म्यांमार में भारत के सांस्कृतिक एंबेसडर की भूमिका में बॉलीवुड
म्यांमार की राजधानी यंगून शांत-शहर है. कान स्ट्रीट पर, इनया झील असीम शांति पसरी हुई है.
यहां आमतौर पर आठ बजे तक सन्नाटा सा छा जाता था. हालांकि म्यांमार का समय भारत से एक घंटा आगे है. हमारे देश में आने से पहले, सूरज म्यांमार में डेरा डालता है.
अपने वहां पहुंचने के दूसरे ही दिन, इसी सन्नाटे के बीच हमने एक मनभावन बर्मी संगीत की लहरों को अपने चौथे माले वाले सुइट की खिड़की से कानों में शहद-सा घोलते हुए महसूस किया. रिमझिम होती बरसात और रात के सूनेपन में उसका जादू मानो कई गुना ज्यादा बढ़ गया था.
अभी हम उस जादू से हम हतप्रभ दशा में ही थे, कि तभी उस जादू के भीतर से एक और जादू पैदा हुआ. गीत की एक हिंदी पंक्ति भी वहां से झरी और किसी मुलायम पत्ते की मानिंद लहराती हुई, हमसे आ लिपटी, ‘आप जैसा कोई मेरी जिंदगी में आये, तो बात बन जाये….’
कल्याणजी आनंदजी का संगीत उस दिन जैसे कुछ और गुलाबी, कुछ और नशीला हो गया था. नाज़िया हसन की मदिर और उत्तेजक स्वरावली मुझे कभी इतनी हृदयग्राही नहीं लगी थी, जितनी उस दिन लगी.
शायद अपने देश से दूर, विदेशी धरती पर, अपनी भाषा और संगीत का यह अतिरिक्त नॉस्टेल्जिया रहा हो. फिर तो हर रात आठ बजे के आसपास, हमारा-उसका आमना-सामना कई दिनों तक होता रहा. पहले मधुरतम बर्मी गीत-संगीत और फिर अचानक ही यह गीत सुनाई देने लगता. कोई बर्मी था, जो हिंदी फिल्मी संगीत का प्रेमी हो चुका था. पर शायद इसी एक गीत ने उसकी सारी रसिकता, सारी चेतना, सारी बुद्धि हर ली होगी, अन्यथा वह कोई अन्य गीत भी सुन रहा होता.
म्यांमार आते हुए मेरे अंदर जो एक फिल्मी गीत रह-रहकर उमग रहा था, वह तो था-
‘ओ मेरे पिया गए रंगून,
किया है वहाँ से टेलीफून
तुम्हारी याद सताती है,
जिया में आग लगाती है
हम छोड़ के हिंदुस्तान बहुत पछताए
हुई भूल जो तुमको साथ न लेकर आये
हम बरमा की गलियों में और तुम हो देहरादून
तुम्हारी याद सताती है.’
यह 1949 में आयी एचएस रवैल की फिल्म ‘पतंगा’ का गीत है. अफसोस कि रंगून अब रंगून न रहा, वह यंगून हो गया है.
बर्मा, म्यांमार हो चुका है. अंग्रेजों की हुकूमत के दौर में बर्मा पहले भारत का हिस्सा था, बाद में वह अंग्रेजों का एक और उपनिवेश हुआ. बर्मा की स्वाधीनता के बाद, जब वहां पर फौजी शासन आया तो रंगून और बर्मा के नाम तब्दील कर दिये गये. आज भी जब किसी को म्यांमार या यंगून के बारे में बताना हो, तो पहले रंगून और बर्मा की याद दिलाना पड़ती है. संदर्भ की तरह. फिर भी समझ न आये तो गीत की यही पंक्ति ‘मेरे पिया गए रंगून…’ सब कुछ समझा देती है. ‘पतंगा’ के इस गीत को गाया है, सी रामचंद्र और शमशाद बेगम ने. इसे उस समय के मशहूर हास्य कलाकार गोप और निगार सुल्ताना पर फिल्माया गया है. गीत की रचनाकार हैं अंजना रवैल. मैं यंगून में, वहां पर कई पीढ़ियों से बसे हुए अनेक भारतीय मूल के लोगों से मिला, और पूछा कि हम तो अब भी इस गीत को गुनगुनाकर और रेडियो पर सुनकर बर्मा और रंगून को याद किया करते हैं, क्या उनके जे़हन में भी भारत की याद दिलाने वाला कोई गीत है?
