गांधी को स्वच्छता तक सीमित न करें
महात्मा गांधी की जयंती यों तो हर साल मनाई जाती है, पर इस बार कुछ खास है, क्योंकि यह उनके जन्म का डेढ़ सौवां साल है. इसलिए स्वाभाविक ही देश-भर में और देश से बाहर भी गांधी को याद करने के लिए बहुत-से आयोजन हो रहे हैं. लेकिन पिछले कुछ सालों से ऐसा लगता है कि गांधी को स्वच्छता अभियान तक समेट दिया गया है. शायद उनकी डेढ़ सौवीं जयंती के साल में भी यही हो, स्वच्छता अभियान से जोड़ कर ही उनका सारा गुणगान किया जाए.
यह गांधी को याद करना है, या उनका अवमूल्यन करना? यह सवाल इसलिए उठता है क्योंकि गांधी के अनूठेपन और उनकी महानता के अन्य कारण ज्यादा बड़े हैं. सत्य और अहिंसा के वे प्रतीक पुरुष हैं और सबसे ज्यादा उन्हें इसी रूप में याद किया जाना चाहिए, सिर्फ उनकी महानता का बखान करने के लिए नहीं, इसलिए कि हम शिद्दत से इसका अहसास कर सकें आज असत्य और हिंसा के किस घटाटोप में हम रहे रहे हैं और इस अंधेरे से निकलने के लिए ही हमें गांधी की जरूरत है.
यों तो सत्यमेव जयते, एक बहुत पुरानी सूक्ति रही है और सत्य को लेकर शायद ही कोई असहमत नजर आए. पर सत्य का रास्ता कितना कठिन है, यह किसी से छिपा नहीं है. खासकर उन लोगों के लिए जो किसी प्रकार के अन्याय, झूठ, छद्म, दमन और शोषण के खिलाफ संगठित या असंगठित संघर्ष में शामिल हैं. सत्य की खोज और अहिंसा के आचरण की एक लंबी परंपरा रही है, पर आध्यात्मिक क्षेत्र में. गांधी की सबसे बड़ी देन यही थी कि उन्होंने सत्य और अहिंसा को सर्वतोमुखी बनाया, यानी जीवन के हर क्षेत्र से जोड़ा. क्रांति से भी. उनसे पहले क्रांति की छवि अमूमन रक्तरंजित उथलपुथल की होती थी.
उपनिवेशवाद के विरुद्ध अहिंसा के जरिए सबसे बड़ा संघर्ष गांधी के नेतृत्व में हुआ और यह दुनिया-भर के अहिंसक आंदोलनों के लिए प्रेरणा का स्रोत बन गया. पर अहिंसा की उनकी सीख यहीं तक सीमित नहीं थी कि पराधीनता, अन्याय और शोषण के खिलाफ हमारा संघर्ष अहिंसक हो, बल्कि हम जो समाज बनाएं वह अहिंसक समाज हो और वह राज्य-व्यवस्था से भी कम से कम बल-प्रयोग की उम्मीद करते थे.
आज क्या हो रहा है? झूठ का ऐसा बोलबाला शायद ही पहले कभी रहा हो. आज असत्य वैयक्तिक आचरण-दोष तक सीमित नहीं है. आज निहित स्वार्थों के लिए रोज-रोज झूठ का निर्माण और प्रचार-प्रसार निहायत संगठित तरीके से हो रहा है. और इसमें मीडिया का एक बड़ा हिस्सा भी शामिल है, जबकि उसका पेशेवर दायित्व ही सच से लोगों को अवगत कराना है. गांधी के जन्म के डेढ़ सौवें वर्ष में असत्य के प्रयोगों की बाढ़ आई हुई है और इसमें फेक न्यूज फैलाने वालों, वाट्सऐप यूनिवर्सिटी चलाने वालों से लेकर राजनीति और मीडिया के खिलाड़ी तक शामिल हैं.
