नेल्सन मंडेला: हमारा प्रकाशस्तंभ है उनकी आत्मा


Birthday of Nelson Mandela

 

यह आलेख मूल रूप से साल 2013 में नेल्सन मंडेला के निधन के बाद उनको श्रद्धांजलि देते हुए लिखा गया था. हम इसे आज उनके जन्म दिन पर पुनः प्रकाशित कर रहे हैं:

दक्षिण अफ्रीका के रंगभेद विरोधी संग्राम में शार्पविले हत्याकांड एक महत्त्वपूर्ण मोड़ माना जाता है. इसी घटना के बाद नेल्सन मंडेला ने सशस्त्र संघर्ष छेड़ने का निर्णय लिया था. उसके पहले 1960 में अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस पर प्रतिबंध लगने के बाद से वे भूमिगत थे. जब वे गिरफ्तार हुए, तो उन पर सरकार का तख्ता पलटने का आरोप लगा. इस मुकदमे की सुनवाई के दौरान उन्होंने अपनी वकालत खुद की. तब उन्होंने अदालत में कहा था- “मैंने एक ऐसे लोकतांत्रिक और स्वतंत्र समाज का आदर्श संजो रखा है, जिसमें हर व्यक्ति सद्भाव एवं समान अवसरों के साथ जी सके.” उन्होंने कहा था- “मैं इसी आदर्श के लिए जीने और उसे प्राप्त करने की आशा करता हूं. लेकिन अगर जरूरी हुआ तो यह ऐसा आदर्श है, जिसके लिए मैं अपनी जान देने को भी तैयार हूं.”

इतिहास गवाह है कि ये महामानव इन पंक्तियों को अपने जीवन में उतारने से कभी विचलित नहीं हुआ. 1994 में दक्षिण अफ्रीका का राष्ट्रपति पद ग्रहण करने के वक्त उन्होंने कहा- “इस खूबसूरत भूमि पर अब कभी भी किसी के हाथों किसी का दमन नहीं होगा…. इस गौरवमय मानव उपलब्धि का कभी सूर्यास्त नहीं होगा… आइए, स्वतंत्रता का राज स्थापित करें….” यही वो भावना है, जिसे हम नेल्सन रोलिहलाहला मंडेला की आत्मा कह सकते हैँ.

दक्षिण अफ्रीका और पूरी दुनिया से अब मडिबा (नेल्सन मंडेला को आदर के साथ वहां उनके इसी कुल-नाम से पुकारा जाता है) का साया उठ चुका है. उनके निधन के समय दक्षिण अफ्रीकी लोगों की भावना को वहां के तत्कालीन राष्ट्रपति जैकब जुमा ने इस शब्दों में अभिव्यक्ति दी थी- “यह गहनतम दुख का क्षण है. हमारे राष्ट्र ने अपने सबसे महान पुत्र को खो दिया है. नेल्सन मंडेला उन्हीं गुणों के कारण महान बने, जिन्होंने मनुष्य बनाया था. हम उनमें वह देखते थे, जिसकी तलाश हम अपन भीतर करते हैं.”

मडिबा का नाम कबीलाई अस्मिता और नस्लों में बंटे उनके देश में एकता का भाव पैदा करता था. नेल्सन रोलिहलाहला मंडेला का एकता का ऐसा प्रतीक बन जाना सचमुच उल्लेखनीय है. जो व्यक्ति गोरों के रंगभेदी शासन को खत्म करने के लिए हुए ऐतिहासिक संघर्ष का नेता और उसका सबसे बड़ा प्रतीक रहा हो, बाद में उसी के साये को श्वेत समुदाय के लोग अपनी सुरक्षा की गारंटी समझने लगे तो इस महत्त्वपूर्ण घटनाक्रम का ऐतिहासिक महत्त्व स्वयंसिद्ध हो जाता है. पिछले जून में जब मडिबा गंभीर रूप से बीमार थे, श्वेत समुदाय की चर्चाओं में यह आशंका अक्सर जाहिर हो रही थी कि ‘स्वार्ट गेवार’ (काले समुदाय का खतरा) अब कहीं हकीकत तो नहीं बन जाएगा, जो 1990 में मानवीय मूल्यों एवं लोकतंत्र के प्रति मंडेला की निष्ठा के कारण निराधार साबित हुआ था. देश की सवा पांच करोड़ की आबादी में गोरे सिर्फ 9 प्रतिशत हैं. बहरहाल, दक्षिण अफ्रीका के सभी समुदायों में मंडेला की विरासत जितनी जीवंत और उनके प्रति लगाव जितना गहरा है, उसे देखते यह भरोसा रखा जा सकता है कि गोरों का भय एक बार फिर निराधार साबित होगा. लेकिन उनकी सोच दो दशक पहले दक्षिण अफ्रीका जिस मुकाम पर था, उसकी एक झलक हमें जरूर देती है.

