लोकसभा चुनाव के नतीजे बताते हैं कि चुनाव में अर्थव्यवस्था मुद्दा नहीं बन पाया है. लेकिन आनेवाले समय में नई सरकार अर्थव्यवस्था को नजरअंदाज करके आगे नहीं बढ़ सकती है. अंग्रेजी अखबार द मिंट में छपे एक लेख में आर्थिक मोर्चे पर सरकार की चुनौतियों का जिक्र किया गया है.
सितंबर 2008 में आर्थिक मंदी आने के दौरान और उसके बाद सरकार ने अपना खर्च बढ़ाकर इससे निपटने की कोशिश की थी. जिसकी वजह से वित्त वर्ष 2007-2008 में राजकोषीय घाटा बढ़कर जीडीपी का 2.59 फीसदी हो गया था. वित्त वर्ष 2008-2009 में जीडीपी 6.11 फीसदी और 2009-2010 में 6.57 फीसदी रहा था. औद्योगिक क्षेत्र को सरकारी बैंको से उधार को बढावा दिया गया था. जिसका नतीजा दोहरे अंक की मुद्रास्फीति दर और बैंकों के बैड लोन के रूप में सामने आया.
आंकड़ों के मुताबिक बैंक और अधिक उधार दे पाने की स्थिति में नहीं हैं.
विस्तारवादी राजकोषीय नीति जिसमें सरकार ज्यादा खर्च करती है और ढीली मौद्रिक नीति जिसमें आरबीआई रेपो रेट कम रखता है, दोनों को एक साथ जारी रखना मुश्किल है. ऐसी स्थिति में बेहतर होगा कि सरकार बैंकिंग व्यवस्था में कम-से-कम हस्तक्षेप करे.
सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक खास्ताहाल में हैं. 31 दिसंबर 2018 तक बैंकों का बैड लोन 86,0000 करोड़ रुपये तक पहुंच चुका है. तीन महीने या उससे अधिक समय तक नहीं चुकाए गए लोन को बैड लोन की श्रेणी में रखा जाता है. पिछले दो वित्त वर्ष में सरकार ने सरकारी बैंकों में 26,0000 करोड़ रुपये का निवेश कर चुकी है.
अंतरिम बजट 2019-2020 में सरकार ने बैंको को सुदृढ़ करने के लिए कोई निवेश की घोषणा नहीं की है. इसके उलट बैंकों की स्थिति खराब बनी हुई है.
अप्रैल 2014 से मार्च 2018 के बीच सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के द्वारा 3160 000 करोड़ रुपये को बैलेंस सीट से हटा दिया है. यानी बैंकों ने मान लिया है कि ये रकम अब वसूले नहीं जा सकते हैं. केवल 14 फीसदी यानी 44,900 करोड़ रुपये की वसूली हो पाई है. बैंकों का लोन डूबने से उन्हें करोड़ो रुपये का नुकसान हुआ है.
गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियां (एनबीएफसी) भी देनदारी संबंधी संकट को झेल रही हैं. एनबीएफसी छोटे समय का ऋण लेकर दृघकालीन ऋण बांट रहे हैं. बैंको ने एनबीएफसी को 18 मार्च 2016 तक 352,0000 करोड़ रुपये का उधार दिया. 29 मार्च 2019 तक यह बढ़कर 6411, 0000 करोड़ हो गया. पिछले तीन साल में यह 80 फीसदी का इजाफा है.
निर्यात में कमी
दुनियाभर में निर्यात के माध्यम से विकाशील देश के आगे बढ़ने का ट्रेंड रहा है. विकासशील देश लो वैल्यू एडेड एक्सपोर्ट से हाई वैल्यू एक्सपोर्ट की तरफ बढ़ते हैं.
वित्त वर्ष 2018-19 के बीच 32900 करोड़ डॉलर का निर्यात हुआ. वित्त वर्ष 2014-15 की तुलना यह ज्यादा था. वित्त वर्ष 2018-19 में जीडीपी और निर्यात के अनुपात में 12.09 फीसदी की वृद्धि देखने को मिली. 2004-05 में यह 11.78 फीसदी रहा था.
निर्यात का ट्रेंड लो वैल्यू एडेड एक्सपोर्ट से हाई वैल्यू एक्सपोर्ट की तरफ बढ़ा है. यह बढ़ती बेरोजगारी का समाधान नहीं है.
साल 2014-15 में चमड़ा और चमड़ा उत्पाद का निर्यात 620 करोड़ डॉलर था. वित्त वर्ष 2018-19 में यह घटकर 530 करोड़ डॉलर हो गया.
रेडिमेड कपड़ों का आयात वित्त वर्ष 2016-17 में 1740 करोड़ डॉलर था. 2018-19 में यह घटकर 530 करोड़ डॉलर हो गया. इ
इसके साथ ही कृषि उत्पाद के निर्यात में भी कमी दर्ज की गई. ये सभी लो वैल्यू एडेड एक्सपोर्ट की श्रेणी में आते हैं. जहां अपेक्षाकृत ज्यादा रोजगार पैदा होता है.
सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों का बढ़ता घाटा
स्वतंत्रता के बाद से सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों की संख्या और जीडीपी में उनकी हिस्सेदारी में लगातार वृद्धि हुई है. बावजूद कई पीएसयू लगातार घाटे में चल रही हैं. इनमें दस सबसे अधिक घाटे में चलने वाली कंपनियों का कुल घाटा 26, 480 करोड़ रुपये रहा है. बीएसएनएल 7,999 करोड़ और एयर इंडिया को 5,338 करोड़ रुपये घाटे में है.
घाटे में चल रही कंपनियों को बंद करने या बेचने से सरकार को जबरदस्त प्रतिरोध का सामना करना पड़ सकता है. कई छोटी पीएसयू न तो रोजगार दे पाने में सक्षम हैं न ही उनसे सरकार को कोई खास फायदा हो रहा है. ये कंपनियां कई एकड़ सरकारी जमीन को कब्जे में ले रखा है. नई सरकार को घाटे में चल रही कंपनियों को उबारने की चुनौती होगी.
कृषि संकट
खाद्य पदार्थों के मूल्य में कमी कृषि संकट के तात्कालीन कारण हैं. लेकिन खेती कई गंभीर और दृघकालीन संकटों से जूझ रही है. साल 2004-2005 में कृषि, वानिकी और मत्स्य पालन की जीडीपी में हिस्सेदारी 21 फीसदी थी, लेकिन अब यह घटकर 13 फीसदी रह गई है.
विकासशील देश से विकसित बनने की प्रक्रिया में कृषि मजदूरों का पलायन रियल स्टेट और लघु विनिर्माण प्रोजेक्ट की तरफ होता है. लेकिन पिछले कुछ साल में रियल स्टेट में मंदी छाई हुई है. शहरों में मकानों के दाम में जबरदस्त वृद्धि हुई है जिसकी वजह से खरीददार नहीं मिल पा रहे हैं और नए प्रोजेक्ट के शुरू होने की रफ्तार काफी धीमी है. कृषि से छंटने वाले कामगारों को रोजगार देना सरकार के लिए बड़ी चुनौती है.