सांप्रदायिकता के खिलाफ संघर्ष में प्रासंगिक हैं भगत सिंह के विचार
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शहीदे-ए-आज़म भगत सिंह भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में एक ऐसा नाम है जिसने अपनी छोटी सी उम्र में राजनीतिक और वैचारिक पैनेपन के साथ ऐसी उपस्थिति दर्ज कराई जिसकी धमक आज भी युवाओं के सपनों में सुनाई देती है. उनके जीवन की कहानी केवल 23 साल के ऐसे नौजवान की कहानी नहीं है जो फांसी के फंदे पर झूलते वक़्त भी अपने विचार से जरा भी नहीं डगमगाया.
ये कहानी उस नौजवान की है जो छोटी सी उम्र में इस निष्कर्ष पर पहुंचता है कि भारत में सामाजिक बदलाव की लड़ाई तब तक जारी रहेगी जब तक ना केवल गोरे साहबों बल्कि भूरे साहबों को भी तख़्त से नीचे उतारकर सत्ता गरीब-मजदूरों के हाथ में नहीं दे दी जाती. भगत सिंह महज बातें बघारने वाले सिद्धांतकार नहीं थे, वो संघर्ष के हर मोर्चे पर, हर एक्शन प्रोग्राम में सबसे आगे रहते थे. वो ऐसे संगठनकर्ता थे जो काडरों के साथ सच्चे मायने में साथी का बर्ताव करते थे और उनके हर सुख दुःख में उनके साथ रहते थे. बुनियादी बदलाव के जिस सपने के लिए भगत सिंह और उनकी पीढ़ी अपनी जान तक न्यौछावर करने को तैयार थी, वही टेढ़े-मेढ़े मुश्किल रास्तों से होते हुए आज भी अनगिनत युवाओं की आँखों में जिंदा है.
आज जब देश में झूठे देशभक्त हमें राष्ट्रवाद का पाठ पढ़ा रहे हैं और जनता के शोषण का चक्का उसी रफ़्तार से चल रहा है, तब भगत सिंह के विचारों की अहमियत और भी बढ़ जाती है. स्वतंत्रता आंदोलन में भगत सिंह के योगदान को कोई भी नकार नहीं सकता.
आज हम देखते हैं कि वैचारिक तौर से विरोधी ताकतें भी उनकी विरासत को हथियाने की कोशिश कर रही हैं. यह ताकतें भगत सिंह को केवल राष्ट्रवाद के प्रतीक के रूप में चित्रित कर रही हैं और उनकी विचारधारा को छुपाने की कोशिश कर रही हैं. भगत सिंह को आम तौर पर नायक के रूप में चित्रित कर दिया जाता है लेकिन समाज के बारे में उनकी गहरी समझ, उनकी बुद्धि और जिस तरह के क्रांतिकारी परिवर्तन के बारे में उनकी स्पष्टता थी, उसके बारे में कोई भी बात नहीं करता है.
वर्तमान समय में जब दक्षिणपंथ बढ़ रहा है और सत्ताधारी दल द्वारा हमारे जीवन में सांप्रदायिक विष फैलाया जा रहा है, तब भगत सिंह के विचारों से प्रेरित सैकड़ों लोग साम्प्रदायिक ताकतों से लौहा ले रहे हैं.
संघ परिवार भगत सिंह की लोकप्रियता का खंडन नहीं कर सकता है इसलिए हाल ही में उन्हें राष्ट्रवाद के हिंदुत्व ब्रांड के रूप में प्रतिष्ठित करने का प्रयास किया गया. उन पर निस्वार्थ कुर्बानी करने वाले “बहादुर देशभक्त” की छवि अंकित की गई है और उन्हें चित्रों में पिस्तौल रखने वाले अतिवादी के रूप में चित्रित किया गया. हालांकि, उनके राजनीतिक या धार्मिक विचारों पर चर्चा करने की कोशिश नहीं की गई क्योंकि वह एक मार्क्सवादी और एक नास्तिक थे. वर्तमान समय में जब अल्पसंख्यकों, सामाजिक रूप से वंचित वर्गों (ओबीस, एससी/एसटी) और महिलाओं के खिलाफ सांप्रदायिक नफरत और हिंसा का माहौल है, भगत सिंह विशेष रूप से महत्वपूर्ण हो जाते हैं.
भगत सिंह किसी भी तरह की सांप्रदायिक प्रवृत्ति के खिलाफ थे. उन्होंने धर्म को एक व्यक्तिगत मुद्दा माना. वह सांप्रदायिकता के सभी रूपों के घोर आलोचक थे. उन्होंने किसी भी अन्य समकालीन नेता की तुलना में भारतीय समाज और भारतीय राष्ट्रवाद के लिए सांप्रदायिकता के खतरे को अच्छी तरह समझा. वह सांप्रदायिकता को उपनिवेशवाद से भी बड़ा दुश्मन मानते थे. उनका दृढ़ मत था कि धर्म को राजनीति से अलग रखना चाहिए. वर्तमान समय में इस बात की बहुत जरूरत है, जब हमारी सत्ताधारी पार्टी अपनी राजनीति के लिए धर्म का इस्तेमाल कर रही है.
