देशज आधुनिकता के मौलिक चिंतक थे राममनोहर लोहिया
जिन आधुनिक चिंतकों ने भारतीय समाज के बुनियादी संकटों को देशज जमीन पर खड़े होकर देखा-समझा और उसका समाधान प्रस्तुत किया उनमें लोहिया एक हैं. उन्होंने यूरोपीय पुनर्जागरण के महाआख्यान की आधुनिकता की चेतना और मार्क्सवाद दोनों को देखा-परखा और उनका आलोचनात्मक अध्ययन किया, लेकिन कभी भी यूरोपीय नजरिए से भारत को नहीं देखा. गांधी ने उन्हें प्रभावित, लेकिन कभी गांधीवादी नहीं बने.
लोहिया एक मौलिक चिंतक थे. उन्होंने भारतीय समाज के नाभिकीय समस्याओं को चिह्नित किया. उनका समाधान प्रस्तुत किया और आजीवन एक न्यायपूर्ण, लोकतांत्रिक, समता और स्वतंत्रता आधारित भारत के निर्माण के लिए संघर्ष करते रहे. एक ऐसा भारत जिसमें हर किसी की समान भागीदारी हो और हर किसी की आवाज का समान महत्व हो.
एक मौलिक चिंतक होने के चलते लोहिया को बार-बार यह प्रश्न परेशान करता रहा कि भारतीय समाज की आत्मा को कौन-सा कीड़ा लगा, जिसने अधिकांश भारतीयों को आत्महीन, संवेदनहीन बना दिया तथा न्याय तथा विवेक की चेतना से वंचित कर दिया? इस प्रश्न का मुकम्मिल जवाब डॉ. राममनोहर लोहिया दिया है.
भारतीयों की आत्महीनता या आत्मपतन की बुनियादी वजह को चिह्नित करते हुए, उन्होंने कहा कि “आत्मा के इस पतन के लिए मुझे यकीन है, जाति और औरत के दोनों कटघरे मुख्यतः जिम्मेदार हैं. इन कटघरों में इतनी शक्ति है कि साहसिकता और आनन्द की क्षमता को ये खत्म कर देते हैं. साहस की क्षमता खो देने का अर्थ है कि भारतीय आदमी मूलतः कायर है. इस चीज को हम रोजमर्रा की जिन्दगी में देख सकते हैं. अपने से थोड़े भी ताकतवर के सामने वह रिरियाने लगता है और वही आदमी कमजोर को देखते ही गुर्राने लगता है. उसका पुरुषार्थ कमजोर, असहाय, बेबस, लाचार तथा दीन-हीन को अपमानित, उत्पीड़ित एवं दबाने में दिखता है. जाति-वर्चस्व के नाम पर शूद्रों तथा अछूतों को तथा पुरुष वर्चस्व के नाम पर स्त्रियों को अपमानित, उपेक्षित करने तथा दबाने एवं सताने में तथाकथित ऊँची जातियां एवं पुरुष गर्व का अनुभव करते हैं. शूद्रों-स्त्रियों तथा कमजोरों को दबाने में उनके अहं की तुष्टि होती है.”
बात को आगे बढ़ाते हुए लोहिया कहते हैं, “वह आत्मा, जिससे कि ऐसे बुरे कर्म उपजते हैं, कभी भी न तो देश के कल्याण की योजना बना सकती है न ही खुशी से जोखिम उठा सकती है. वह हमेशा लाखों-करोड़ों को दबे और पिछड़े बनाए रखेगी. जितना कि वह उन्हें आध्यात्मिक समानता से वंचित रखती है उतना ही सामाजिक और आर्थिक समानता से वंचित रखेगी.”
इसका परिणाम यह हुआ कि द्विजों को छोड़कर सारी जातियाँ व्यक्तित्वहीन बना डाली गईं और यही वह दलदल है जो सारे भारतीय समाज में व्याप्त है. इस दलदल में ही हर संघर्ष, हर आंदोलन गायब हो जाता है. साहस की क्षमता के अभाव के बाद जिस चीज के अभाव पर उन्होंने जोर दिया, वह है आनंद में जीने की क्षमता को खो देना. इसी के चलते दुनिया में सबसे अधिक उदास हैं हिन्दुस्तानी लोग. जीवनोत्सव यहाँ गायब है. जाति और योनि की पवित्रता और सुरक्षा की चिन्ता में ही वह जीता रहता है. यौन पवित्रता की लंबी-चौड़ी बातों के बावजूद, आमतौर पर विवाह और यौन के संबंध में लोगों के विचार सड़े हुए हैं.
