चंद लोगों की मुठ्ठी में बंद विकास
मंदी और छंटनी की खबरों के बीच खुलासा हुआ है कि देश का विकास चंद मुठ्ठियों में सिमट कर रह गया है. वैसे ऐसा खुलासा समय-समय पर होता रहता है.
हम बात कर रहें हैं हुरुन इंडिया के साल 2019 के भारत के सबसे अमीरों की सूची की. कौन कितना अमीर है या कौन पहले पायदान पर है उससे भी महत्वपूर्ण बात है कि बकौल यह सूची देश के 25 घरानों के पास सकल घरेलू उत्पादन के 10 फीसदी के बराबर की संपदा एकत्र हो गई है. इसके अलावा देश के 953 घरानों के पास देश के सकल घरेलू उत्पादन के 27 फीसदी के बराबर की संपदा है.
इस गणित को समझने की जरूरत है कि आखिरकार कैसे चंद लोगों के पास अकूत संपदा जमा हो गई है दूसरी ओर देश में सबसे ज्यादा न्यूनतम वेतन केरल में 1192 रुपये प्रतिदिन का है जबकि साल 2016-17 में देश में सबसे ज्यादा वेतन पाने वाले टेक महिन्द्रा के सीईओ सीपी गुरनानी को प्रतिदिन 41,86,111 रुपये मिलता है जो करीब 3511 गुना है.
इससे जाहिर होता है कि देश में चाहे धुंआधार विकास हो रहा हो परन्तु देश के बाशिंदों की आय में बहुत बड़ी असमानता है. यह तो हुआ आय या वेतन की बात. अब जरा संपदा की हालत भी देख ले कि किसके पास कितना माल है.
साख्यिकीय गणना के अनुसार साल 2019 में भारत की जनसंख्या तकरीबन 1 अरब 36 करोड़ 64 लाख 17 हजार 754 है जबकि हुरुन इंडिया की देश के सबसे अमीरों की सूची के अनुसार मात्र 953 लोगों के पास ही देश के सकल घरेलू उत्पादन के 27 फीसदी के बराबर की संपदा है. इसका अर्थ है कि मोटे तौर पर देश के 1 अरब 36 करोड़ 64 लाख 17 हजार लोगों के पास सकल घरेलू उत्पादन के 73 फीसदी के बराबर की संपदा है.
जब संपदा चंद मुठ्ठियों में सिमटकर रह गई है तो क्रयशक्ति भी निश्चित तौर पर इन्हीं की मुठ्ठियों में सिमटकर रह गई है जाहिर है कि जब आवाम के बहुसंख्य लोगों की खरीदने की क्षमता घटी है तो बाजार में मंदी आएगी ही आएगी. इसी कारण से लोग पांच रुपये में मिलने वाले पारले जी बिस्कुट तक खरीदने से पहरेज कर रहे हैं.
हुरुन इंडिया की सूची के अनुसार मुकेश अंबानी देश के सबसे रईस व्यक्ति हैं तथा उनके पास 3.8 लाख करोड़ रुपये की संपदा है. इस साल जिन लोगों के पास एक हजार करोड़ रुपये से ज्यादा की संपदा है ऐसे लोगों की संख्या 953 है जो पिछले साल 831 की थी. इससे जुड़ा सवाल है कि आखिरकार क्यों और कैसे देश-दुनिया के चुनिंदा लोगों के पास इतनी अकूत संपदा इकठ्ठा हो गई है.
बात हो रही थी, अकूत संपदा के इकठ्ठा हो जाने की. इसकी शुरुआत वहां से करनी पड़ेगी जब मानव झुंड के रूप में रहा करते थे. शिकार करते थे, आपस में बांटकर खा लिया करते थे. इनमें से किसी के पास कोई अपनी कही जाने वाली संपदा नहीं थी सिवाय उन हथियारों के जिनसे शिकार किया जाता था. जिन्हें दरअसल, सामूहिक प्रयास से ही बनाया जाता था.
बाद के समय में इन मनुष्यों का झुंड शिकार के अलावा अन्य मानव के झुंडों से लड़ाई लड़ने लगा. लड़ाई में जीतने वाला हारने वालों के हथियार से लेकर अन्य सामूहिक स्वामित्व की चीजों पर कब्जा जमा लेता था. इसी के साथ हारने वालों को गुलाम बनाने की समाज व्यवस्था का जन्म हुआ. जिनसे खुद काम न करके, दूसरे से करा लेने की प्रवृत्ति का जन्म हुआ. यह वह मुकाम था जब बिना शिकार किए खाने का मौका मिलने लगा.
