‘राफेल’ पत्रकारिता के लिए एक मौका है


analysis of journalism in india in the context of rafale deal

 

6 मार्च को राफेल पर दायर पुनर्विचार याचिका की सुनवाई के दौरान भारत के एटार्नी जनरल केके वेणुगोपाल ने सुप्रीम कोर्ट में जो कहा, वो भारत की ‘पत्रकारिता’ के लिए चुनौती से ज्यादा एक मौका है.

अभी तक जैसे संकेत मिल रहे हैं, उसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि इस मौके ने अपना काम करना शुरू कर दिया है. हालांकि हमारे समय में उम्मीदों का धाराशायी होना कोई आश्चर्य की बात नहीं होती. इसलिए इसे लेकर बने उत्साह को भी संशय की दृष्टि से ही देखा जाना चाहिए.

वेणुगोपाल ने पुनर्विचार याचिका को खारिज करने की मांग करते हुए कोर्ट में कहा कि राफेल से जुड़े दस्तावेज रक्षा मंत्रालय से चोरी हो गए हैं. उन्होंने यह भी जोड़ा कि राफेल से जुड़े तथ्य प्रकाशित करने के लिए केंद्र सरकार अंग्रेजी अखबार ‘द हिंदू’ और वरिष्ठ पत्रकार एन राम पर ऑफिशियल सीक्रेट्स एक्ट के तहत कार्रवाई कर सकती है.

पिछले कुछ महीने से राफेल सौदा कमोबेश भारत की राजनीतिक बहस के केंद्र में रहा है. जाहिर है कि पत्रकारिता ने इस सौदे की ऐसी कई अनियमितताओं को उजागर किया, जिससे मौजूदा सरकार को कई स्तरों पर असहजता का सामना करना पड़ा.

लेकिन पिछले कुछ दिनों में ‘द हिंदू’ में वरिष्ठ पत्रकार एन राम ने राफेल से जुड़े जो तथ्य पेश किए, उससे केंद्र सरकार ठोस संदेहों के दायरे में आती चली गई. तभी तो वेणुगोपाल ने ‘राष्ट्रीय सुरक्षा’ के नाम पर ऑफिशियल सीक्रेट्स एक्ट लगाने की धमकी तक दे डाली.

वेणुगोपाल की बात में अप्रत्यक्ष रूप से यह आरोप था कि राफेल से जुड़े दस्तावेजों की चोरी में ‘द हिंदू’ और एन राम शामिल हैं. हालांकि ऐसा कहते हुए जाने-अनजाने में उन्होंने ‘द हिंदू’ में राफेल पर प्रकाशित रिपोर्टों की विश्वसनीयता को पक्का कर दिया.

14 दिसंबर 2018 को राफेल सौदे पर दिए अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने मोदी सरकार को पाक-साफ करार दिया था. लेकिन नए सबूतों की रोशनी में कोर्ट ने पुनर्विचार याचिका को स्वीकार कर लिया था.

वेणुगोपाल की इन दलीलों और धमकियों के बीच जजों ने जो कहा, वो बेहद उल्लेखनीय है. जस्टिस के एम जोसेफ ने समझाया, “मान लीजिए कि एक बड़ा अपराध हुआ है. क्या तब भी आप राष्ट्रीय सुरक्षा का तर्क देंगे?”

जस्टिस एस के कौल ने झिड़कते हुए कहा, “अगर दस्तावेज चोरी हो गए हैं, तो सरकार को अपनी व्यवस्था ठीक रखनी चाहिए. लेकिन कानून के हिसाब से ऐसा कहना सही नहीं है कि हम उन दस्तावेजों को न देखें.”

स्वाभाविक रूप से वेणुगोपाल की धमकी की परवाह न करते हुए एन राम ने अपने सूत्रों की गोपनीयता को हर हाल में बरकरार रखने की बात कही. उन्होंने सरकार के इस रवैये पर कड़ा ऐतराज भी जताया. पत्रकारों की बिरादरी का बड़ा हिस्सा भी उनके समर्थन में आ गया.

भारत के एटिडर्स गिल्ड ने कोर्ट में वेणुगोपाल के वक्तव्य की एकमत से निंदा की. गिल्ड ने यह भी कहा कि ऐसी धमकियों से मीडिया की आजादी प्रभावित होगी.

द फाउंडेशन फॉर मीडिया प्रोफेशनल्स (एफएमपी) ने सरकार के बयान को अजीब बताया है. एफएमपी ने कहा कि 2005 के सूचना का अधिकार कानून (आरटीआई) की धारा 22 ने 1923 के ऑफिशियल सीक्रेट्स एक्ट के क्रूर नियमों को समाप्त कर दिया है.