मीडिया का बड़ा हिसा प्रौपगैंडा माफिया में बदल गया है. और सत्ता का आलम यह है कि वह राजनीतिक विरोध से निपटने के लिए कोई हथकंडा छोड़ना नहीं चाहती. गांधी के देश में सत्याग्रह करना और असहमति जताना खतरे से खाली नहीं है. ऐसा करना राजद्रोह करार दिया जा सकता है. गांधी को रौलट ऐक्ट से जूझना पड़ा था, आज नया यूएपीए है, जो सिर्फ शक की बिना पर किसी को आतंकवादी करार देकर जेल में जिंदगी-भर सड़ने के लिए डाल सकता है. गांधी के जमाने में सिर्फ राजसत्ता की तरफ से दमन का डर रहता था, आज भीड़ के हाथों पीट-पीट कर मार दिए जाने का भी डर पैदा कर दिया गया है.
सत्ता के उन्माद में असहमति को कुचलने का एक ताजातरीन उदाहरण यह है कि दिल्ली में एक डाक्यूमेंटरी फिल्म इसलिए नहीं दिखाई जा सकी, क्योंकि वह नोटबंदी पर है. सत्ता के बल-प्रयोग की इंतिहा हम कश्मीर में देख रहे हैं, जहां लाखों लोग करीब दो महीने से संगीनों के साए में रहने को अभिशप्त हैं और अपने सब तरह के मौलिक अधिकार छीन लिए जाने की पीड़ा भुगत रहे हैं. और इस सब को हमारे टीवी चैनलों ने इस तरह पेश किया कि कश्मीर में सबकुछ सामान्य है! यही नहीं, वहां लोग खुश हैं! सच न बताने की कायरता को ‘राष्ट्र-हित’ के नाम पर महिमामंडित किया जा रहा है.
ऐसे माहौल में आश्चर्य नहीं कि सत्य और अहिंसा के लिए गांधी को याद न किया जाए, क्योंकि वैसा करना काफी असुविधाजनक हो सकता है। सुविधा इसी में है कि गांधी को सिर्फ स्वच्छता तक सीमित कर दिया जाए. जून 2007 में संयुक्त राष्ट्र ने 2 अक्टूबर (गांधी जयंती) को अंतरराष्ट्रीय अहिंसा दिवस के रूप में मनाने का प्रस्ताव पास किया था. लेकिन खुद भारत इस मामले में उत्साह-विहीन रहा है. जिस दुंदुभिनाद के साथ हम कई सालों से योग दिवस मना रहे हैं उसका पांच फीसदी उत्साह भी हमने अंतरराष्ट्रीय अहिंसा दिवस मनाने के लिए नहीं दिखाया है.
गांधी ने सत्याग्रह के साथ-साथ देश को रचनात्मक कार्यक्रम भी दिया था, और इसमें हिंदू-मुस्लिम एकता (कौमी एकता) का महत्त्वपूर्ण स्थान था. उनके रचनात्मक कार्यक्रम के इस सूत्र याद करने और इसे आगे बढ़ाने की जरूरत यों तो हमेशा रही, पर आज इसकी प्रासंगिकता सबसे ज्यादा है. क्या गांधी का डेढ़ सौवां वर्ष हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए हमें प्रेरित करने का निमित्त बनेगा?
गांधी को याद करने के इस अवसर पर एक और सवाल उठाना जरूरी है, वह यह कि समाज के अंतिम व्यक्ति के कल्याण को गांधी विकास की कसौटी मानते थे. क्या हमारी सरकारें इस कसौटी पर अपने राज-काज को कसने को तैयार हैं? सारे अध्ययन बताते हैं कि खासकर उदारीकरण की नीतियां अपनाए जाने के बाद से समाज में गैर-बराबरी तेजी से बढ़ती गई है और गांधी के शब्दों में कहें तो ‘अपना पसीना बहाकर रोटी कमाने’ वालों का हिस्सा राष्ट्रीय आय में घटता गया है.
गांधी को सार्थक ढंग से याद करने का अर्थ होगा कि हम अंतिम व्यक्ति की भलाई की कसौटी पर अपनी नीतियों और प्राथमिकताओं को जांचें और फिर जहां-जहां जरूरी लगे उन्हें बदलें. हम शायद इसके लिए तैयार नहीं हैं. क्या इसीलिए गांधी को स्वच्छता अभियान तक सीमित किया जा रहा है?