इस बीच मानव समाज ने गोड़ाई खेती शुरू की तथा बाद में जोताई से भी खेती की जाने लगी. खेती के कारण मानव की घूमने की प्रवृत्ति पर कुछ हद तक लगाम लगा. लेकिन विकास के इस दौर में गुलामों से खेतों में काम कराया जाने लगा. अब गुलाम खेतों में काम करने वाले मेहनतकशों में तब्दील होने लगे थे.
धीरे-धीरे मानव ने वस्तु विनिमय के स्थान पर मुद्रा के माध्यम से विनिमय करना शुरू कर दिया. अब तक बहुमूल्य सोना, हीरा, चांदी का मोल समझ में आने लगा था. उन्हें जमा करके रखने से उसका भविष्य के लिए उपयोग होने लगा. जैसे ही वस्तुओं के विनिमय के बीच में मुद्रा का आभिर्भाव हुआ, बाजार ने जन्म लेना शुरु कर दिया. बाजार, जहां पर मुद्रा के बल पर वस्तुओं का विनिमय किया जाता था. अब मानव समाज को समझ में आने लगा कि मुद्रा जमा करना सुरक्षित भविष्य तथा वर्तमान के ऐशो-आराम के लिए जरूरी है.
गुलाम समाज व्यवस्था से खेती के लिए गुलाम बनाने की दौर के विकास के समय ऐसा लगा मानों दो समुदायों का टकराव मानव सभ्यता को खत्म कर देगा. इसे रोकने के लिए सामूहिक तौर पर बैठकर कुछ नियम बनाए गए, कुछ लोगों को व्यवस्था बनाए रखने की जिम्मेदारी दी गई. इस तरह से मानव समाज की जरूरत ने राज्य की उत्पत्ति हुई.
हमने शुरुआत की थी कि क्यों तथा कैसे इतनी अधिक संपदा कुछ लोगों के पास जमा हो गई है. इस विषय पर जाने से पहले मानव समाज के विकास को समझना जरूरी था अन्यथा इस अति जटिल व्यवस्था को समझना आसान न होगा. बात हो रही थी बाजार की. उससे पहले वस्तुओं का विनिमय बिना मुद्रा के होता था. भला इस बात को कैसे तय किया जाता था कि मेरे इतने चावल के बदले तू इतना दूध या सब्जी दे. इस सामान के बदले उस सामान की इतनी मात्रा दे.
इसे तय किया जाता था किसी एक वस्तु को बनाने में लगे समय व श्रम से दूसरे वस्तु को बनाने में लगे समय व श्रम से. उदाहरण के तौर पर जितना कपड़ा एक दिन में बुना जा सकता था उसके बदले एक दिन में जितना बर्तन बनाया जा सकता था, वो बराबरी का विनिमय होता था. लेकिन बाद में मुद्रा के प्रवेश और कम काम करके ज्यादा हड़प जाने की प्रवृत्ति ने एक दूसरे से विनिमय के समय कम वस्तु के बदले ज्यादा वस्तु हासिल करने की हरकत की जाने लगी. इससे कुछ के पास दूसरों के ज्यादा वस्तु इकठ्ठा होने लगा. बाद में यही इकठ्ठा होते-होते राई का पहाड़ बन गया.
अब भी समझ में नहीं आया. चलिए अब सीधे-सीधे अर्थव्यवस्था के उदाहरणों से समझने की कोशिश करते हैं. मसलन क्या आप 100 रुपये के कपास को 200 रुपये में बेच सकते हैं. हरगिज भी नहीं यह ठगी कहलाएगी. लेकिन इस 100 रुपये के कपास को एक मजदूर को 50 रुपये की रोजी देकर 200 रुपये के सूत में बदला जा सकता है. 200 रुपये के सूत को एक बुनकर को 200 रुपये देकर 500 रुपये के कपड़े में बदला जा सकता है. इस तरह से 100 रुपये के कपास को 500 रुपये के कपड़े में बदलकर बेचा जा सकता है. कपास से तन नहीं ढ़ंका जा सकता परन्तु कपड़े से ढका जा सकता है.