जवाब में बहुत से गीतों की पंक्तियां हवा में तैरने लगीं, ‘परदेश’ का ये मेरा इंडिया…, ‘पूरब-पश्चिम’ का भारत का रहने वाला हूं, भारत की बात सुनाता हूं…, ‘तीसरी कसम’ का सजनवा बैरी हो गये हमार… ‘नदिया के पार’ का कौन दिशा में लेके चला रे बटोहिया…और ‘गंगा मैया तोहे पियरी चढ़ैबो’ का गंगा मैया तोहे पियरी चढ़ैबो, सजना से कर दे मिलनवा….
हिंदी सिनेमा ने म्यांमार की जनता पर अपनी अमिट छाप डाली है. बर्मी लोग हिंदी फिल्में देखते हैं और हिंदी गानों को गुनगुनाने का लुत्फ उठाते हैं. इस तरह हमारी हिंदी फिल्में और फिल्मी गीत हमारे देश की सांस्कृतिक एंबेसडर बने हुए हैं. भारत से जाकर विदेशों में बस गये भारतीयों और उन मुल्कों का भारत के साथ रिश्ता जोड़ने वाला लोकप्रिय संचार साधन भी वही बने हुए हैं.
धाराप्रवाह बर्मी और हिंदी बोलने वाले ब्रजेश वर्मा बतातें हैं, कि एक समय था जब म्यांमार में दिलीपकुमार, राजकपूर और देवानंद छाये हुए थे. असल में यह तिकड़ी, त्रासदी, आनंद और रोमांस की भी तिकड़ी थी. यही तिकड़ी परस्पर पूरक बन कर, मनुष्य जीवन के वृत्त को पूरा करती थी.
शशि कपूर, मिथुन चक्रवर्ती के बाद राजेश खन्ना और अमिताभ बच्चन के साथ रेखा, काजोल और बिपाशा बसु के अभिनय की छाया वाली लोकप्रियता भी म्यांमार पहुंची, परंतु इन दिनों शाहरुख खान का समय चल रहा है. टैक्सी ड्राइवर कोको ने अपनी कामचलाऊ अंग्रेजी में बताया कि वह भारत को और शाहरुख खान को ‘लव’ करता है.
तब मैं यंगून में ही था, जब वहां के सिनेमा हॉल में रितिक रोशन के अभिनय वाली ‘सुपर 30’ लगी हुई थी. हिंदी फिल्में बर्मी भाषा में डब होती हैं. हिंदी फिल्मों के लिये गिने- चुने सिनेमा हॉल ही हैं. हां, म्यांमारी फिल्मों के लिये अब भी कई सिनेमा हॉल उपलब्ध हैं. वे भारत की तरह लुप्त नहीं हो गये. म्यांमार में अब ज्यादातर हिंदी फिल्में डीवीडी और नेट के जरिये ही देखी जाती हैं.
अपने समय में म्यांमार में मुग़ले आज़म, संगम, गाइड, मदर इंडिया, नागिन, बॉबी जैसी फिल्में रिलीज हो चुकी हैं. परदेश, पहेली, नो एंट्री जैसी फिल्में युवाओं में लोकप्रिय रहीं. हिंदी धारावाहिक भी देखे जाते हैं. ‘महाभारत’ और ‘रामायण’ का असर म्यांमार में भी भारत से कम नहीं था. भारतीय मूल के लोगों के अलावा बर्मी दर्शक भी इनके दीवाने रहे हैं.
राम वहां यामा, लक्ष्मण, लखना और सीता, थीटा हैं. यह बर्मी वर्णमाला का कमाल है. भारत-म्यांमार का सिनेमाई रिश्ता ‘मेरे पिया गये रंगून’ के बाद कैबरे डांसर के तौर पर मशहूर रहीं हेलेन के जरिये बनता है. हेलेन का जन्म बर्मा में ही हुआ है. उनके पिता जॉर्ज डेसमॉयर एंग्लो-इंडियन थे और मां मैरेलिन बर्मी. दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान हेलेन के पिता लापता हो गये, और फिर कभी नहीं मिले. ऐसे में हेलेन की मां हेलेन को लेकर शरणार्थी के तौर पर 1942 में भारत चली आयी थीं.
हिंदी सिनेमा में उन दिनों एक खूबसूरत और आला दर्जे की डांसर हुआ करती थीं, कुक्कू. इन्हीं कुक्कू ने 1953 में हेलेन का परिचय हिंदी सिनेमा के कुछ नामचीन निर्माता-निर्देशकों से कराया था. बावजूद इसके हेलेन को 1958 में पहली फिल्म मिली थी, हावड़ा ब्रिज. उन पर फिल्माया गया गीत ‘मेरा नाम चिन चिन चू…’ कुछ तो अपनी शब्दावली के कारण और ज्यादातर हेलेन के दिल लुभा लेने वाले, मॉडर्न किस्म की कैबरे शैली वाले नृत्य के चलते खूब प्रसिद्ध हुआ था. फिर क्या था, इसी एक गाने ने हेलेन
और कैबरे को हिंदी सिनेमा का अटूट हिस्सा बना दिया.
