क्या वाकई में नेहरू ने चीन को सुरक्षा परिषद में जगह दिलाई थी?
कितना रोचक है कि वर्तमान बीजेपी सरकार अपनी सभी असफलताओं का ठीकरा जवाहरलाल नेहरू पर फोड़ती है. उन नेहरू पर जो आज से छप्पन साल पहले अपनी सफ़लताओं-असफलताओं के साथ दिवंगत हो चुके हैं.
राष्ट्रीय आंदोलन की बुनियाद पर लगातार चोट करने के आरएसएस-बीजेपी के अभियान के लिए नेहरू सबसे आसान निशाना हैं. नेहरू पर बीजेपी-आरएसएस का हालिया हमला तब सामने आया जब राहुल गांधी ने मसूद अजहर के मामले में चीन के वीटो को लेकर मोदीजी पर तंज कसा कि वो ‘डरे हुए’ और ‘कमजोर’ प्रधानमंत्री हैं.
राहुल गांधी पर पलटवार करते हुए अरुण जेटली ने कहा कि चीन और कश्मीर दोनों ही मुद्दों के लिए दरअसल एक ही आदमी दोषी है और वो हैं नेहरू. उन्होंने नेहरूजी द्वारा मुख्यमंत्रियों को लिखी 2 अगस्त 1955 की चिट्ठी का हवाला देते हुए कहा कि दरअसल संयुक्त राष्ट्र में स्थायी सदस्यता के लिए चीन का पक्ष लेने वाले नेहरू ही इस मामले में ‘असली पापी’ (ओरिजिनल सिनर) हैं.
जिस दो अगस्त की चिट्ठी का वो हवाला दे रहे हैं, वो नेहरूजी की मुख्यमंत्रियों को लिखे पत्रों के आधिकारिक संकलन लेटर्स टू चीफ मिनिस्टर्स में संकलित है. जवाहरलाल नेहरू मेमोरियल फण्ड के एक प्रोजेक्ट के तहत संकलित यह पत्र ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस द्वारा प्रकाशित किये गए हैं. उक्त पत्र लेटर्स टू चीफ मिनिस्टर्स के चौथे वॉल्यूम में शामिल है.
राजनीति में इतिहास राजनीति के हथियार की तरह इस्तेमाल होता है. जेटली इसके अपवाद नहीं हैं. उन्होंने इस पत्र को उसके व्यापक सन्दर्भ से काटकर बड़ा खेल किया है. चूंकि जेटली ने लेटर्स टू चीफ मिनिस्टर्स को देखा है इसलिए पूछना लाज़मी है कि क्या नरेंद्र मोदी ने बतौर प्रधानमंत्री सभी मुख्यमंत्रियों को छोड़ भी दें तो क्या किसी बीजेपीई मुख्यमंत्री को भी कोई पत्र लिखा है? दूसरा, क्या उनकी कोई दिलचस्पी अपने मुख्यमंत्रियों को इस बात से अवगत कराने में है कि जनता के पैसे पर की गई अंधाधुंध विदेश यात्राओं का कुल नतीज़ा क्या रहा?
नेहरू मानते थे कि यह बात राज्यों के मुख्यमंत्रियों को भी पता होनी चाहिए कि विदेश नीति के मामले में उनकी सरकार क्या कर रही है और किन वैश्विक परिस्थितियों में कर रही है? क्योंकि नेहरू अपने साथ किसी अडानी को लेकर नहीं जाते थे जिनके व्यापारिक हितों को साधना ही उनकी यात्राओं का मुख्य मकसद होता है, भले ही उसे वो भारतीय कॉर्पोरेट की विश्वविजय बनाकर पेश करते हों.
नेहरू ने यह चिट्ठी अपने सोवियत संघ दौरे के बाद उसकी जानकारी मुख्यमंत्रियों को देने के लिए लिखी है. यह इस बाबत उनकी दूसरी चिट्ठी है क्योंकि पहली चिट्ठी में उन्होंने बहुत संक्षेप में अन्य मुद्दों के साथ इसका ज़िक्र किया था. इसमें उन्होंने सोवियत नेताओं के साथ युगोस्लाविया के मार्शल टीटो के साथ अपनी बात का हवाला देते हुए कहा कि वर्तमान विश्व परिस्थिति का अब उनको और बेहतर ज्ञान प्राप्त हुआ है. हालांकि, वो कहते हैं, कि वो जो कुछ सोच रहे थे दरअसल वही सच है. वो इस पत्र में सोवियत क्रान्ति व राजनीति, यूगोस्लाविया की समस्या, राष्ट्रवाद के प्रश्न के साथ-साथ शीत युद्ध चार शक्तियों की बैठक के संदर्भ में चीन और अमेरिका के राजदूतों की होने वाली मुलाक़ात का ज़िक्र कर रहे हैं.
