जन्म दिन विशेष: टैगोर और राष्ट्रवाद का सवाल
भारत के युगसृष्टा कवि, साहित्यकार, दार्शनिक और भारतीय साहित्य के एकमात्र नोबेल पुरस्कार विजेता रवीन्द्रनाथ टैगोर का जन्म 7 मई, 1861 को आज ही के दिन हुआ था.
संकीर्ण हिंदुत्व के जिस संकट से हम आज जूझ रहे हैं उसकी नब्ज रवीन्द्रनाथ ने सौ साल पहले पकड़ ली थी. उनका उपन्यास ‘गोरा’ इसी संकीर्ण हिंदुत्व की पहचान का आख्यान है. आज भारत में देशभक्ति को हिन्दू राष्ट्रवाद के तौर पर स्थापित किए जाने की प्रक्रिया जबरन हावी है. यह एक ऐसा समय है जिसमें देश को सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की जमीं पर मात्र हिन्दू आकांक्षाओं का देश घोषित किया जा रहा है. दुखद यह है कि इसमें सत्ता पक्ष शामिल है. जिसे बेनेडिक्ट एंडरसन राष्ट्रवाद का स्याह पक्ष कहते हैं. अपनी रचनाओं में संकीर्णता के प्रतिरोध की जो रणनीति रवींद्रनाथ ने अख्तियार की थी, उसकी आज सबसे अधिक जरूरत है.
1905-10 के बीच बंगाल में अंग्रेजी हुकूमत के विरोध में आंदोलन उभर रहा था. ब्रिटिस वायसराय लॉर्ड कर्जन ने बंगाल का विभाजन कर दिया था. इसके विरोध में अंग्रेजी वस्तुओं का बहिष्कार जोर पकड़ रहा था. साथ ही उन भारतीयों का भी बहिष्कार किया गया जो हुकूमत को लेकर वफादार थे. जुलूस निकाले गए. विदेशी दुकानों के सामने धरना दिया गया. रवीन्द्रनाथ इस आंदोलन से जुड़कर इसके प्रतीकों को गढ़ रहे थे. जनता को हुकूमत के खिलाफ गोलबंद कर रहे थे. शुरुआत में उन्होंने हिन्दू संस्थाओं और उनके नियमों को सही भी ठहराया था. बाद में पुनरुत्थान की जमीन पर खड़े हो रहे हिन्दू राष्ट्रवाद से उनका मोहभंग हो गया. उनके उपन्यास गोरा को लेकर इतिहासकार तनिका सरकार मानती हैं कि यह उनके जीवन का ही प्रतिबिंब है. टैगोर ने इस उपन्यास में प्रतीकवादी राष्ट्रवाद की आलोचना की है. 1910 में लिखा गया यह उपन्यास राष्ट्रवाद की बहस के साथ विकसित होता है.
टैगोर अपने लेख ‘नेशनलिज्म’ में लिखते हैं, भारत के लिए राष्ट्रवाद विकल्प नहीं बन सकता. उनके मुताबिक भारत में राष्ट्रवाद नहीं के बराबर है और यहां यूरोप जैसा राष्ट्रवाद पनप नहीं सकता. राष्ट्रवाद का विरोध करते हुए वे आगे लिखते हैं, “यह मानव की प्राकृतिक और आध्यात्मिक विकास में रुकावट है.” टैगोर ने अपने इस लेख में राष्ट्रवाद को युद्धोन्मादी और समाज-विरोधी माना है. उनके मुताबिक राष्ट्रवाद के नाम पर राज्य शक्ति का अनियंत्रित प्रयोग करता है और अपराधों को बढ़ावा देता है. वर्तमान में देश की राजनीति टैगोर के इन विचारों की तस्दीक करती हुई मालूम पड़ती है.
टैगोर का समय व्यापक सामाजिक उथल-पुथल का था. पुनरुत्थान और समाज सुधार की चेतना ने बंगाली समाज को भीतर तक आंदोलित कर रखा था. एक तरफ बंकिमचंद्र और अरविंद घोष थे जो हिंदू पुनरुत्थान पर जोर दे रहे थे. दूसरी तरफ राजा राम मोहन राय थे, जिनकी मान्यता रीति-रिवाजों को निरर्थक साबित कर समाज सुधार की था. इस दौरान बंगाली समाज दो वर्ग पारंपरिक हिंदू और ब्रह्म समाज में बंट गया था. टैगोर पुनर्जागरण आंदोलन के साथ चलने वाले संकीर्ण हिंदुत्व के खतरे को समझ गए थे. बंग साहित्य परिषद में दिए गए एक व्याख्यान में उन्होंने कहा था, “आज हम उसी सूखे रास्ते के बीच अपनी रुचि और जरूरत के मुताबिक तालाब खोदकर उसी को हिन्दुत्व कह कर पुकारते हैं. उसमें कोई मेरा हिंदुत्व है कोई तेरा. वह हमारे सर्वसाधारण का हिंदुत्व है कि नहीं इसमें शक है.”
