भारतीय धर्मनिरपेक्षता के संन्यासी
क्या आज भारतीय राष्ट्रवाद पूर्णतः अनुदार हो गया है? इस परिवर्तन के बारे में भारतीय राष्ट्रवाद के सर्वप्रमुख प्रतिमानों में से एक स्वामी विवेकानंद का क्या विचार होता? ये राष्ट्रवाद का विवाद भी तो उन्हीं मिथकों और विचारधाराओं के बारे में होता है जिन पर देश की नींव पड़ी हो.
भारत की धर्मनिरपेक्षता उसे अपने पड़ोसी देशों से अलग बनाती आई है. भारत का प्रजातंत्र यहां की अवर्णनीय विविधताओं के बावजूद मज़बूती से बना रहा है, जो दुनिया भर के कई उन्नत पश्चिमी देशों के लिए भी सबक बनता आया है क्योंकि उनके प्रजातंत्र ऐतिहासिक तौर पर एकरस समाजों में पनपे थे.
भारतीय संविधान में धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों की गहरी जड़ें हैं जो देश की बहुसंख्यक हिन्दू जनता की ही देन है. पर क्या ये वस्तुस्थिति अब पूर्णतः बदल जाएगी क्योंकि हिन्दू राष्ट्रवादी नैतिकता ने भारत में धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवाद को पीछे धकेल दिया है?
भारतीय सभ्यता में हमेशा ही “सर्व धर्म समभाव” का सिद्धांत माना गया है जिसका मूल अर्थ है कि सारे धर्म एक ही लक्ष्य कि ओर जाते हैं. और इसलिए हर धर्म का बराबर सम्मान किया जाना चाहिए. लेकिन इस पारम्परिक विचारधारा से हिन्दू राष्ट्रवादियों को हमेशा ही गहरी दिक्कत रही है. इसी सोच के एक अनुयायी नाथूराम गोडसे ने राष्ट्रपति महात्मा गांधी जैसे धर्मनिरपेक्षता के महान प्रणेता की हत्या की थी.
आज का हिन्दू राष्ट्रवाद
गोडसे की तरह सोचने वाले हिन्दू राष्ट्रवादियों ने हमेशा धर्म पर आधारित राष्ट्र की कल्पना की है और भारत को सिर्फ हिन्दुओं का ही देश माना है. लेकिन गौरतलब यह है कि स्वाधीनता के बाद भारत के 70 साल के इतिहास में इस विचारधारा का इतना वर्चस्व पहले कभी नहीं था. आज भारत की केंद्र सरकार जब ये कहती है कि भारत और पड़ोसी देशों के हिन्दू सब भारत के ही नागरिक हैं तो ये बात अब स्पष्ट रूप में सामने आ रही है. इस वैचारिक परिवर्तन का सबसे ताजा उदाहरण जम्मू और कश्मीर राज्य का विभाजन है. भारत का एकमात्र मुस्लिम-बहुल राज्य जिसे संवैधानिक विशेषाधिकार प्राप्त थे. बगैर जनता की मर्जी जाने, बिना किसी राष्ट्रीय बहस के और सूचना-प्रसारण पर भारी रोक के बीच दो केंद्र-शासित क्षेत्रों में बांट दिया गया और नागरिकों से उनके विशेषाधिकार छीन लिए गए. क्या इस प्रकार का हिन्दू राष्ट्रवाद हमारी परम्पराओं के अनुरूप है?
इस संदर्भ में एक अहम सवाल उठता है: राष्ट्र के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सहित अनगिनत हिन्दुत्ववादी स्वामी विवेकानंद जी को अपना प्रेरणास्रोत बताते रहते हैं. लेकिन क्या “सर्व धर्म समभाव” का अनुसरण करने वाले स्वामीजी का नाम हिन्दुत्व के प्रचार में शामिल किया जाना उचित है?
यहां स्वामी विवेकानंद का जीवन-सन्देश और भारतीय राष्ट्रवाद पर उनके विचारों को जानना अत्यावश्यक है. भारत की सनातन परंपरा को पुनः विश्लेषित कर उसमें सुधार लाना और दुनियाभर में उसका प्रचार-प्रसार करना उनके जीवन का एक लक्ष्य था, जिसकी शुरुआत उन्होंने शिकागो शहर में 1893 में आयोजित विश्व धर्म संसद में अपने प्रख्यात वक्तृत्त्व से की. भारत लौटने के पहले वे न्यूयॉर्क शहर में लगभग दो साल रहे जहां उन्होंने 1894 में विश्व के प्रथम वेदांत समाज की स्थापना की. इस दौरान वे यूरोप में काफी घूमे और विश्वविख्यात विचारवादियों Max Mueller और Paul Deussen, एवं Nicola Tesla जैसे प्रख्यात वैज्ञानिकों से भी मिले.