इस सरल प्रक्रिया को जब ध्यान से समझने की कोशिश करेंगे तो पता चलेगा कि सबसे पहले मजदूर को 50 रुपये की रोजी देकर उससे 50 रुपये का मुनाफा कमा लिया गया. उसके बाद बुनकर को 200 रुपये देकर उससे सूत से कपड़ा बुनवाकर 100 रुपये मुनाफा कमा लिया गया. इस तरह से 100 रुपये के कपास से बने कपड़े को 500 रुपये में बेचकर 150 रुपया मुनाफा कमा लिया गया. तर्क दिया जा सकता है कि कपास का पेड़ तो मेरा है, कपास को सूत में पिरोने का चरखा तो मेरा है, सूत को कपड़े में बदलने की मशीन भी मेरी है. इसलिए 150 रुपये मुझे मिलने ही चाहिए.
इसी समय मानव समाज के विकास के क्रम को देखते हुए पूछा जाना चाहिए कि तेरे पास कपास का पेड़ कहां से आया, चरखा कहां से आया तथा सूत से कपड़ा बनाने की मशीन कहां से आई. हमेशा से तो यह किसी एक का नहीं था. क्या उन्हें भी इसी तरह से नहीं बनाया गया है.
इस तरह से कामगारों के बल पर मुनाफा कमाया जाता है. यह एक सरल उदाहरण है. जिससे आसानी से समझा जा सकता है कि छोटे-छोटे मुनाफे कमाते-कमाते, उन्हें जमा करके-करते कुछ लोगों के पास दूसरों से ज्यादा संपदा इकठ्ठा हो गई है.
इस तरह से मानव समाज का जो विकास हुआ है वह धीरे-धीरे चंद मुठ्ठियों में सिमटता चला गया है जिसकी परिणती आज यह हुआ है कि देश के 953 लोगों या घरानों के पास देश के सकल घरेलू उत्पादन के 27 फीसदी के बराबर की संपदा जमा हो गई है. दूसरी तरफ बाजार में मंदी आ गई है जो दरअसल, इसी व्यवस्था की देन है. इस व्यवस्था में मुनाफा कमाने की होड़ में इतना उत्पादन कर दिया गया है कि उसे खरीदने वाले बाजार में नहीं हैं. और रहेंगें भी कैसे लोगों की क्रयशक्ति तो लगातार घट रही है.
ऐसे समय में सरकार को ऐसी योजनाएं लाना चाहिए जिससे गरीब तथा मध्यम वर्ग के हाथ में पैसे आए और वे बाजार की ओर रुख करें. लेकिन इसका उल्टा किया जा रहा है. आवाम की क्रयशक्ति बढ़ाने के बजाए कॉरपोरेट टैक्स में कटौती की जा रही है, विदेशी निवेश को बढ़ाने के लिये उसकी राह को आसान किया जा रहा है, इनकम टैक्स में छूट दी जा रही है जाहिर है कि मलाईदार तबके को छूट देने से बाजार की मंदी दूर नहीं होने वाली. आखिरकार देश के गिने-चुने 2 से 10 फीसदी लोग कितने कार, कपड़े, अन्न, मकान, दवा तथा सेवा का उपभोग कर सकते हैं.
रईस होने से रोटी सूखी के बजाए घी लगाकर खाई जा सकती है, उस पर सोने-चांदी का लेप लगाकर तो खाया नहीं जा सकता है. इस कारण से वर्तमान मंदी जल्द दूर होती नहीं दिखती है.
गौरतलब है कि 2008 में आईं मंदी के वक्त एक रास्ता अमरीकी सरकार ने अपनाया था, कॉरपोरेट और डूबती बैंकों को अकूत पैसा देने का, वहीं चीन ने दूसरा रास्ता अपनाया था, रोजगार और निर्माण कार्यों पर जोर देकर क्रयशक्ति को बढ़ाने का. नतीजे सामने हैं. अमेरिका में रिकवरी नहीं हुई, चीन मंदी से बाहर आ गया है. क्या हमारे हुक्मरान वाकई मंदी से बाहर आना चाहते हैं?
कुल मिलाकर, मामला यह है कि आम जनता के पास कितना पैसा आता है उस पर सब कुछ निर्भर करता है. हां, इसके लिए नीतियां बनानी पड़ेंगी.