मडिबा की शख्सियत निसंदेह उनके संघर्ष से बनी. उनके त्याग, समर्पण और नेतृत्व क्षमता ने ही रंगभेद विरोधी हजारों सेनानियों में उन्हें सबसे केंद्रीय स्थान प्रदान किया. मगर बीसवीं सदी के इतिहास पर गौर करें तो उपनिवेशवाद तथा रंगभेद के खिलाफ संघर्षों में इन गुणों का परिचय देने वाले अनेक नेताओं के नाम उभर हमारे सामने आते हैं. इन गुणों के साथ मंडेला भी इतिहास में अवश्य अमर होते, लेकिन उनसे अपनी कोई अलग विरासत वे कायम नहीं कर पाते. जबकि आज उनकी एक विशिष्ट विरासत है. इसके बनने की कथा 1990 से शुरू होती है, जब 27 वर्ष लंबे कारावास के बाद वे बाहर आए, अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस (एएनसी) की अध्यक्षता संभाली, लगभग चार साल तक निवर्तमान श्वेत राष्ट्रपति एफ डब्लू डी क्लार्क और देश के अन्य नेताओं के साथ मिल कर दक्षिण अफ्रीका के भविष्य को स्वरूप दिया, 10 मई 1994 को देश के पहले अश्वेत राष्ट्रपति बने और उसके बाद पांच साल अपनी देखरेख में एकता, मेलमिलाप और लोकतंत्र के मूल्यों को स्थापित करते हुए देश को नई दिशा दी. यह नए दक्षिण अफ्रीका के निर्माण का दौर था. इस समय दक्षिण अफ्रीका समाज में काले समुदाय और राजनीति में एएनसी और प्रकारांतर में मंडेला का एकाधिकार या वर्चस्व कायम होने की दिशा में भी बढ़ सकता था. मंडेला और एएनसी गोरों के ऐतिहासिक अन्याय के खिलाफ प्रतिशोध की नीति अपना सकते थे, जिसके जरिए जज्बाती आधार पर राजनीतिक बहुमत तैयार करना आसान होता.

लेकिन मडिबा ने दूसरा रास्ता चुना. उनके नेतृत्व में नई सरकार ने सत्य एवं पुनर्मिलाप को अपना आदर्श बनाया. अतीत के अन्याय का बदला लेने के बजाय उन्होंने एक ऐसा अभिनव प्रयोग किया, जो तब से दुनिया भर के लिए अनुकरणीय मॉडल बना हुआ है. ट्रूथ एंड रेकन्सिलीऐशन आयोग की स्थापना कर नए शासन ने अतीत में रंगभेदी अत्याचार या उसके खिलाफ संघर्ष में मानवाधिकार का हनन करने वाले लोगों को मौका दिया कि वे अपनी गलती सार्वजनिक रूप से स्वीकार करें और उसके बाद वो अध्याय हमेशा के लिए बंद हो जाए. आयोग की कार्यवाही में उत्पन्न हुए भावुक दृश्यों और वहां पेश हुए लोगों में पैदा हुए पाश्चाताप एवं प्रायःश्चित के भाव ने तब दिखाया कि कैसे उदार एवं दिव्य दृष्टि के साथ की गई ईमानदार पहल बुराइयों की पृष्ठभूमि के बीच भी सहज मानवीय संवेदना से उदात्त नव-निर्माण की जमीन तैयार कर देती है. यही दृष्टि दक्षिण अफ्रीका के नए संविधान में भी अभिव्यक्त हुई, जिसे सर्वोच्च मानवीय एवं लोकतांत्रिक मूल्यों पर आधारित किया गया. यही नेल्सल मंडेला की स्थायी विरासत है. आधुनिक इतिहास में ऐसे विरले नेता हुए हैं, जिन्होंने अपने सुपरिभाषित उद्देश्यों को पूरा करने के बाद स्वेच्छा से सत्ता एवं सार्वजनिक जीवन से विदाई ले ली. 1999 में मंडेला ने जब ऐसा किया, तब तक आधुनिक दक्षिण अफ्रीका स्थिरता प्राप्त कर चुका था, लेकिन उसके संविधान में निहित व्यापक लक्ष्यों को अभी प्राप्त किया जाना बाकी था. मडिबा ने यह जिम्मेदारी अपनी अगली पीढ़ी को सौंप दी.