स्वामीजी का एक प्रमुख सन्देश अपने गुरु रामकृष्ण परमहंस के आध्यात्मिक प्रयोगों और ज्ञान पर आधारित था कि सारे धर्म एक ही सत्य की ओर ले जाते हैं. भारतीय आध्यात्मिकता के पन्नों में रामकृष्ण परमहंस का एक अनूठा स्थान है. उनका दर्शन इस अटूट विश्वास पर आधारित है कि साकार और निराकार भक्ति, मुस्लिम या ईसाई धर्म सब ही ईश्वर तक पहुंचने के अलग-अलग तरीके हैं.
अपने शिकागो में दिए गए भाषण में स्वामीजी ने हिन्दू जीवन की तीन मौलिक विशेषताएं बताईं. पहली कि भारतीय परंपरा सिर्फ ये नहीं सिखाती कि हर धर्म की तरफ सहिष्णुता रखें. यहां की परंपरा सिखाती है कि हर धर्म सत्य है और उसका सम्मान किया जाना चाहिए.
दूसरी यह कि हिन्दू और बौद्ध धर्म एक दूसरे के बगैर अधूरे हैं और अक्सर गोष्ठियों में उन्होंने ये कहा कि “अगर कोई भी यह कल्पना करता है कि सिर्फ उनके धर्म की ही जीत हो और दूसरे धर्मों का विनाश तो मुझे उनपर तरस आता है और मैं तहेदिल से उन्हें ये बताना चाहता हूं कि बहुत जल्दी ही हर विरोध के बावजूद धर्म का परचम पर ये ही घोषणा होगी — “सहायता करें, लड़ें नहीं, “विनाश नहीं, समावेश”, और “विभेद नहीं, स्थिरता और शांति.”
धर्म और तर्कसंगतता
भारत के इतिहास की स्वामीजी ने क्रांतिकारी विवेचना की थी. जब वे भारत लौटे तो कई अमेरिकी और यूरोपी पुरूष और महिला उनके अनुयायी बनकर उनके साथ आये और 1897 में रामकृष्ण मिशन की स्थापना में स्वामीजी के साथ खड़े रहे. विवेकानंद भारत में सामाजिक सुधार और आधुनिकीकरण को अत्यावश्यक मानते थे और चाहते थे कि भारत अपनी आध्यात्मिकता की छाया से निकलकर पाश्चात्य संस्कृति से तत्वज्ञान और भौतिकवाद की शिक्षा ले. उन्होंने जगदीश चंद्र बोस के वैज्ञानिक प्रयोगों में मदद की और उनकी ही एक अमेरिकी अनुयायी Sara Bull ने बोस की खोजों को अमेरिका में पेटेंट करने में उनकी सहायता की थी.
उन्होंने आयरलैंड की एक शिक्षिका मारगेट नोबेल को भारत आने का निमंत्रण दिया ताकि वह स्त्रियों की अवस्था में सुधार का काम कर सके. स्वामीजी ने इन्हे ही बाद में ‘सिस्टर निवेदिता’ का नाम दिया था. जब उन्होंने कलकत्ता में एक बालिका विद्यालय का उद्घाटन किया तो स्वामी विवेकानंद ने अपने सभी जानने वालों को बच्चियों को स्कूल भेजने के लिए प्रोत्साहित किया.
उन्होंने जमशेद जी टाटा को इंस्टिट्युट ऑफ़ साइंस और टाटा आयरन एंड स्टील कंपनी शुरू करने की प्रेरणा दी थी.
गांधी और नेहरू पर प्रभाव
महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू और सुभाष चंद्र बोस जैसे राष्ट्र-निर्माताओं पर स्वामीजी का गहरा प्रभाव पड़ा था. गांधी जी की हरिजन सेवा की शुरुआत से बहुत साल पूर्व स्वामीजी ने दरिद्र नारायण की बात की और दरिद्र सेवा में ही ईश्वर सेवा का मार्ग दिखाया. गांधी जी अक्सर कहते थे कि विवेकानंद को पढ़कर उनका भारत की तरफ प्यार हजार गुना बढ़ जाता है. स्वामीजी का जन्मदिवस राष्ट्रीय युवा दिवस के नाम पर मनाया जाता है.
यही प्रश्न है कि क्या स्वामी विवेकानंद हिन्दुत्ववाद के प्रतीक थे या उस प्राचीन सनातन परंपरा के जो इतने युगों के बाद भी वैश्विक भाईचारा और सहिष्णुता का पाठ पढ़ाती है. क्या ये सही है कि हिन्दुत्ववादी स्वामीजी का नाम तो ले, लेकिन उनकी उग्र आधुनिकता से भरी आत्मा को भूल जाए जो एक नए
भारत के इतिहास को निर्मित करने के लिए तत्पर थी? और क्या ये भी सही नहीं है कि हमारे धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवादी भारत की गहरी आध्यात्मिक परम्पराओं में अपनी जड़ों को ढूंढे — जो स्वामी विवेकानंद जैसे सुधारकों के मूल्यों पर आधारित हो.
लेखक परिचय
जयशंकर प्रसाद हीडलबर्ग विश्वविद्यालय में पीएचडी शोधार्थी हैं.
प्रोफेसर राहुल मुखर्जी, हीडलबर्ग विश्वविद्यालय के साउथ एशियन स्टडीज के डायरेक्टर हैं.