को एंटीनेशनल कहना हर्गिज बंद नहीं होगा. बाकी दुनिया के शोर मचाने की परवाह ही कौन करता है, बस ट्रम्प जी का साथ बना रहे. सच्चे राष्ट्रभक्त भूख, गरीब, महंगाई, बेरोजगारी, बीमारी, तानाशाही कुछ भी माफ कर देंगे, यहां तक कि जग हंसाई भी, पर शाहीनबाग में बिरयानी खाने और खिलाने वालों को, टुकड़े-टुकड़े गैंग को, कभी माफ नहीं करेंगे.
इसका मतलब यह हर्गिज नहीं है कि देशभक्त पार्टी डैमोक्रेसी का सम्मान नहीं करती है. डेमोक्रेसी का सम्मान नहीं करती तो क्या दिल्ली के चुनाव में अपनी हार होने देती. या उससे पहले झारखंड में और महाराष्ट्र में भी, अपने हाथ से सरकार जाने देती? उल्टे वह तो डेमोक्रेसी का इतना सम्मान करती है कि दिल्ली के नतीजे आने के बाद, उसने फौरन यह मान भी लिया कि ‘गोली मारो’ नहीं बोलना चाहिए था. गोली मारने की बात और है, पर ऐसा बोलना नहीं चाहिए था. गांधी को लगी गोलियों को लोग अब तक भूले नहीं हैं. गोली मारो बोलते ही फौरन गोडसे से जोड़ देते हैं और नागपुरी देशभक्तों पर सरदार पटेल के पाबंदी लगाने समेत, न जाने क्या-क्या गढ़े मुर्दे उखाड़ने लगते हैं.
वैसे भी ‘गोली मारो’ बोलना, देशभक्त पार्टी की लाइन थोड़े ही थी. उल्टे उसकी वजह से तो दिल्ली में देशभक्त पार्टी की लाइन ठीक से लागू नहीं हो पाई. पार्टी की लाइन थी, ईवीएम का बजट दबाओ, शहीनबाग को करेंट लगाओ. पर कुछ जोशीले युवा नेताओं को करेंट लगाने से संतोष नहीं हुआ और गोली मारो पर चले गए. पर चुनाव सिर्फ जोश से ही थोड़े ही जीते जाते हैं. उल्टे गोली मारो के जोश ने बेचारों का कबाड़ा करा दिया. गोली मारने कुल तीन बंदे उठे, उससे न जामिया वालों का कुछ बिगड़ा न शाहीनबाग वालों का. उल्टे गोली मारो के चक्कर में शाहीनबाग को करेंट लगाने का जोश हल्का पड़ गया, जबकि शाहीनबाग वालों का जोश बढ़ गया. बटन तो गुस्से से ही दबाया गया पर नतीजा उल्टा हो गया. शाहीनबाग वालों की जगह, खुद देशभक्त पार्टी को झटका लग गया.
लेकिन, दिल्ली के चुनाव में झटका लगने का मतलब यह हर्गिज नहीं है कि देशभक्त पार्टी वाले विरोधियों की एंटीनेशनलता को माफ कर देंगे. चुनाव में झटका लगने का मतलब यह नहीं है कि ‘देशभक्त पार्टी’ वाले अब रोजी-रोटी की बात करने लगेंगे. हर्गिज-हर्गिज नहीं. वे रोटी-रोटी के चक्कर में फंसने वाले नहीं हैं. पब्लिक की रोजी-रोटी के चक्कर में रहेंगे तो अडानी-अंबानी का ख्याल कौन रखेगा? खांटी देशभक्त हैं. देशभक्ति के सिवा, अडानी-अंबानी भक्ति को छोडक़र इन्हें कुछ आता ही नहीं है. विरोधियों को एंटीनेशनल बताएंगे, तभी तो देशभक्त कहलाएंगे. और भी चुनाव हैं इंडिया में दिल्ली के चुनाव के सिवा. सो विरोधियों को, एंटीनेशनल तो बोलने दो यारो!