भारतीय पुरुषों का अधिकांश हिस्सा एक तरफ व्यभिचार के अवसरों की निरंतर तलाश में रहता है, दूसरी तरफ हर स्त्री की यौन शुचिता उसका बड़ा मूल्य है. जाति तथा योनि की शुचिता ही उसकी अंतरात्मा का सबसे बड़ा मूल्य है. उसका दिमाग इसी कटघरे में कैद है. वह खुले दिमाग और दिल से सोच ही नहीं पाता है, उसका हृदय और मस्तिष्क इन्हीं बिन्दुओं पर केन्द्रित है, इन्हीं के इर्द-गिर्द उसका संस्कारगत भीतरी मन घूमता रहता है.
जाति से जाति अलग है, स्त्री से पुरुष अलग है. हर आदमी अपने कटघरे में कैद अन्य से अंतरंग संबंध कायम करने में असमर्थ-सा है. जाति और योनि के ये दो कटघरे परस्पर संबंधित हैं और एक-दूसरे को पालते-पोसते हैं. बातचीत और जीवन में सारी ताजगी खत्म हो जाती है और प्राणवान रस-संचार खुलकर नहीं होता.
गांधी की महत्ता को स्वीकार करते हुए भी जीवन को रसविहीन बनाने वाले उनके तमाम विचारों से लोहिया असहमति जताते हैं. वे साफ शब्दों में उनके ब्रह्मचर्य की अवधारणा को खारिज करते हुए कहते हैं कि ‘ब्रह्मचर्य प्रायः कैदखाना होता है. ऐसे बंदी लोगों से कौन नहीं मिला, जिनका कौमार्य उन्हें जकड़े रहता है और जो किसी मुक्तिदाता की प्रतीक्षा करते हैं?’ वे आगे कहते हैं कि समय आ गया है कि जवान औरतें और मर्द ऐसे बचकानेपन के विरुद्ध विद्रोह करें.
आधुनिक भारत में शायद लोहिया एकमात्र ऐसे राजनेता हैं जो यौन शुचिता की – जिसे भारतीय संस्कृति का सबसे बड़ा मूल्य बना दिया गया है- अवधारणा को खुली चुनौती देते हैं. वे साफ शब्दों में कहते हैं कि “यौन आचरण में केवल दो ही अक्षम्य अपराध है, बलात्कार और झूठ बोलना या वादों को तोड़ना.”
बलात्कार या गैर-वफादारी के अतिरिक्त वे स्त्री-पुरुष के बीच के सभी संबंधों को जायज मानते हैं, सहर्ष स्वीकार करते हैं. इसके लिए वे मर्द और औरतों को ललकारते हैं कि वे यौन शुचिता के कटघरे को तोड़ें, जोखिम उठाएं, बदनामी मोल लें.’ जब जवान मर्द-औरतें अपनी ईमानदारी के लिए बदनामी झेलते हैं, तो उन्हें याद रखना चाहिए कि पानी फिर से निर्बन्ध बह सके, इसलिए कीचड़ साफ करने की, उन्हें यह कीमत चुकानी पड़ती है. वे भारतीय मानस के सामने सबसे बड़ा पुण्य कर्म इसी कटघरे को तोड़ना मानते हैं. जाति के खात्मे और स्त्री-पुरुष सम्बन्धों के बीच परस्पर बराबरी तथा प्रेम आधारित संबंध कायम होने की स्थिति के बिना भारतीय जीवन में वास्तविक खुशहाली या आनन्द की कल्पना भी नहीं की जा सकती है.
“आज जाति और योनि के इन वीभत्स कटघरों को तोड़ने से बढ़कर और कोई पुण्यकार्य नहीं है. इतना ही याद रखें कि चोट या तकलीफ न पहुंचाएं और अभद्र न हों, क्योंकि मर्द और औरत के बीच का रिश्ता बड़ा नाजुक होता है. हो सकता है, हमेशा इससे न बच पायें. किन्तु प्रयत्न करना कभी बन्द नहीं होना चाहिए. सर्वोपरि, इस भयंकर उदासी को दूर करें, और जोखिम उठाकर खुशी हासिल करें.”
