PSU रुग्ण तो सरकार बेबस
नेहरू को कोसने वाले अब नेहरू के बनाए सार्वजनिक क्षेत्र की शरण में हैं. लेकिन नेहरू के प्रयासों से बनी हिन्दुस्तान एंटीबायोटिक लिमिटेड ने अबकी खुद सरकार को टका सा जवाब दे दिया है. दरअसल, केन्द्र सरकार हिन्दुस्तान एंटीबायोटिक लिमिटेड से पेनीसीलीन नामक एंटीबायोटिक लेना चाह रही है.
‘द प्रिंट’ (https://theprint.in/economy/indias-drug-maker-help-modi-govt-revive-penicillin-production/302164/) के हवाले से खबर है कि सरकार को अगले तीन सालों के लिए पेनीसीलीन के 13,00 करोड़ खुराक की जरूरत है और मेक इन इंडिया कार्यक्रम के तहत सार्वजनिक क्षेत्र की दवा कंपनी हिन्दुस्तान एंटीबायोटिक लिमिटेड से इसका उत्पादन कर सप्लाई करने के लिए कहा गया.
इसके नेपथ्य में यह तथ्य है कि देशभर के चिकित्सकों ने मोदी सरकार से अनुरोध किया है कि इस महत्वपूर्ण एंटीबायोटिक की जरूरत है. दरअसल, एक प्रकार के खतरनाक बैक्टीरिया स्टेफेलोकॉकस ओरियस पर पेनीसीलीन अत्यंत प्रभावकारी है. इस बैक्टीरिया से बच्चों में और बड़ों में बार-बार टॉन्सिल में संक्रमण होता है जिसका पूरी तरह से इलाज नहीं कर पाने से किडनी खराब हो जाता है तथा रूमेटिक फीवर एवं उससे रूमेटिक हार्ट डिसीज हो सकता है. आज जब उपलब्ध अधिकांश एंटीबायोटिक के प्रति इस बैक्टीरिया ने अपने आप में प्रतिरोध क्षमता उत्पन्न कर लिया है ऐसे मौके पर साल 1928 में अलेक्सजेंडर फ्लेमिंग द्वारा ईज़ाद किया गया यह पेनीसीलीन आज भी काम करता है.
इस कारण से केन्द्र सरकार की योजना है कि तीन साल के भीतर 5 से 15 साल उम्र के बच्चों को जिनके गले में संक्रमण होता है कम से कम एक बार यह दवा पेनीसीलीन दिया जाए. इसके लिए सरकार को पेनीसीलीन के इंजेक्शन की 60 करोड़ खुराक (Benzathine) और 12,60 करोड़ गोलियों (phenoxymethyl) की आवश्यकता है.
‘द प्रिंट’ की खबर के अनुसार केन्द्र सरकार की फार्मास्युटिकल्स विभाग के एक आला अफसर का कहना है कि “हमने स्वास्थ्य अनुसंधान विभाग को सूचित किया है कि वित्तीय संकट को देखते हुए हिन्दुस्तान एंटीबायोटिक लिमिटेड पेनीसीलीन का उत्पादन करने मे सक्षम नहीं है. यह अभी भी रिवाइवल मोड में है, इसीलिए बड़ी परियोजनाओं को हाथ में लेने में सक्षम नहीं है.”
इसी अधिकारी ने आगे बताया कि “हमने स्वास्थ्य अनुसंधान विभाग को उत्पादन शुरु करने के लिए दवा निर्माताओं से निविदाएं आमंत्रित करने का सुझाव दिया है. हमने कहा है कि हिन्दुस्तान एंटीबायोटिक लिमिटेड पर निर्भरता को छोड़ दें. हालांकि, अगर हमें वित्तीय मदद देती है तो हम इस पर अपना अंतिम निर्णय दे सकते हैं.”
‘द प्रिंट’ के हवाले से यह भी खबर है कि स्वास्थ्य अनुसंधान विभाग ने देश में दवाओं पर मूल्य नियंत्रण लागू करने वाली संस्था नेशनल फार्मास्युटिकल्स प्राइसिंग अथॉरिटी से कहा है कि निजी निर्माताओं द्वारा पेनीसीलीन के उत्पादन को प्रोत्साहित करने के लिए इसके मूल्य नियंत्रण में छूट देने की योजना बनाए.