वास्तव में धर्मनिरपेक्षता का सही अर्थ है जब राज्य (सरकार) धर्म से दूर रहता है क्योंकि यह नागरिकों का एक निजी मामला है. अगर हम धर्म को राजनीति से अलग करते हैं तो हम सभी राजनीति और राष्ट्रीय मामले में एक साथ खड़े हो सकते हैं, भले ही हमारी अलग-अलग धार्मिक मान्यताएं हों.
सांप्रदायिकता के बारे में भगत सिंह की समझ के एक पहलू के बारे में बहुत कम चर्चा होती है. वह है सांप्रदायिकता के मूल कारण के बारे में उनकी गहरी समझ. अन्य कारणों के आलावा, वह आर्थिक कारण को सांप्रदायिकता का मूल मानते थे. इसके बारे में उनके विचारो का पता चलता है 1928 के ‘किरती’ में छपे “साम्प्रदायिक दंगे और उनका इलाज” शीर्षक के एक लेख से. यह लेख इस समस्या पर शहीद भगत सिंह और उनके साथियों के विचारों का सार है.
भगत लिखते है, “यदि इन साम्प्रदायिक दंगों की जड़ खोजें तो हमें इसका कारण आर्थिक ही जान पड़ता है. असहयोग के दिनों में नेताओं व पत्राकारों ने ढेरों कुर्बानियाँ दीं. उनकी आर्थिक दशा बिगड़ गई थी. असहयोग आंदोलन के धीमा पड़ने पर नेताओं पर अविश्वास-सा हो गया जिससे आजकल के बहुत से साम्प्रदायिक नेताओं के धन्धे चौपट हो गए. विश्व में जो भी काम होता है, उसकी तह में पेट का सवाल जरूर होता है. कार्ल मार्क्स के तीन बड़े सिद्धान्तों में से यह एक मुख्य सिद्धान्त है. इसी सिद्धान्त के कारण ही तबलीग, तनकीम, शुद्धि आदि संगठन शुरू हुए और इसी कारण से आज हमारी ऐसी दुर्दशा हुई, जो अवर्णनीय है.”
वर्तमान में यह समझ, सांप्रदायिकता के खिलाफ संघर्ष में बहुत महत्वपूर्ण है. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेतृत्व वाली सांप्रदायिक शक्तियों के उदय के लिए जन विरोधी आर्थिक नीतियां भी जिम्मेदार हैं. पश्चिम भी उसी समस्या का सामना कर रहा है, जहां संयुक्त राज्य अमेरिका में ट्रम्प के सत्ता में उभार के लिए यही नवउदारवादी नीतियों का योगदान था. यह भगत सिंह की बुद्धि थी जिसने सांप्रदायिक ताकतों के विकास के लिए अनुकूल परिस्थितियों के मूल कारणों को खोद कर निकाला जो आज भी सच है.
इसी तर्क के आधार पर वह समाधान देते है, “बस, सभी दंगों का इलाज यदि कोई हो सकता है तो वह भारत की आर्थिक दशा में सुधार से ही हो सकता है दरअसल भारत के आम लोगों की आर्थिक दशा इतनी खराब है कि एक व्यक्ति दूसरे को चवन्नी देकर किसी और को अपमानित करवा सकता है. भूख और दुख से आतुर होकर मनुष्य सभी सिद्धान्त ताक पर रख देता है. सच है, मरता क्या न करता. लेकिन वर्तमान स्थिति में आर्थिक सुधार होना अत्यन्त कठिन है क्योंकि सरकार विदेशी है और लोगों की स्थिति को सुधरने नहीं देती. इसीलिए लोगों को हाथ धोकर इसके पीछे पड़ जाना चाहिए और जब तक सरकार बदल न जाए, चैन की सांस न लेना चाहिए.”
भगत सिंह ने ना केवल भारतीय समाज में सांप्रदायिकता के बढ़ते स्वरूप की आलोचना की, बल्कि वह अस्पृश्यता और जाति के गंभीर मुद्दे पर चिंतित थे . भगत सिंह और उनके साथी सामाजिक न्याय की आवश्यकता और जाति व्यवस्था को उखाड़ फेंकने के प्रति भी सचेत थे. उन्होंने विकास को सामाजिक न्याय से जोड़ा. वह मानते कि अछूतों की समानता के बिना न्यायपूर्ण समाज की कल्पना भी नहीं की जा सकती.
काकीनाडा में 1923 मे कांग्रेस-अधिवेशन मे आजकल की अनुसूचित जातियों को, जिन्हें उन दिनों “अछूत” कहा जाता था, हिन्दू और मुस्लिम मिशनरी संस्थाओं में बांट देने का सुझाव दिया. उसी समय जब इस मसले पर बहस का वातावरण था, भगतसिंह ने “अछूत का सवाल” नामक लेख जून, 1928 के “किरती” में विद्रोही नाम से लिखा. इस लेख में, भगत सिंह ने उस समय में अछूतों की स्थिति को सामने रखा और कुछ समाधान सुझाए.