आज हम देख रहे हैं समाज का एक छोटा-सा हिस्सा ही सही जोखिम उठा रहा है, कीमत चुका रहा है. प्रेम आधारित स्त्री-पुरुष संबंध को कायम करने के लिए लोगों को जान की कीमत भी चुकानी पड़ रही है. छोटा-सा हिस्सा ही सही अपने मनपसन्द जीवन-साथी के चुनाव की आजादी के लिए संघर्ष कर रहा है लेकिन यह परिघटना अत्यन्त धीमी है. साथ ही जाति एवं योनि शुचिता में जकड़ा भारतीय समाज और यहां के मनुष्य का दिमाग इस बात को स्वीकार करने को तैयार ही नहीं है कि प्रेम, सिर्फ प्रेम ही, स्त्री-पुरुष सम्बन्धों का आधार हो सकता है.
लोहिया हिन्दू कोड बिल में पेश अंबेडकर के इन विचारों से पूर्णतया सहमत हैं कि “लड़की की शादी करना माँ-बाप की जिम्मेदारी नहीं; अच्छा स्वास्थ्य और अच्छी शिक्षा दे देने पर उनकी जिम्मेदारी खत्म हो जाती हैं.”
वे इससे भी आगे बढ़कर कहते हैं कि “अगर कोई लड़की इधर-उधर घूमती है और किसी के साथ भाग जाती है और दुर्घटना-वश उसको अवैध बच्चा होता है, तो वह औरत और मर्द के बीच स्वाभाविक संबंध हासिल करने के सौदे का एक अंग है, और उसके चरित्र पर किसी तरह का कलंक नहीं.” वे सीता को नहीं, द्रोपदी को आदर्श मानने पर जोर देते हैं, जिसने कभी भी किसी पुरुष से दिमागी हार नहीं खाई. वे यहाँ तक कहते हैं कि नारी को गठरी के समान नहीं बनना चाहिए, बल्कि इतना शक्तिशाली होनी चाहिए कि वक्त पर पुरुष को गठरी बनाकर अपने साथ ले चले.
आक्रोश एवं गुस्से में लोहिया भारतीय मर्द को पाजी कहते हैं, “भारतीय मर्द इतना पाजी है कि अपनी औरतों को वह पीटता है. सारी दुनिया में शायद औरतें पिटती हैं, लेकिन जितनी हिन्दुस्तान में पीटती हैं इतनी और कहीं नहीं…. शाम को पुरुष जब घर लौटता है तो घर की औरतों पर सारा गुस्सा उतारता है. फिर जब औरत को गुस्सा चढ़ता है तो औरतें बच्चों पर उतारती हैं.”
जाति और योनि के इस कटघरे ने भारतीय आदमी को पाखंडी बना दिया है. लोहिया भारतीय आदमी के ढोंगी-पाखण्डी चरित्र की रग-रग से परिचित थे, वे इस चरित्र से नफरत करते थे. वे कहते थे कि “कहीं हमारी संस्कृति में कोई ऐसा बीज पड़ा है जो अपनी प्रकृति में ही दोफंटा है. अब समय आ गया है कि इस बीच के एक फांट को बिल्कुल खत्म किया जाए. कोई मोह या संकोच करने से यह दोफंटा बीज हमेशा हमको निस्तेज बनाता रहेगा.”
भारतीय आदमी के विचार और कर्म के बीच के फर्क को देखकर बहुत सारे विदेशी पर्यवेक्षक दंग रह जाते हैं. बहुत सारे गम्भीर भारतीय चिन्तकों ने भी ढोंग-पाखंड को भारतीयों का बुनियारी गुण माना है. इसके कारणों की तलाश करते हुए लोहिया जाति तक जाते हैं. “कौन जाने विचार और कर्म के बीच इतना विचित्र अलगाव, जो कि और किसी से अधिक भारतीय संस्कृति को विशिष्टता है, जाति के असर का ही परिणाम हो. जाति एक ऐसा चौखटा है जिसे बदला नहीं जा सकता. उसमें रहने के लिए बड़ी जबर्दस्त पटुता, दुहरे, तिहरे या अनेक तरीकों से सोचना और काम करना नितान्त आवश्यक है.” सोचने और काम करने का यह तरीका आदमी को ढोंगी-पाखंडी बना देता है.