अब मामला आपकी समझ में आसानी से आ रहा होगा कि खतरनाक बैक्टीरिया स्टेफेलोकॉकस ओरियस को मात देने के लिए और इससे होने किडनी और हार्ट डिसीज से देश के नागरिकों को बचाने के लिए पेनीसीलीन की जरूरत है. दूसरा, केन्द्र सरकार भी इसे महसूस कर रही है तथा इस दिशा में कदम उठा रही है. तीसरा, सार्वजनिक क्षेत्र की दवा कंपनी हिन्दुस्तान एंटीबायोटिक लिमिटेड रुग्ण हालात में होने के कारण इसका उत्पादन करने में सक्षम नहीं है. चौथा, बकौल ‘द प्रिंट’ अब निजी क्षेत्र के दवा कंपनियों को इस जीवनरक्षक दवा के मूल्य नियंत्रण में छूट दी ये ताकि वे इसका उत्पाद करें.
इस स्थिति में दो बातें उभरकर आती हैं कि पहला सार्वजिनक क्षेत्र की दवा कंपनी/ कंपनियां यदि आज सरकारी नीतियों के कारण रुग्ण नहीं हुई होती तो सरकार को निजी क्षेत्र के सामने हाथ नहीं फैलाना पड़ता. राष्ट्रीय आपातस्थिति से निपटने में सरकार आत्मनिर्भर होती दूसरा दवाओं पर मूल्य नियंत्रण लागू होने के कारण मुनाफाखोर दवा कंपनियां ऐसे दवाओं का उत्पादन तथा विक्रय नहीं करती हैं क्योंकि इससे उन्हें तुलनात्मक रूप से कम मुनाफा होता है. हम आगे इसी दो बिन्दुओं पर चर्चा करेंगे.
देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की विरासत पर चर्चा करना आज प्रासंगिक हो गया है. कारण यह है कि जब पिछले 70 और 55 सालों का हिसाब मांगा जाता है तो नेहरू पर भी फोकस रहता है. अब तो बात इतनी बढ़ गई है कि नेहरू के घनिष्ठ राजनीतिक सहयोगी सरदार पटेल को उनके खिलाफ खड़े करने की कोशिश लगातार जारी है.
नेहरू ने कहा था कि दवा उद्योग सार्वजनिक क्षेत्र में होना चाहिए. मुझे लगता है कि दवा उद्योग की प्रकृति ही ऐसी है कि इसे निजी क्षेत्र के हाथ में नहीं होना चाहिए. इस उद्योग में जनता का अत्याधिक शोषण किया जाता है. अपने इस दृष्टिकोण के अनुसार ही उन्होंने प्रयास किया और 10 मार्च 1954 को विश्व-स्वास्थ्य-संगठन और यूनिसेफ की मदद से हिन्दुस्तान एंटीबायोटिक की स्थापना की गई.
बेशक, नेहरू देश में साम्यवादी या समाजवादी की स्थापना नहीं कर रहे थे और न ही हमें इस बात का कोई भ्रम है. उनका राजनीतिक अर्थशास्त्र इन दोनों के बनिस्पत राजकीय पूंजीवाद के ज्यादा निकट था. उसके बावजूद भी उस समय और आज भी राजकीय पूंजीवाद जनता को राहत दिलवाने वाला कदम है.
हिन्दुस्तान एंटीबायोटिक को देश की पहली सार्वजनिक क्षेत्र की दवा कंपनी बनने का गौरव प्राप्त है. इस कंपनी ने देश में पेनीसीलिन, स्ट्रेप्टोमाइसिन, जेन्टामाइसिन और एमौक्ससीसिलीन जैसे एंटीबायोटिक का वाणिज्यिक उत्पादन शुरू किया जिससे विदेशी दवा कंपनियों से देश की निर्भरता क्रमशः कम होती गई.
बता दें कि 28 दिसंबर 2016 को हुए केन्द्रीय कबीना की बैठक ने सरकारी दवा कंपनियों की जमीनों को बेचकर देनदारियां चुकता करने और मौजूदा कर्मचारियों को रुखसत करने के लिए व्हीआरएस देने का निर्णय लिया. सभी देनदारियों को चुकता करने के बाद और कर्मचारियों को व्हीआरएस के माध्यम से हटाने के बाद इन सार्वजनिक क्षेत्र की दवा कंपनियां को रणनीतिक बिक्री के लिए तैयार किया जाएगा. इसके बाद 1 नवंबर 2017 को हुई कैबिनेट कमिटी ऑन इकोनॉमिक अफेयर्स ने मुनाफा कमाने वाली कर्नाटक एंटीबॉयोटिक एंड फॉर्मास्युटिकल्स को शत-प्रतिशत निवेश करने के लिए सैद्धांतिक मंजूरी दी.