पुनरुत्थान में शामिल संकीर्ण हिंदुत्व स्त्री-पुरुष की समानता का भी विरोधी था. रवीन्द्रनाथ अपनी रचना में इस धारणा को गलत साबित करते हैं. गोरा उपन्यास स्त्री का स्वतंत्र और मजबूत व्यक्तित्व की मौजूदगी इसकी मिसाल है. रवीन्द्रनाथ टैगोर कहते थे, “जो लोग नवयुग लाने के पक्षधर हैं उन्हें स्वातंत्र्य साधना करनी होगी. यह ध्यान रखना होगा कि इस साधना से किसी एक जाति की मुक्ति नहीं सभी मनुष्यों की मुक्ति हो.”
टैगोर ने अपनी रचना में नवजागरण काल और आधुनिकता के दौर के साथ ही उन्नीसवीं और बीसवीं सदी के संक्रमण काल को उकेरा है. ब्राह्मण, आधुनिक अभिजात स्त्री-पुरुष, निम्न, मध्य, उच्च वर्ग के लोग किसान, मजदूर, कलाकार, गायक, फकीर, बाबू, दलाल, शिक्षित-अशिक्षित सभी अपनी भूमिका के साथ मौजूद हैं.
आइंस्टीन और टैगोर के बीच बेहद जुड़ाव था. इन दोनों महान हस्तियों के बीच एक दूसरे के लिए बहुत सम्मान था. आइंस्टीन ने टैगोर को रब्बी कह कर संबोधित किया है. यह हेब्रु भाषा का एक शब्द है जिसका मतलब शिक्षक है. बर्लिन में 1930 को आइंस्टीन के घर पर हुई उन दोनों की बैठक को इतिहास की एक सबसे उत्कृष्ट बौद्धिक चर्चा के रूप में याद किया जाता है. तब उन दोनों की बातचीत की रिकॉर्डिंग सनसनी बन गई थी. द न्यूयॉर्क टाइम्स ने ‘आइंस्टाइन और टैगोर प्लंब द ट्रुथ’ नाम से एक लेख लिखा था. यह लेख यादगार के साथ ‘मैनहट्टन में एक गणितज्ञ और रहस्यवादी की मुलाकात’ कैप्शन के साथ छापा गया था.
साहित्य के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित रवीन्द्रनाथ टैगोर का जन्म एक समृद्ध बांग्ला परिवार में हुआ था. उनका आकर्षण कला के तमाम स्वरूपों की ओर था. साहित्य, नृत्य और संगीत में टैगोर का योगदान उत्कृष्ट है. हालांकि, उन्हें कोई औपचारिक शिक्षा नहीं मिली थी.
एक चित्रकार के रूप में टैगोर का जीवन उनके कवि ह्दय का विस्तार था. उन्होंने इसके लिए सशक्त और सहज दृश्य शब्दकोष तैयार कर लिया था. इसके पीछे आधुनिक, पाश्चात्य, पुरातन और बाल्य कला के विभिन्न स्वरूपों की गहरी समझ थी. टैगोर ने कई चित्रों को उकेरा जिनमें काल्पनिक और विचित्र जानवरों, मुखौटों, रहस्यमयी मानवीय चेहरों, भू-दृश्य, चिड़ियों और फलों के चित्र थे. इनमें फंतासी और जीवंतता का संगम है. टैगोर अप्राकृतिक रूप से रहस्यमयी और कुछ धुंधली याद दिलाते हैं. कला समीक्षकों के मुताबिक टैगोर अपनी कृतियों में सर्जनात्मक स्वतंत्रता की लय में रहे. टैगोर के लिए कला मनुष्य को दुनिया से जोड़ने का माध्यम है.
टैगोर का लिखा जन-गण-मन गीत पहली दफा कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में 1911 में गाया गया था. इसी साल ब्रिटेन के सम्राट जॉर्ज पंचम भारत दौरे पर थे. उन्हीं के कहने पर तत्कालीन वायसराय ने बंगाल विभाजन को खारिज कर दिया था और उड़ीसा को अलग राज्य का दर्जा दे दिया था. कांग्रेस ने अपनी बैठक में इसकी तारीफ की थी. तब जन-गण-मन गाया गया था. यह प्रकरण इतिहास में काफी विवादित माना गया है. यह बात अब तक उठती आ रही है कि टैगोर ने यह गाना जार्ज पंचम की तारीफ में तो नहीं गाया था!
इन आरोपों को खारिज करते हुए 1939 में टैगोर ने लिखा था, “मैं उन लोगों को जवाब देना मुनासिब नहीं समझता जो मुझे इस मूर्खता के लायक समझते हैं.”