एनडीए सरकार के पूरे कार्यकाल के दौरान ‘अच्छे दिनों’ की राह ही देखते रहे निवेशक


indian markets facing post election ground realities

 

मोदी सरकार के ‘अच्छे दिन’ के वादों पर भरोसा करते हुए निवेशकों को उम्मीद जगी थी कि एनडीए सरकार बाजार को नई ऊंचाई पर ले जाएगी. लेकिन कच्चे तेल के दामों में गिरावट से लेकर कई तरह की आर्थिक सहूलियतों के बावजूद निवेशकों के अच्छे दिन नहीं आए. निवेशकों की माने तो यूपीए सरकार की तुलना में एनडीए सरकार में उन्हें इक्विटी में फायदा नहीं हुआ है.

मोदी सरकार के कार्यकाल में सेंसेक्स अब तक 57.25 फीसदी तक पहुंचा है. वहीं बेंचमार्क इंडेक्स 2004-09 में 140 फीसदी तक पहुंचा था, जो 2014-19 में 98 फीसदी रहा.

पिछले पांच सालों में बीएसई मिडकैप इंडेक्स 84 फीसदी तक पहुंचा है. यह 2004-09 और 2009-14 में क्रमश: 91 फीसदी और 104 फीसदी बढ़ा था.

बीएसई स्मॉलकैप इंडेक्स पिछले पांच सालों में 76 फीसदी बढ़ा है. 2004-09 में यह 127 फीसदी और 2009-14 में यह 84 फीसदी बढ़ा था.

विश्लेषकों की माने तो पिछले पांच सालों में कमाई में वृद्धि काफी मंद रही है. पिछले पांच वर्षों में मार्जिन पर दबाव, बैंकों के ब्याज लागत और परिसंपत्ति गुणवत्ता के मुद्दे और स्थिर मूल्यांकन ने बाजारों की चमक को छीन लिया.

आईसीआईसीआई सिक्योरिटीज लिमिटेड के उपाध्यक्ष विनोद कार्की ने कहा, “2014-19 के दौरान घरेलू बाजार में मूल्यांकन विस्तार में काफी सुधार हुआ, जबकि कमाई लगातार एक जैसी रही.”

कार्की के अनुसार 2004-09 के दौरान कंपनियों का बैलेंस शीट ग्रोथ काफी मजबूत था, जिसकी वजह से कंपनियों ने उच्च प्रदर्शन किया था. उस दौरान कंपनियों की कमाई भी अच्छी थी.

उन्होंने कहा कि वित्तीय वर्ष 2009 में लेहमैन संकट की वजह से विश्व भर के शेयरों में गिरावट हुई थी.

उन्होंने कहा, “2009-14 में लेहमैन संकट के बाद वैश्विक शेयरों में मंदी के कारण एक महत्वपूर्ण और अनुकूल आधार के प्रभाव का लाभ मिला था. वित्तीय वर्ष 2010 में धीमा विकास, कमजोर आय वृद्धि के बावजूद जोखिम भरे स्टॉक्स का समर्थन किया गया था.”

मैक्स लाइफ इंश्योरेंस के मुख्य निवेशक ऑफिसर मिहिर वोरा ने कहा, “पिछले पांच सालों से आय में वृद्धि रुकी हुई है. इसकी मुख्य वजह मार्जिन, ब्याज लागत और बैंकों की गैर निष्पादित आस्तियों (एनपीए) पर दबाव है. उन्होंने कहा कि बाजार के लगभग 80 फीसदी रिटर्न मूल्यांकन वृद्धि के कारण हैं. विदेशी निवेशकों, म्यूचुअल फंड, बीमा और खुदरा निवेशकों के माध्यम से शेयरों में प्रवाहित होने वाली लिक्विडिटी ने मूल सिद्धांतों में सुधार के बिना कीमतों को बढ़ा दिया है.”

विश्लेशकों की माने तो पिछले पांच सालों में कमजोर प्राइवेट कैपेक्स और उद्योग क्रेडिट साइकल, नोटबंदी, एनबीएफसी क्रेडिट क्रंच, 2018 में अमेरिकी फेडरल रिजर्व के ब्याज दर में बढ़ोतरी और आय में कोई वृद्धि ना होना, ये सब बाजार के लिए चुनौती थीं. पिछले पांच सालों में सरकारी शेयरों ने भी खराब प्रदर्शन किया है.

2014-19 में बीएसई पीएसयू (पब्लिक सेक्टर यूनिट) इंडेक्स में 5 फीसदी गिरावट हुई. यही 2004-09 और 2009-14 के दौरान क्रमश: 87 फीसदी और 26 फीसदी थी.

कार्की ने कहा पीएसयू के खराब प्रदर्शन की वजह पीएसयू बैंक हैं जिनका एनपीए ज्यादा है.

वोरा ने कहा है कि पिछले पांच सालों में सरकारी शयरों के कमजोर होने की कई वजहें हैं. उन्होंने कहा, “रक्षा और पूंजीगत वस्तुओं के दाम 2014 में इसलिए बढ़े ताकि उनका स्वदेशीकरण होगा और निवेश होगा. यह भी कहा जा रहा था कि रक्षा और पूंजीगत वस्तुओं का मार्जिन एक हद तक होना चाहिए. इससे इन शेयरों के दरों में और गिरावट हुई.”

विदेशी संस्थागत निवेशकों ने भारत में 2014-19 में एक लाख 94 हजार करोड़ का निवेश किया था. इससे पहले 2009-14 के बीच उन्होंने 7 लाख 87 हजार करोड़ का निवेश किया था.

घरेलू संस्थागत निवेशकों ने पिछले पांच सालों में 2 लाख 88 हजार करोड़ भारतीय शेयरों को खरीदा है, जबकि 2009-14 में एक लाख 31 हजार करोड़ के शेयरों की बिक्री हुई थी.

पिछले पांच सालों में रुपये के मूल्य में भी गिरावट हुई है. 2014-19 के बीच रुपये में 16.21 फीसदी गिरावट हुई. वहीं 2009-14 में यह 15.97 फीसदी थी. पिछले पांच सालों में कच्चे तेल की कीमतों में 33.30 फीसदी की गिरावट आई है, जबकि 2009-14 के दौरान यह 96.05 फीसदी था.

निवेशकों का मानना है कि बाजार एक स्थिर सरकार की उम्मीद कर रही है, जो प्राइवेट निवेश को सही करने के लिए सुधार और सही कदम उठाए. साथ ही राजकोषीय नियमों से भी कोई समझौता न करे.


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