म्यांमार संबंधी एक और हिंदी फिल्म 1962 में बनी थी, ‘बर्मा रोड’. इसमें अशोक कुमार, शेख मुख्तार, कुमकुम, विजया चौधरी, मोती सागर, मोहन चोटी, मुराद, जीवनकला, अजीत, प्रेम सागर और राजन हक्सर ने अभिनय किया था. चित्रगुप्त का संगीत था.
इसके अलावा 2017 में आई विशाल भारद्वाज निर्देशित फिल्म ‘रंगूऩ’ भी बर्मा की याद दिलाती है. सैफ अली खान, शाहिद कपूर और कंगना रनौत ने अभिनय किया है. यह युद्ध कथा पर आधारित है.
भारत के राष्ट्रपति डॉ एपीजे अब्दुल कलाम अक्टूबर, 2006 में म्यांमार की यात्रा पर गये थे. बेसिक हाई स्कूल के बर्मी छात्रों ने उस वक़्त ‘कटी पतंग’ का गीत ‘प्यार दीवाना होता है, मस्ताना होता है…’ झूम-झूमकर सुनाया था.
बर्मी सिनेमा का इतिहास भी सौ सालों से भी ज्यादा पुराना है. बर्मी भाषा की पहली फिल्म के निर्माता-निर्देशक ऑह्न मौंग हैं. उन्होंने 1910 में मूक फिल्म बनायी थी. उन्हें बर्मी सिनेमा का पिता माना जाता है. यह फिल्म असल में एक वृत्त चित्र था, जिसे वहां के प्रमुख राजनेता तुन शेइन के अंतिम संस्कार के अवसर पर बनाया गया था. वे लंदन में बर्मा की स्वतंत्रता के लिये अभियान चला रहे थे. यह फिल्म एक सेकेंड हेंड कैमरे से बनायी गई थी और स्कॉट मार्केट, जिसे अब बोग्यो मॉर्केट कहते हैं, के
निकट ‘रॉयल सिनेमा’ में उसका प्रदर्शन हुआ था.
बर्मा के पहले अभिनेता हुए हैं, न्यी पू. उन्होंने ऑह्न मौंग की ही ‘बर्मा फिल्म कंपनी’ की मूक कथा-फिल्म ‘मायीत्ता ने थुया’ (प्यार और शराब) में अभिनय किया था. इसकी कहानी पी मोउ ने लिखी थी, जिसमें यह संदेश था कि कि शराब और जुआ कैसे किसी को बरबाद कर देते है. यह फिल्म 13 अक्टूबर, 1920 को प्रदर्शित की गयी थी. अब इस दिन को ‘म्यांमार फिल्म दिवस’ के तौर पर मनाया जाता है.
1920 से 1930 के काल के प्रसिद्ध निर्देशकों के रूप में न्यी पू, सन्नी, तोते क्यी और तिन पे के नाम लिए जाते हैं. वहां की पहली सवाक फिल्म ‘न्गवे पे लो मा या’ (उसे दौलत नहीं खरीद सकती), का निर्माण बंबई में हुआ था. तोते क्यी ने इसका निर्देशन किया था. इसमें सामाजिक संदेश के साथ राजनीतिक संदेश भी मौजूद था. अंग्रेजों ने फिल्मों पर कठोर सेंसरशिप लगा रखी थी, बावजूद इसके एक छात्र-नेता ‘को नू’ ने 1937 में ‘बॉयकॉट’ का निर्देशन किया था और मजे की बात यह है कि इसमें दो अन्य छात्र नेताओं औं सां और तुन ओह्न ने अभिनय किया था. औं सां आगे चलकर बर्मी स्वतंत्रता के नायक बने.
दूसरे विश्वयुद्ध के बाद बर्मी सिनेमा राजनीतिक विषयों की तरफ बढ़ गया था. शीत युद्ध के युग में बनी इन फिल्मों में राजनीतिक प्रचार वाला तत्व भी समाहित हो गया था. 1950 की ‘पाले मायीत्याय’ यानी मोती के आंसू बर्मा के कौमिंतांग धावे पर केंद्रित फिल्म है. यह सशस्त्र सेना के महत्व को रेखांकित करती है. ‘लूछू औं थांग’ कम्युनिस्ट विरोधी प्रचार करती थी. इसकी पटकथा 1950 के बर्मी प्रधानमंत्री ऊ नू ने लिखी थी. विख्यात फिल्म निर्माता और लेखक थखा की सबसे लोकप्रिय फिल्म
है, ‘बावा थानथाया’ अर्थात् जीवनचक्र.