भारतीय इतिहास की एक बहुत बड़ी उलझी गुत्थी यह रही है कि आखिर प्राकृतिक संसाधनों तथा मानवी सम्पदा से सम्पन्न यह विशाल देश क्यों हजारों वर्षों से विदेशियों से पराजित होता रहा, उनके सामने घुटने टेकता रहा, करोड़ों की जनसंख्या वाला यह देश कैसे मुट्ठी भर विदेशी फौज के सामने घुटने टेक देता रहा है. इस मामले में लोहिया और आम्बेडकर कमोबेश एक ही जवाब देते हैं.
लोहिया लिखते हैं, “भारतीय समाज के, यदि हजारों नहीं तो सैकड़ों जातियों में विभाजन से, जिनका जितना राजनीतिक उतना ही सामाजिक महत्व है, साफ हो जाता है कि हिन्दुस्तान बार-बार विदेशी फौजों के सामने क्यो घुटने टेक देता है. इतिहास साक्षी है कि जिस काल में जाति के बन्धन ढीले थे उसने लगभग हमेशा उसी काल में घुटने नहीं टेके हैं. विदेशी हमलों के दुखदायी सिलसिले को जिसके सामने हिन्दुस्तानी जनता पसर गयी, अन्दरूनी झगड़ों और छल-कपट के माथे थोपा जाता है. यह बात वाहियात है. इसका तो सबसे बड़ा एकमात्र कारण जाति है. वह 90 प्रतिशत आबादी को दर्शक बनाकर छोड़ देती है, वास्तव में, देश की दारुण दुर्घटनाओं के निरीह और लगभग उदासीन दर्शक. ‘कोउ नृप होई, हमें का हानी.”
मुसलमानों के प्रति हिन्दुओं की घृणा और असहिष्णुता के पीछे भी जाति तथा योनि सम्बन्धी हिन्दुओं की दृष्टि की भूमिका है. इसे भी लोहिया ने पहचाना था. वे साफ शब्दों में कहते हैं कि ‘कोई हिन्दू मुसलमानों के प्रति सहिष्णु नहीं हो सकता, जब तक कि वह उसके साथ ही वर्ण और सम्पत्ति के विरुद्ध और स्त्रियों के हक में काम न करें.’
आज जो लोग साम्प्रदायिकता के खिलाफ संघर्ष को जातीय, लैंगिक तथा सम्पत्ति सम्बन्धी असमानता तथा गैर-बराबरी के खिलाफ संघर्ष से अलग करके देखते हैं, उनके लिए यह एक महत्त्वपूर्ण सबक है. सच्चाई तो यह है कि कमोबेश अधिकांश साम्प्रदायिकता विरोधी या धर्मनिरपेक्षता के समर्थकों ने इस संघर्ष को जातीय, लैंगिक तथा सम्पत्ति सम्बन्धी संघर्ष से अलग ही कर रखा है.
धार्मिक असहिष्णुता पर तो वे खूब बोलते तथा संघर्ष करते हैं, लेकिन रोजमर्रा की जातीय और लैंगिक असमानता पर चुप्पी साधे रहते हैं या सहिष्णु दिखते हैं. भारतीय दिमाग ही नहीं, समाज की जड़ता और गतिहीनता अर्थात क्रांतिकारी बदलाव तथा क्रांतिकारी चेतना के अभाव के लिए भी वे जाति को ही जिम्मेदार ठहराते हैं. “हिन्दुस्तान में क्रांति न होने का सबसे बड़ा एक कारण बताना हो, तो दर्शन के रूप में तो वह दासता का समन्वय वगैरह है. लेकिन, अगर एक संस्था या संगठन के रूप में बताना हो, तो वह वह जाति प्रथा है, वर्ण-व्यवस्था है. इसमें कोई शक नहीं. आर्थिक गैर-बराबरी और सामाजिक गैर-बराबरी दोनों को मिलाकर हमने देश ने इतनी जबरदस्त जन्मजात गैर-बराबरी पैदा की है. क्रांति हो तो कैसे – जहां गैर-बराबरी इतनी ज्यादा हो कि लोग सोच ही नहीं सकते कि सब बराबर हो सकते हैं, वहां क्रांति की गुंजाइश ही नहीं रह जाती.”
आज भी कोई भी व्यक्ति भारतीय आदमियों के बहुलांश की थाह लेने की कोशिश करे तो, वह पाएगा कि भीतर से वह बराबरी महसूस ही नहीं कर पाता, स्वीकार नहीं कर पाता कि सभी आदमी आपस में आदमी के स्तर पर बराबर है. जाति सम्बन्धी उसकी दृष्टि उसके भीतर और गैर-बराबरी को स्वाभाविक सहज, जन्मजात और संस्कारगत सोच बना देती है.