अंग्रेजी अखबार ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ और ‘द टेलीग्राफ’ ने अपने संपादकीय-लेख में ‘द हिंदू’ के पक्ष को सही ठहराते हुए उसे पत्रकारिता और जनता के हित में बताया है.

इस पूरे प्रकरण के माध्यम से न सिर्फ पत्रकारिता और सत्ता के चरित्र को समझने में हमें सहूलियत होगी, बल्कि उन दोनों के आपसी संबंध भी ज्यादा स्पष्टता से नजर आएंगे. इसके साथ ही उस मौके की शिनाख्त भी हो सकेगी, जिसकी चर्चा लेख की शुरूआत में की गई थी.

पत्रकारिता सार्वजनिक दायरे में मौजूद सूचनाओं को ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाने का सिर्फ माध्यम भर नहीं है. यह उन सूचनाओं को सामने लाने का माध्यम भी है जो सार्वजनिक दायरे में नहीं हैं. राफेल जैसी ‘लीक’ पत्रकारिता के इस महत्वपूर्ण काम का जरिया है और इसे पत्रकारिता की एक स्थापित प्रैक्टिस माना जाता है. पूरी दुनिया की पत्रकारिता में इसके उदाहरण मौजूद हैं.

2016-17 में अलग-अलग देशों की मीडिया के अंतर्राष्ट्रीय सहयोग से पैराडाइज पेपर्स और पनामा पेपर्स के मामले सामने आए. ये मामले उद्योगपतियों और नेताओं द्वारा टैक्स बचाने के लिए अपने पैसे ‘टैक्स हेवन’ में जमा कराने से जुड़े थे.

1970 के दशक में ‘लीक’ से जुड़े पत्रकारिता के दो अमेरिकी मामले तो पूरी दुनिया में प्रसिद्ध हैं – पेंटागन पेपर्स और वाटरगेट. पेंटागन पेपर्स अमेरिकी-वियतनाम युद्ध से जुड़े थे. इसे पहले ‘द न्यूयार्क टाइम्स’ और फिर ‘द वाशिंगटन पोस्ट’ ने प्रकाशित किया था. इस घटना पर 2017 में स्टीवन स्पीलबर्ग ने ‘द पोस्ट’ नाम की चर्चित फिल्म भी बनाई है.

राष्ट्रपति निक्सन के कार्यकाल के दौरान हुए वाटरगेट लीक ने तो अमेरिका में संवैधानिक संकट खड़ा कर दिया था, क्योंकि निक्सन इसकी जांच में बाधा पहुंचा रहे थे. यह मामला विपक्षी नेताओं और सरकारी अधिकारियों की गुप्तचरी कराने से जुड़ा था.

अभी हाल ही में भारत में बेरोजगारी से संबंधित एनएसएसओ के आंकड़ों का सामने आना भी एक ‘लीक’ की वजह से संभव हुआ. ये मामले पत्रकारिता के चमकदार उदाहरण हैं. ये बताते हैं कि सरकार, देश नहीं है और पत्रकारिता देश के हित में होती है और जरूरत पड़ने पर सरकार के खिलाफ.

दूसरी तरफ, सरकार उन तमाम चीजों को दबाना चाहती हैं जो उसके खिलाफ जा सकती है. यह जरूरी नहीं कि उन्हें दबाना देश के पक्ष में हो. सत्ता का पत्रकारिता के साथ एक सहयोग-असहयोग का रिश्ता है, और पूरी तरह जनहित के विचार इसे निर्धारित करते हैं.

पिछले कुछ सालों में भारत की ‘पत्रकारिता’ को लेकर प्रकट की गई चिंताओं में सबसे बड़ी चिंता यह रही है कि वह समझौतापरस्त होने के साथ-साथ सत्तापरस्त भी हो गई है. हिंदी, क्षेत्रीय भाषाओं समेत अंग्रेजी में भी यह प्रवृति देखी गई. हालांकि इस दौर में भी तमाम भाषाओं की पत्रकारिता में साहस के क्षण बहुत हैं. लेकिन सत्तापरस्त चेहरा ही हावी रहा है.

राफेल ने एक मौका दिया है – एकताबद्ध होकर सत्ता की नापाक चालाकियों और साजिशों से मुठभेड़ का, अपनी प्रासंगिकता को बचाने का, प्रायश्चित का…


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