पीएसए के तहत हिरासत में लेने के लगभग सभी आदेशों को पीएसए बोर्ड की मंजूरी
जम्मू-कश्मीर प्रशासन ने पांच अगस्त के बाद से अब तक पब्लिक सेफ्टी एक्ट (पीएसए) के तहत लोगों को हिरासत में लेने के लिए कुल 230 आदेश जारी किए गए हैं. जिसमें से पीएसए एडवाइजरी बोर्ड ने केवल तीन को मंजूरी देने से इनकार किया.
पीएसए एडवाइजरी बोर्ड का काम होता है कि वो प्रसाशन के आदेश की समीक्षा करे और छह हफ्तों के भीतर विचार करे की आदेश को मंजूर करना है या नहीं.
बीते रविवार को जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री फारुख अब्दुल्ला पर पीएसए लगा दिया गया. फारुख को पब्लिक सेफ्टी एक्ट के तहत हिरासत में लिया गया है, जिसके तहत उन्हें दो साल तक बगैर किसी सुनवाई के रखा जा सकता है. सुप्रीम कोर्ट में अब्दुल्ला की याचिका पर सुनवाई से पहले ही उन पर पीएसए लगाते हुए उन्हें हिरासत में ले लिया गया.
उल्लेखनीय है कि गृह मंत्रालय ने 81 वर्षीय अब्दुल्ला को जन सुरक्षा कानून के तहत रविवार की रात को हिरासत में ले लिया था. नेशनल कांफ्रेंस के संरक्षक और जम्मू कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री अब्दुल्ला, पांच अगस्त को जम्मू कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा देने वाले अनुच्छेद 370 को निरस्त कर राज्य को दो केन्द्र शासित राज्य बनाने की घोषणा के समय से ही नजरबंद हैं.
इंडियन एक्सप्रेस अपनी एक खबर में लिखता है कि सरकार द्वारा पीएसए के गलत इस्तेमाल को रोकने के उद्देश्य से पीएसए एडवाइजरी बोर्ड को स्थापित किया गया. जम्मू-कश्मीर हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस के सुझाव के बाद ही बोर्ड का चेयरपर्सन नियुक्त किया जा सकता है.
हालांकि ये अजीब ही है कि पीडीपी-बीजेपी गठबंधन सरकार ने इस नियम को खत्म कर दिया था. ये सरकार के आखिरी कुछ फैसलों में से एक था. मई 2018 में सरकार गिरने से पहले एक अध्यादेश लाया गया जिसमें बोर्ड की शिक्तियां न्यायिक की जगह नौकरशाहों की एक कमिटी को सौंप दी गई थी. जिसके बाद 22 मई, 2018 को गवर्नर एनएन वोरा ने इसकी घोषणा की.
पीएसए एडवाइजरी बोर्ड के मौजूदा प्रमुख जम्मू-कश्मीर हाई कोर्ट के पूर्व जज जनक राज कोतवाल हैं. नियुक्ति पर राज्य प्रशासनिक परिषद (एसएसी) को गवर्नर सत्यपाल मलिक की मंजूरी के बाद 30 जनवरी को कोतवाल को बोर्ड का प्रमुख नियुक्त किया गया. ये पद मार्च 2018 के बाद से खाली पड़ा था.
इससे पहले वेंकटेश नायक और डॉक्टर शेख गुलाम रसूल ने आरटीआई के जरिए कॉमनवेल्थ ह्यूमन राइट्स इनिशिएटिव (सीएचआरआई) के लिए इस बारे में जानकारी हासिल की थी. प्राप्त हुई जानकारी के मुताबिक अप्रैल 2016 और दिसंबर 2017 के बीच राज्य प्रशासन की ओर से बोर्ड को हिरासत में लेने के लिए 1,004 आदेश भेजे गए, जिसमें से बोर्ड ने 998 आदेशों को मंजूरी दी. यानी लगभग 99.4 फीसदी मामलों को बोर्ड की मंजूरी मिल गई थी.
सीएचआरआई ने पाया कि इतने ही समय में जम्मू-कश्मीर हाई कोर्ट में हिरासत में लेने के आदेश को रद्द करने के लिए कुल 941 याचिकाएं दायर की गईं. जिसमें से 764 आदेशों को कोर्ट ने रद्द किया. मानव अधिकार कार्यकर्ता अकसर पीएसए की आलोचना करते रहे हैं. उनका कहना है कि प्रसाशन इस कानून का इस्तेमाल अपने हितों के लिए करता आया है.
कानून के तहत बोर्ड के पास शक्तियां हैं कि वो पीएसए का इस्तेमाल करते हुए हिरासत में लिए गए व्यक्ति पर जिला मजिस्ट्रेट से विस्तृत रिपोर्ट की मांग कर सके.
बोर्ड को छह हफ्तों के भीतर अपना निर्णय लेना होता है. जिस व्यक्ति के खिलाफ आदेश दिया गया है बोर्ड उससे भी इस दौरन अपना पक्ष पेश करने की मांग कर सकता है. ऐसे में कानून का उद्देश्य बिलकुल स्पष्ट है कि किसी तरह प्रशासन पीएसए का गलत इस्तेमाल ना करे.
अमनेस्टी इंटरनेशनल के मुताबिक 1978 में पीएसए अस्तिव में आया था. जिसके बाद से अब तक 20,000 से ज्यादा लोगों को हिरासत में लिया गया है. आश्चर्यजनक रूप से कोर्ट के आदेश के बाद भी लोगों के लिए जेल से बाहर आना मुश्किल होता है.
कल यह बात सामने आई कि 14 फरवरी को पुलवामा हमले से लेकर चार अगस्त तक जम्मू-कश्मीर हाई कोर्ट की श्रीनगर बेंच के पास पीएसए के तहत हुए गिरफ्तारी के खिलाफ कुल 150 रिट याचिकाएं दाखिल की गई. इसमें से अब तक 39 मामलों में सुनवाई हुई है और करीब 80 फीसदी मामलों में हिरासत में लेने के आदेश को रद्द किया गया है.