कम्युनिस्ट वामपंथी राज्य के चरित्र को समझना ही क्रांतिकारी पार्टी या व्यक्ति का सबसे बड़ा पहला कार्यभार मानते हैं. मार्क्स, एंगेल्स, लेनिन तथा माओ से भी उन्होंने यह सबसे महत्त्वपूर्ण सीख ली. लेकिन वे कभी भी भारतीय राज्य और समाज को समझ नहीं सके. वे यूरोपीय चश्मे से समझने की कोशिश करते रहे, इसका परिणाम हुआ कि वे अभी तक तक नहीं तय कर पाए कि भारतीय राज्य अर्धसामन्ती-अर्धऔपनिवेशिक है, या पूँजीवादी या और कुछ है.
लोहिया भारतीय राज्य के चरित्र को ठीक-ठीक पहचानते थे. उन्होंने ऊंची जाति, अंग्रेजी शिक्षा और सम्पत्ति इन तीन चीजों को भारतीय शासक वर्ग का बुनियादी लक्षण कहा है. आज भी अगर आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक तथ्यों की गहराई से जांच-पड़ताल करें तो हम इस निष्कर्ष पर पहुंचेंगे कि भारतीय शासक वर्ग उच्च जातीय, उच्च वर्गीय हिन्दू मर्दों से बना है, भले ही उसमें पिछड़ी जातियों, दलितों तथा कुछ महिलाओं का प्रवेश भी दिखाई देता हो. पिछड़ों, दलितों तथा महिलाओं का जो हिस्सा शासक वर्गों में शामिल होता है वह उच्च जातीय, उच्च वर्गीय तथा पुरुष वर्चस्ववादी मूल्यों को स्वीकार कर लेता है या यूं कहें कि एक ऐसी संरचना बन चुकी है कि उसमें इसके बिना प्रवेश ही नहीं किया जा सकता है.
भारतीय कम्युनिस्टों ने चाहे जितना भी संघर्ष किया हो, जितनी भी शहादत एवं कुर्बानी दी हो, तथा इसके परिणामस्वरूप शोषित-उत्पीड़ितों को जितना भी फायदा पहुंचा, लेकिन वे भारतीय समाज एवं राज्य के चरित्र को समझने में असफल रहे, आज भी असफल हैं, चाहे उनकी मंशा कितनी ही पवित्र क्यों न हो, वे कितना ही संघर्ष और त्याग क्यों न कर रहे हों.
भारतीय समाज, राज्य और यहां के व्यक्ति की मानसिकता को समझने की जिन तीन कुंजियों – जाति, योनि तथा भाषा को लोहिया ने केन्द्रीय माना वे आज भी उतनी ही महत्वपूर्ण और केन्द्रीय हैं, भले ही उनका स्वरूप और ज्यादा जटिल तथा सूक्ष्म हो गया है. इसे न समझने के चलते लोहिया कहते हैं कि जितने सुधारवादी आंदोलन भी हुए, वे सब के सब सनातन हिन्दू व्यवस्था द्वारा उदरस्थ कर लिए गए और जातिवाद का भयानक दलदल अभी भी बना हुआ है. यह दलदल इतना गहरा है कि बड़ा से बड़ा पत्थर इसके गर्भ में कहाँ चला जाता है, कुछ भी पता नहीं चलता. परिवर्तन के विरुद्ध और स्थिरता के प्रति जाति प्रथा एक भयानक शक्ति है – ऐसी शक्ति जो मौजूदा टुच्चेपन, कलंक और झूठ को स्थिर करती है. वे आगे कहते हैं, जाति से विद्रोह में हिन्दुस्तान की मुक्ति हैं.
निर्विवाद तौर पर कहा जा सकता है यदि भारतीय समाज, राज्य तथा भारतीय व्यक्ति की मानसिकता को हम गहराई से समझना चाहते हैं तो लोहिया हमारे महत्त्वपूर्ण मददगार हैं. बदलने के तरीकों तथा उपायों के संदर्भ में भले ही हमारी उनसे लाख असहमति हो, मेरी भी है, लेकिन भारतीय राज्य और समाज के बुनियादी चरित्र को समझने में लोहिया के विचार अत्यन्त महत्वपूर्ण और उपयोगी हैं.