बर्मा में पहली बार फिल्म एकेडमी पुरस्कारों की शुरुआत 1952 में हुई. 1962 में वहां जब समाजवादी युग का आरंभ हुआ तो फिल्मों की पटकथा पर कठोर सेंसरशिप लागू कर दी गयी. 1988 में फौजी तख्तापलट ने फिल्मों पर सरकारी हस्तक्षेप को और भी बढ़ा दिया था. जब 1989 में सरकार ने अर्थव्यवस्था को खोलने का उपक्रम किया, तो बर्मी सिनेमा उद्योग का निजीकरण हो
गया. ‘मिंबाला’ फिल्म कंपनी बेहद ताकतवर बनकर उभरी. ऐसे फिल्मी अभिनेता जो 1980 और 1990 के दशकों की राजनीतिक गतिविधियों से संबद्ध रहे थे, जैसे औं ल्विन और तुन वाई को फिल्मों में दिखाये जाने पर प्रतिबंध लगा दिया गया था.
कई सालों तक बर्मा का फिल्म उद्योग कम बजट वाली वीडियो फिल्मों के निर्माण में चला गया था. उन दिनों कड़े सेंसरशिप के चलते ज्यादातर हास्य फिल्में ही बनायी जाने लगीं थीं. 2008 में केवल 12 फिल्में ही अकादमी अवार्ड के लिये विचार करने योग्य मानी गयी थीं, हालांकि कम से कम 800 बीसीडी फिल्में बनायी गयी थीं. बर्मी सिनेमा के सामने एक और मुसीबत भी
उसी तरह आयी, जैसे कि भारत के सिनेमा के सामने आ चुकी है, वह थी सिनेमा हॉलों की तादाद में गिरावट का आना.
दिसंबर,2011 में किये गये एक सर्वेक्षण के अनुसार वहां पर 244 सिनेमा घरों में से मात्र 71 सिनेमा घर ही बचे थे. इनमें से ज्यादातर सिनेमा हॉल यंगून और माण्डले शहरों में ही हैं. 1960 के दशक में यंगॉन में ही 400 सिनेमा घर हुआ करते थे. हर साल प्रायः 80 फिल्में बनने का औसत हुआ करता था. पर अब साल भर में 10-12 फिल्में ही बना करती हैं. आजकल म्यांमार में बहुत से लोग
वीडियो थियेटरों में हॉलीवुड फिल्में देखा करते हैं. इन फिल्मों ने उन्हें अंग्रेजी भाषा भी सिखाने का काम भी कर दिया है.
जनवरी, 2012 में ज़ारगानार, जो कि बर्मा के सबसे ज्यादा लोकप्रिय हास्य अभिनेता हैं, और जिन्हें राजनीतिक बंदी के तौर पर उन दिनों रिहा कर दिया गया था, ने ‘स्वतंत्र सिनेमा का फिल्म फेस्टिवल’ आयोजित किया था. फेस्टिवल में प्रदर्शित फिल्मों में से अधिकतर सरकार की आलोचना करती थीं. इस उत्सव की विजेता फिल्मों में से एक ‘बान’ में फिल्म सेंसरशिप के भ्रष्टाचार और पाखंड पर करारा व्यंग्य किया गया था, परंतु आश्चर्य कि सेंसर ने उसे दिखाये जाने तब के लिये भी नहीं कहा था. चार
दिवसीय उत्सव के आखिर में नोबल पुरस्कार विजेता और कभी लोकतंत्र के लिये संघर्शशील रही आंग सान सू ची पुरस्कार वितरण समारोह में शामिल हुई थीं.
उत्तरी यंगून की ओर जाने वाली एक सड़क के नीचे, सागौन की लकड़ियों से बना हुआ घर फिर से जंगल के साथ संघर्ष में है. उसके प्रवेश द्वार पर, खरपतवारों के कारण जरा कठिनाई से ही ध्यान जाता है, जहां जंग खाये हुए लोहे पर लिखा है, ‘ए1 फिल्मस’. म्यांमार का पहला सिनेमा स्टूडियो. ऐसी संपत्ति जो कि 25 एकड़ से सिकुड़कर अब सिर्फ़ एक एकड़ रह गई है.
भारतीय और थाई सिनेमा के अभिनेता अक्सर यहां पर आया करते हैं, क्योंकि यही वह जगह है, जहां कभी फिल्मों का निर्माण हुआ करता था. जबसे म्यांमार में लोकतांत्रिक चुनाव हुए हैं, वहां फिल्मों पर सेंसरशिप में तुलनात्मक रूप से कुछ ज्यादा छूट दी जाने लगी है, परंतु वहां का फिल्म उद्योग अपने छह दशक पुराने उसी सुनहरे काल को फिर से कब तक हासिल कर सकेगा, यह कह पाना अभी
आसान नहीं है.