वह अपने पाखंड के लिए स्वतंत्रता आंदोलन के कुछ नेताओं के तीखे आलोचक थे. इस लेख में इसी पाखंड को उजागर करने और वास्तविक समानता व स्वतंत्रता का अर्थ बताने के लिए उन्होंने नूर मोहम्मद को उद्धृत किया. वे कहते हैं कि जब तुम एक इंसान को पीने के लिए पानी देने से भी इनकार करते हो, जब तुम उन्हें स्कूल में भी पढ़ने नहीं देते तो तुम्हें क्या अधिकार है कि अपने लिए अधिक अधिकारों की मांग करो? जब तुम एक इंसान को समान अधिकार देने से भी इनकार करते हो, तो तुम अधिक राजनीतिक अधिकार माँगने के अधिकारी कैसे बन गए?
वह अछूतों के साथ किए जा रहे व्यवहार को अमानवीय मानते थे. इसी लेख में बड़े ही उलाहना भरे और कड़े शब्दों में लिखते है, “सोचो, कितनी शर्म की बात होती. कुत्ता हमारी गोद में बैठ सकता है. हमारी रसोई में निःसंग फिरता है, लेकिन एक इंसान का हमसे स्पर्श हो जाए तो बस धर्म भ्रष्ट हो जाता है. इस समय मालवीय जी जैसे बड़े समाज-सुधारक, अछूतों के बड़े प्रेमी और न जाने क्या-क्या पहले एक मेहतर के हाथों गले में हार डलवा लेते हैं, लेकिन कपड़ों सहित स्नान किये बिना स्वयं को अशुद्ध समझते हैं! क्या खूब यह चाल है! सबको प्यार करनेवाले भगवान की पूजा करने के लिए मन्दिर बना है लेकिन वहाँ अछूत जा घुसे तो वह मन्दिर अपवित्र हो जाता है! भगवान रुष्ट हो जाता है! घर की जब यह स्थिति हो तो बाहर हम बराबरी के नाम पर झगड़ते अच्छे लगते हैं? तब हमारे इस रवैये में कृतघ्नता की भी हद पाई जाती है. जो निम्नतम काम करके हमारे लिए सुविधाओं को उपलब्ध कराते हैं उन्हें ही हम दुरदुराते हैं. पशुओं की हम पूजा कर सकते हैं, लेकिन इन्सान को पास नहीं बिठा सकते! ”
वह दृढ़ता से विश्वास करते थे कि वंचित तबकों को खुद अपनी एकता और आत्म निर्भरता के आधार पर शोषण के खिलाफ संघर्ष का नेतृत्व करना होगा. इसी लेख में वह आह्वाहन करते हैं, “लेकिन यह काम उतने समय तक नहीं हो सकता जितने समय तक कि अछूत कौमें अपने आपको संगठित न कर लें. हम तो समझते हैं कि उनका स्वयं को अलग संगठनबद्ध करना. हम तो कहते हैं कि उठो,अछूत कहलानेवाले असली जनसेवकों तथा भाइयों! उठो! अपना इतिहास देखो. गुरु गोविन्दसिंह की फौज की असली शक्ति तुम्हीं थे! शिवाजी तुम्हारे भरोसे पर ही सब कुछ कर सके, जिस कारण उनका नाम आज भी जिन्दा है. तुम्हारी कुर्बानियां स्वर्णाक्षरों में लिखी हुई हैं. तुम जो नित्यप्रति सेवा करके जनता के सुखों में बढ़ोतरी करके और जिन्दगी संभव बना कर यह बड़ा भारी अहसान कर रहे हो, उसे हम लोग नहीं समझते. उठो, अपनी शक्ति पहचानो. संगठनबद्ध हो जाओ. असल में स्वयं कोशिश किए बिना कुछ भी न मिल सकेगा. स्वतन्त्रता के लिए स्वाधीनता चाहनेवालों को यत्न करना चाहिए.”
यहाँ तक कि वह काफी कठोरता से सुझाते है “लातों के भूत बातों से नहीं मानते. अर्थात् संगठनबद्ध हो अपने पैरों पर खड़े होकर पूरे समाज को चुनौती दे दो. तब देखना, कोई भी तुम्हें तुम्हारे अधिकार देने से इन्कार करने की जुर्रत न कर सकेगा. तुम दूसरों की खुराक मत बनो. दूसरों के मुँह की ओर ना ताको.”
भगत सिंह का जीवन कई पीढ़ियों को सत्य, न्याय और स्वतंत्रता की रक्षा के लिए प्रेरित करता रहेगा, भले ही इसके लिए उन्हें अपनी जान गवानी पड़े. उनके बलिदान में समकालीन भारत के लिए एक विशेष प्रासंगिकता है, जब सभी प्रकार की सांप्रदायिक, जातिवादी और आतंकवादी ताकतें, देश की एकता और अखंडता के खिलाफ सक्रीय है.