नागरिकता कानून पर प्रदर्शनों को केवल मुसलमानों से जोड़ना गलत: इरफान हबीब
इतिहासकार इरफान हबीब ने कहा कि नागरिकता संशोधन कानून को लेकर हालिया जनभावनाओं को केवल मुसलमानों से जोड़कर देखना गलत होगा क्योंकि अंतत: यह सब पर और आधुनिक राष्ट्र के रूप में भारत की अवधारणा पर प्रभाव डालेगा.
हबीब ने देश के अलग-अलग हिस्सों में प्रदर्शनकारियों पर पुलिस कार्रवाई पर टिप्पणी करते हुए कहा कि औपनिवेशिक काल में भी हमने विरोध का इस तरह दमन नहीं देखा. उन्होंने कहा कि विरोध को इस तरह कुचलने के प्रयासों को लेकर लोग काफी चिन्तित हैं क्योंकि विरोध करने का अधिकार लोकतांत्रिक समाज का हिस्सा है.
उन्होंने कहा कि देश में बड़ी संख्या में हिन्दू और अन्य समुदाय के लोग इस विरोध प्रदर्शन में शामिल हो रहे हैं. अगर इस विरोध प्रदर्शन को केवल हिन्दू मुस्लिम मुद्दे के आइने से देखा जाए तो संभवत: यह सत्ताधारी लोगों को उपयुक्त लगेगा. यह संघर्ष भारत के बारे में है और लोकतंत्र के भविष्य के बारे में है.
हबीब ने कहा कि नागरिकता संशोधन कानून के अनुसार हिन्दू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई जो धार्मिक उत्पीड़न की वजह से 31 दिसंबर 2014 तक पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से भारत आए, उन्हें अवैध प्रवासी नहीं माना जाएगा और उन्हें भारतीय नागरिकता प्रदान की जााएगी. उन्होंने कहा कि मोदी सरकार की हाल की कुछ नीतियां हिन्दुत्व अभियान की दीर्घकालिक परियोजना का हिस्सा हैं, जो अधिकांशतया विरोध के दमन की नीति पर आधारित हैं.
उन्होंने कहा कि भारत में आज जो कुछ हो रहा है, वह दुर्भाग्यपूर्ण रूप से वैसा ही है, जैसा बंटवारे के बाद से पड़ोसी पाकिस्तान में हो रहा है.
हबीब ने कहा कि उपनिवेशवाद के समय ब्रिटिश पुलिस ने भी प्रदर्शनकारियों पर ऐसा अमानवीय रूख नहीं अपनाया था, जैसा पिछले कुछ दिन से देश के कई हिस्सों में देखने को मिला है.
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय परिसर में 1938 में घटी एक घटना का जिक्र करते हुए हबीब ने कहा कि उस समय हिंसक प्रदर्शन हुआ और पुलिस से संघर्ष भी. उस समय का पुलिस अधीक्षक अंग्रेज था और प्रदर्शन के दौरान उसे छात्रों ने बुरी तरह पीटा लेकिन इसके बावजूद उसने पुलिस को परिसर में प्रवेश नहीं करने दिया क्योंकि उसने महसूस किया कि समय की मांग यही है कि संयम बरता जाए.