मोदी सरकार ने इससे पहले ही अपने मेक इन इंडिया कार्यक्रम की घोषणा की थी लेकिन एक बार भी उन्होंने देश के सार्वजनिक क्षेत्र के दवा कंपनियों का उद्धार करने की कोशिश नहीं की. यदि ऐसा किया जाता तो आज यह दिन न देखने पड़ते. जवाहरलाल नेहरू के जमाने में देश में सार्वजनिक क्षेत्र की दवा कंपनी हिन्दुस्तान एंटीबायोटिक लिमिटेड तथा आईडीपीएल को खड़ा किया गया था. बाद की सरकारों ने इस पर ध्यान नहीं दिया तथा इन्हें बीमार हो जाने दिया. इसके बदले में निजी दवा कंपनियों को प्रोत्साहित किया जाने लगा.
दूसरी बात यह है कि पेनीसीलीन, आवश्यक दवाओं की राष्ट्रीय सूची में शामिल है. साल 2013 से इन सभी दवाओं को मूल्य नियंत्रण के तहत लाया गया. जबकि निजी देशी और विदेशी दवा कंपनियों को फितरत है कि जिस भी दवा को मूल्य नियंत्रण के तहत लाया जाता है उसे छोड़कर वे उसी समूह की दूसरी दवाओं का उत्पादन तथा विक्रय शुरू कर देते हैं. आखिरकार, इन दवाओं की कमी के कारण चिकित्सकों को भी ईलाज के लिए महंगी दवाएं ही लिखनी पड़ती हैं.
मुद्दे की बात यह है कि मोदी सरकार को आगे बढ़कर देश की सार्वजनिक क्षेत्र की दवा कंपनियों जैसे हिन्दुस्तान एंटीबायोटिक लिमिटेड तथा आईडीपीएल को बेचकर देनदारियां चुकता करके अपने बैलेंसशीट को दुरस्त करने के बजाये इनमें निवेश करके इन्हें फिर से पुनर्जीवित करना चाहिए. जब हम मिशन मून के तहत चांद के रहस्यों की खोज करने जा सकते हैं तो क्या बीमारी से लड़ने के लिए अपने देशवासियों को जीवनरक्षक तथा आवश्यक दवाओं को कम कीमत में उपलब्ध करवाने की जिम्मेदारी नहीं उठा सकते हैं?
सवाल प्राथमिकता का है कि सरकार की प्राथमिकता में जनता को स्वस्थ्य रखने के लिए सरकारी ढ़ाचा को खड़ा करना है या निजी दवा कंपनियों, निजी अस्पतालों तथा निजी बीमा कंपनियों के भरोसे जनस्वास्थ्य को छोड़ देना है.
वैसे, इस सरकार से उम्मीद करने के पहले उन खबरों पर भी नजर डाल लेने की जरूरत है जिससे पता चलता है कि बीएसएनएल, एमटीएनएल को निजी हाथों में देने या बंद करने की तैयारी है.
गौरतलब है कि मोदी युग के साथ भारत ने 2014 में आर्थिक सुधार के तीसरे दौर में प्रवेश किया है. लेकिन जिस तेजी से सरकारी तथा सार्वजनिक संपत्ति का निजीकरण किया जा रहा है वह मार्गरेट थैचर और जार्ज बुश भी अपने दौर में नहीं कर सके थे.
थैचर ने न्यूनतम सरकार, अधिकतम शासन का नारा दिया था. ठीक उसी तरह से बकौल ‘नरेन्द्रमोदीडॉटइन’ के अनुसार, मेरा मानना है कि सरकार को व्यापार नहीं करना चाहिए. फोकस ‘मिनिमम गव्हर्मेंट एंड मैक्सिमम गवर्नेंस’ पर होना चाहिए. जाहिर है कि प्रधानमंत्री मोदी भी थैचर तथा बुश के कर कदमों पर ही चल रहें हैं.
हां, एक बात हमारे देश में जरूर हुई है. सरकार तो व्यापार से दूर होती जा रही है लेकिन अब व्यापारी के हित में सरकारी नीतियां तय की जाने लगी हैं. जनता बेबस खड़ी देख रही है.