दरअसल, चीन और अमेरिका के तनावों के मद्देनज़र वो इस मसले की गंभीरता समझते थे और मानते थे कि चीन को मुख्यधारा में लाने से दोनों के बीच तनाव कम होगा. इसी उद्देश्य से वो अमेरिका के कुछ वायुसैनिकों की रिहाई को लेकर चीन को मनाने का प्रयास कर रहे थे जिसमें उन्हें सफलता तब मिली जब चीन ग्यारह अमेरिकी वायुसैनिकों को रिहा करने को राज़ी हो गया. जेटली से पूछा जाना चाहिए कि वैश्विक कूटनीति में इस तरह के प्रभाव के मामले में क्या मोदीजी इस मामले में नेहरू के पासंग बराबर भी हैं?
इसी पत्र में वो फिर सुदूर पूर्व की समस्या का ज़िक्र करते हुए संयुक्त राष्ट्र संघ और सुरक्षा परिषद् में चीन की जनवादी सरकार के शामिल होने के मुद्दे पर विचार करते हैं. इस मुद्दे पर अमेरिका का रुख बेहद सख्त था और नेहरू उसी सन्दर्भ में चीन की सदस्यता के लिए जनमत तैयार करना चाहते हैं. ऐसा वो एक विश्व नेता के तौर पर करना चाहते थे और समझते थे कि अलग-थलग पड़कर चीन और अधिक आक्रामक होकर उभरेगा जो विश्व शांति के लिए नुकसानदायक होगा.
याद रखिये यह वो समय है जब नेहरू एक विश्व नेता की तौर पर उभर रहे थे और गुटनिरपेक्षता की नीति अपना आकार ले रही थी. नेहरू चीन, पाकिस्तान और अन्य देशों के साथ किसी भी तरह के संघर्ष को हरसंभव तरह से टालना चाहते थे. उनका मानना था कि नए-नए आज़ाद हुए देशों को आपस में संघर्ष करने की बजाय अपने देशों की अर्थव्यवस्थाओं को मजबूत करने और अपने लोगों के कल्याण की योजनाओं पर काम करना चाहिए.
वो कहते हैं कि अनौपचारिक रूप से अमेरिका ने यह सुझाव दिया है कि चीन को संयुक्त राष्ट्र की सदस्यता देनी चाहिए लेकिन सुरक्षा परिषद् में उसकी जगह भारत को लेनी चाहिए. नेहरू ने लिखा कि अगर भारत यह प्रस्ताव स्वीकार कर लेता है तो भारत के रिश्ते चीन के साथ ख़राब हो सकते हैं और चीन जैसे महान देश को बाहर रखना गलत होगा.
उन्होंने मुख्यमंत्रियों को बताया, “इसलिए हमने उन लोगों को यह स्पष्ट कर दिया जिन्होंने यह सुझाव दिया था कि भारत इस समय सुरक्षा परिषद् में स्थान पाने के लिए आतुर नहीं है हालांकि एक महान देश होने के नाते उसे वहां होना चाहिए. पहला कदम चीन के बारे में लिया जाना चाहिए कि उसे उसका उचित स्थान मिले और फिर भारत के मामले पर अलग से विचार किया जाना चाहिए.”
दरअसल, नेहरू यहां विश्व राजनय के मुताबिक़ चीन का स्थान छीनने के बजाय भारत के लिए अलग से स्थान बनाने का प्रयास कर रहे थे. क्योंकि चीन भारत का पड़ोसी देश था और अमेरिका के अनौपचारिक प्रस्ताव को स्वीकार करने से भारत और चीन के आपसी संबंध खराब हो सकते थे जो उस समय बहुत अच्छे चल रहे थे.
एक पड़ोसी देश के साथ इस तरह के तनाव भारत के लिए बहुत नुकसानदायक सिद्ध होते जिसे आज़ाद हुए अभी महज़ आठ साल ही हुए थे. दूसरी बात, अमेरिका के इस अनौपचारिक प्रस्ताव के लिए यह कहना एकदम झूठ होगा कि नेहरू ने भारत की जगह चीन को सुरक्षा परिषद् में जगह दिलाई थी. मूल रूप से यह प्रस्ताव चीन और अमेरिका के बीच आपसी तनावों को कम करने के लिए था और यह सीट भी चीन के लिए ही प्रस्तावित थी.
बीजेपी-आरएसएस का प्रचार तंत्र भारत को भीतर से मजबूत बनाने की किसी नेहरू जैसी योजना के बजाय पड़ोसी देशों के साथ छद्म आक्रामकता का सहारा लेकर अपना काम चलता है वरना डोकलाम के मुद्दे पर तनाव होते ही क्यों नहीं मोदीजी और उनके स्वयंसेवक बीजिंग तक भारत का झंडा फहरा आए? हर बात पर नेहरूजी को कोसने के बजाय अगर मोदीजी ने पांच साल में कुछ भी ठोस हासिल किया होता तो चुनावों के पहले उन्हें थोथे सैन्य राष्ट्रवाद का सहारा नहीं लेना पड़ता.