एमपी डायरी: झाबुआ में कमलनाथ सरकार के काम पर लगी मोहर


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झाबुआ उपचुनाव ने प्रदेश की कांग्रेस सरकार को नई ताकत दे दी है. चुनाव बाद से ही बीजेपी नेता हर मोर्चे पर कमलनाथ सरकार को अल्‍पमत की सरकार बता कर इसके कभी भी गिर जाने की घोषणाएं करते रहे हैं. मगर झाबुआ में मिली जीत के बाद अब कांग्रेस के कुल विधायक 115 हो गए हैं. बहुमत के लिए 116 विधायक चाहिए. एक निर्दलीय विधायक ने समर्थन दे ही रखा है. इसके अलावा बसपा विधायक भी कांग्रेस के साथ है. वास्तव में ये चुनाव प्रदेश का राजनीतिक शक्ति परीक्षण था, जिसमें कांग्रेस ने बाजी मार ली. बीजेपी ने जोर लगाने में कोई कसर नहीं छोड़ी, पर उसकी कमजोर रणनीति और अति-आत्मविश्वास आदिवासी मतदाताओं के मानस को बदल नहीं सका. इस उपचुनाव से साबित हो गया कि बीजेपी यहाँ कभी सीधे मुकाबले में चुनाव नहीं जीत सकती. झाबुआ के बीजेपी नेताओं और कार्यकर्ताओं में भी आपसी फूट साफ़ नजर आई, जिसने चुनाव को प्रभावित किया. इस उपचुनाव में कांग्रेस की जीत के जो भी कारण खोजे जाएं, पर सच यही है कि झाबुआ के मतदाताओं को ये मंजूर नहीं था कि उनका प्रतिनिधि विपक्ष में बैठे. कांतिलाल भूरिया की जीत सिर्फ कांग्रेस उम्मीदवार की जीत नहीं है, बल्कि कमलनाथ सरकार के 10 महीने के कार्यकाल का मूल्यांकन भी है.

स्‍थानीय मुद्दों को भूल, मोदी के भरोसे रहे बीजेपीई

झाबुआ में बीजेपी ने पूरी ताकत लगाई लेकिन उसने जीत का दांव प्रधानमंत्री नरेन्‍द्र मोदी के भरोसे ही लगाया. बीजेपी के लिए परेशानी की बात ये रही कि पूरा दम लगाने के बाद भी मतदाताओं ने बीजेपी के वादों पर भरोसा नहीं किया. बार-बार कमलनाथ सरकार गिराने और किसानों की कर्ज माफी न होने का विलाप करने के बावजूद बीजेपी की दाल नहीं गली. जबकि, बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष राकेश सिंह से लगाकर पूर्व मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान तक ने अपना प्रभाव दिखाने की कोशिश की. वे धारा-370, पुलवामा हमला, पाकिस्तान और राष्ट्रवाद के नाम पर वोट मांगते रहे जबकि स्थानीय मुद्दे कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण थे. प्रचार के अंतिम दौर में बीजेपी नेताओं ने मतदाताओं को ये दर्शाकर प्रभावित करने की भरसक कोशिश की, कि कमलनाथ सरकार कभी भी गिर सकती है. बेभरोसे के बीजेपी विधायक नारायण त्रिपाठी को सामने लाकर भी अपनी बात को वजन देने के प्रयास किए गए. लेकिन, इस सबका आदिवासी मतदाता पर कोई ख़ास फर्क नहीं पड़ा. स्थानीय नेताओं, कार्यकर्ताओं और मुद्दों को नजरअंदाज करना बीजेपी पर भारी पड़ गया. जबकि कांग्रेस में बाहर से आए नेताओं और कार्यकर्ताओं ने स्थानीय कार्यकर्ताओं से आगे निकलने की कोशिश नहीं की और न उनकी बातों को अनसुना किया. बल्कि, कुछ मामलों में बीजेपी के कई स्थानीय पदाधिकारियों को भी कांग्रेस की रणनीति ने फंसा लिया.

बीजेपी में उठने लगी अध्‍यक्ष के खिलाफ आवाज

झाबुआ में हार के बाद बीजेपी में आक्रोश के स्‍वर उठने लगे हैं. असल में, विधानसभा चुनाव के बाद से ही पार्टी में अंदर ही अंदर नेतृत्‍व के खिलाफ नाराजगी थी लेकिन लोकसभा चुनाव में मिली बंपर जीत के कारण ये स्‍वर खुल कर सामने नहीं आए. अब झाबुआ की सीट खो देने के बाद विधायक केदारनाथ शुक्‍ला और फिर वरिष्‍ठ नेता रघुनंदन शर्मा ने खरी-खरी सुना दी. शर्मा ने कहा कि काफी लंबे समय से पार्टी में संवादहीनता को देख रहा हूं. मेरे जैसे वरिष्ठ व्यक्ति से ना तो आज के दौर में प्रदेश अध्यक्ष,उपध्यक्ष ना ही जिम्मेदार लोग बात करते हैं, ना सुझाव लेते हैं. हमें ऐसा लगता है कि हमें कोई पूछने और सुनने वाला ही नहीं है. इसके पहले सीधी से बीजेपी विधायक केदारनाथ शुक्ल ने झाबुआ उपचुनाव में हार के लिए प्रदेश अध्यक्ष राकेश सिंह को जिम्मेदार ठहाराया था. बीजेपी नेता कह रहे हैं कि पार्टी हमेशा से ही पारिवारिक भाव से काम करती रही है. 40-50 साल से संवाद और पारिवारिक भावना से संगठन चल रहा था. नेता बैठकर कर सबसे विचार विमर्श करते थे. अब नेता एक-दूसरे से बात ही नहीं करते.


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