बुरे लोगों के बजाय बुराई को शत्रु समझना और सत्ता का परित्याग- ये दो ऐसे गुण हैं, जो सहज ही महात्मा गांधी की याद दिला देते हैं. रंगभेद के खात्मे के बाद सामाजिक मेलमिलाप की भावना उस सपने का स्मरण कराती है, जो बीसवीं सदी के मध्य में मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने देखा था. यह अस्वाभाविक नहीं है कि नेल्सन मंडेला की विरासत में हम उन दोनों शख्सियतों की भावना तलाश सकते हैं, जिनमें एक उपनिवेशवाद विरोधी और दूसरा रंगभेद विरोधी संघर्ष का स्वाभाविक प्रतीक है. बहरहाल, भारत में गांधीजी आजादी के कुछ ही महीनों बाद सांप्रदायिक नफरत की गोलियों का शिकार हो गए और नए भारत के निर्माण में प्रत्यक्ष योगदान नहीं कर सके. यहां ये जिम्मेदारी अंबेडकर और नेहरू के कंधों पर आ पड़ी. जहां अंबेडकर ने भारत को इनसानी उसूलों पर आधारित संविधान देने में अप्रतिम योगदान किया, उस संविधान की भावनाओं को कार्यरूप देने तथा देश के विकास को दिशा देने में नेहरू की भूमिका असाधरण रही. जबकि दक्षिण अफ्रीका में शोषक व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष और नई उदार व्यवस्था के निर्माण- दोनों ही विशिष्ट परिघटनाओं का नेतृत्व मडिबा ने ही किया.

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस में यह अद्भुत समानता है कि इन दोनों को अपनी संघर्ष एवं नव-निर्माण की विरासत से भटकने में ज्यादा वक्त नहीं लगा. जिस तरह भारत में कांग्रेस सत्ता में रहने के दो दशक के अंदर महज सत्ता पाने की मशीन में तब्दील हो गई, वैसा ही एएनसी के साथ भी हुआ है. जैसे भारत में आजादी के बाद विकास के लक्षण तलाशे जा सकते हैं, लेकिन आम तौर पर व्यवस्था आम जन के हितों से दूर होती चली गई, वैसी ही कथा दक्षिण अफ्रीका में भी दोहराई गई है. गिरावट के ऐसे तमाम संकेतों के बीच मडिबा ही इस देश को अलग सम्मान और स्थान देते रहे हैं, ठीक उसी तरह जैसे अंबेडकर की विरासत भारत में न्याय की उम्मीदों को जिंदा रखे हुए है और गांधी एवं नेहरू का नाम देश को आज भी नैतिक प्रतिष्ठा दिलाता है. अब मडिबा नहीं हैं, तब भी दक्षिण अफ्रीका इसलिए प्रतिष्ठा पाता रहेगा कि वह इस महान व्यक्ति की जन्म, संघर्ष एवं प्रयोग स्थली है. अब यह महामानव अपने भौतिक रूप में मौजूद नहीं है, लेकिन अन्याय से संघर्ष और सत्य एवं पुनर्मिलाप की उच्च भावना पर आधारित पुनर्निर्माण की उसकी विरासत हमारे साथ बनी रहेगी.


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