राहुल गांधी पर बढ़ता आदिवासियों का भरोसा
कांग्रेस ने लगता है कि देश के आदिवासियों के माथे पर बनी चिंता की लकीरें पढ़ ली है. तभी आदिवासी बहुल झारखंड में लोकसभा चुनाव अभियान का शंखनाद करते हुए कांग्रेस के अध्यक्ष राहुल गांधी ने जल, जमीन और जंगल सहित वे तमाम मुद्दे उठाए, जो झारखंड ही नहीं, बल्कि पूरे देश के आदिवासियों के लिए चिंता का सबब बने हुए हैं.
मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के चुनावों में किए गए वायदों को जिस जल्दबाजी में अमलीजामा पहनाने की कोशिश की गई है उससे झारखंड के आदिवासियों और किसानों में भी भरोसा बना है. शायद यह बड़ी वजह है कि झारखंडी जनता राहुल गांधी से बेहतर कनेक्ट कर पाई है. रांची में 2 फरवरी को परिवर्तन-उलगुलान रैली की सफलता से यह बात साबित भी हुई.
झारखंड में विपक्षी एकता के मामले में भी यह रैली साफ-साफ संदेश देने में सफल रही. झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो), झारखंड विकास मोर्चा (जेवीएम) और राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के नेताओं और कार्यकर्त्ताओं की रैली में उपस्थिति से संदेश गया कि लोकसभा की चंद सीटों को लेकर जारी उहापोह से विपक्षी गठबंधन की मजबूती पर असर नहीं पड़ना है.
आदिवासियों के अलावा अन्य गरीबों और किसानों के भारी जमावड़े से जाहिर है कि राहुल गांधी के साथ ही विपक्षी गठबंधन के नेता भी बेहद गदगद थे. उन्हें समझ में आया कि विपक्षी एकता ही एकमात्र मंत्र है जो उन्हें विजय रथ पर सवार कर सकता है.
बीजेपी का आरोप था कि कांग्रेस ने परिवर्तन-उलगुलान रैली के लिए जानबूझकर मोरहाबादी मैदान का छोटा कोना चुना. इसलिए कि उन्हें पता है कि झारखंड की जनता पूरी तरह मोदीमय है. पर राज्य के दूर-दराज इलाकों से भी बड़ी संख्या में लोग जुट गए तो बीजेपी वालों ने खतरे की घंटी जरूर सुनी होगी. ऐसी भीड़ का अंदाज तो शायद आयोजकों को भी न रहा होगा. ऐसे में राहुल गांधी मौके पर बेजा लाभ उठाने में पीछे क्यों रहते? वे गांव-देहात से आए लोगों के साथ घुले-मिले तो आदिवासियों के साथ थिरके भी. मंच से उनके मुद्दे उठाए तो बताया भी कि केंद्र में कांग्रेस गठबंधन की सरकार बनी तो उसकी प्राथमिकताएँ क्या होंगी.
राहुल गांधी जब गरीबों, किसानों और आदिवासियों को भविष्य के सपने दिखा रहे थे तो उनके पास यह साबित करने के लिए कई उदाहरण मौजूद थे कि कांग्रेस जैसा कहती हैं, वैसा करती हैं. मसलन, छत्तीसगढ़ की बघेल सरकार के बजट के केंद्र में किसान रहे. शपथ ग्रहण के साथ ही मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने चुनावी वायदे के मुताबिक छोटे किसानों के ग्रामीण और सहकारी बैंकों के 6,230 करोड़ रुपये के शॉर्ट-टर्म लोन माफ कर दिए थे.
मगर अब किसानों को ऋण से राहत दिलाने के लिए इसमें सार्वजनिक क्षेत्र के व्यावसायिक बैकों को भी शामिल कर लिया गया है. इससे तक़रीबन 4,000 करोड़ रुपये के अल्पकालीन कृषि ऋणों को भी माफ़ करने का रास्ता साफ हो गया है. बजट में इसके लिए 4,224 करोड़ रुपये की व्यवस्था की गई. धान खरीद मूल्य में 22 फ़ीसदी का इज़ाफ़ा कर दिया गया. वायदानुसार, घरेलू बिजली उपभोक्ताओं को बड़ी राहत देते हुए बघेल सरकार ने बजट में 400 यूनिट तक बिजली बिल में आधी छूट देने का एलान किया गया. राहुल गांधी ने इशारों में झारखंडवासियों को समझाया कि कांग्रेस शासित राज्यों की सरकारों ने बीजेपी की तरह यह कहकर पल्ला नहीं झाड़ लिया कि चुनावी वायदा तो जुमला था. कमाल यह कि राहुल गांधी जब प्रसंगवश छत्तीसगढ़ सरकार की ओर से बिजली बिलों में कटौती की बात बता रहे थे, उसी वक्त झारखंड के अनेक भागों में रघुवर सरकार की ओर से बिजली दरों में बढ़ोत्तरी को लेकर विरोध प्रदर्शन किया जा रहा था.
कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के बाद पहली बार झारखंड की राजधानी रांची पहुंचे राहुल गांधी आत्म-विश्वास से लबरेज थे. गरीबों, किसानों और आदिवासियों के मुद्दों को लेकर उनके दृष्टिकोण में स्पष्टता थी. उन्होंने दो मुद्दों पर ज्यादा फोकस किया. पहला तो यह कि देश में मोदी सरकार रही तो जल, जमीन और जंगल पर पूंजीपतियों का अधिकार हो जाएगा.
दूसरा यह कि जनता की गाढ़ी कमाई का धन गरीबों के काम नहीं आएगा, उसे चंद औद्योगिक घरानों के लिए लुटा दिया जाएगा.
ये दोनों ही ऐसे मुद्दे हैं, जिनको लेकर झारखंड के आदिवासी और किसान बेहद गुस्से में हैं. आलम यह है कि आदिवासियों-वनवासियों की हजारीबाग से रांची तक जंगल-जमीन अधिकार पदयात्रा के समर्थन में कभी बीजेपी की सहयोगी रही सुदेश महतो की आजसू पार्टी को भी बढ़-चढ़कर हिस्सा लेना पड़ गया था.
यूपीए के शासनकाल में दो महत्वपूर्ण कानून बनाए गए थे, जो आदिवासियों और किसानों को खूब भाया था. पहला तो भू-अधिग्रहण कानून-2013. इस कानून के तहत जमीन अधिग्रहण करने के लिए निजी परियोजनाओं के मामलों में 80 फीसदी और पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप वाली परियोजनाओं के मामलों में 70 फीसदी लोगों की सहमति ज़रूरी थी.
मोदी सरकार ने इस नियम में संशोधन करके व्यवस्था बना दी कि रक्षा उत्पादन, ग्रामीण इन्फ़्रा, औद्योगिक कॉरीडोर के लिए भू-स्वामियों की सहमति की जरूरत नहीं रहेगी. इन मामलों में सामाजिक प्रभाव का आकलन भी गैर जरूरी बना दिया गया.
यूपीए सरकार चाहती थी कि बहु-फसली और उपजाऊ ज़मीन का विशेष परिस्थिति में ही अधिग्रहण हो. पर इस नियम में भी बदलाव किया गया. परियोजनाओं के नाम पर किसानों की जमीन पर कारपोरेट घरानों का कब्जा न हो जाए, इस बात को ध्यान में रखकर यूपीए सरकार ने कानून बनाया था कि भूमि अधिग्रहण से पांच साल के अंदर परियोजना शुरू नहीं की गई तो ज़मीन संबंधित किसानों को वापस किया जाएगा. मोदी सरकार ने इस प्रावधान को भी खत्म कर दिया. यही नहीं, पांच सालों में किसानों की आय दोगुना करने का वायदा धरा रह गया.
पहले से ही गुस्साए झारखंड के आदिवासियों-वनवासियों का पारा और भी तब चढ़ा था, जब वन संरक्षण अधिनियम (2006) को चुनौती देने वाली एक याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कार्ट का फैसला आया. उस फैसले के मुताबिक ऐसे सभी लोगों को इस साल 12 जुलाई तक जंगलों से निकाल दिया जाना था, जिनके वनभूमि स्वामित्व संबंधी दावे राज्य सरकारों की ओर से खारिज किए जा चुके हैं.
देशव्यापी विरोध के बाद केंद्र सरकार के कान खड़े हुए और सुप्रीम कोर्ट में मनुहार के बाद स्थगन आदेश मिल पाया है. पर आदिवासी-वनवासी सरकार की मंशा भांप चुके हैं. अब जबकि राहुल गांधी इन मुद्दों को उठा रहे हैं तो उन्हें उनकी बातों को गंभीरता से लिया जाना लाजिमी है. इसलिए कि भूमि अधिग्रहण कानून – 2013 की तरह वन संरक्षण अधिनियम (2006) भी यूपीए सरकार की ही देन हैं.
छत्तीसगढ़ के बस्तर जिले के चित्रकूट विधानसभा में टाटा स्टील प्लांट के लिए जिन किसानों की जमीन का अधिग्रहण हुआ था, उन किसानों को बगैर शर्त के जमीन वापसी के एलान का भी आदिवासियों और किसानों पर खासा प्रभाव देखा गया. पर राहुल गांधी ने कांग्रेस के जनपक्षीय एजेंडों का दायरा व्यापक करते हुए आगामी लोकसभा चुनावों के लिए आदिवासियों और किसानों के साथ ही समाज के अन्य वर्गों के लोगों को भी साधने की कोशिश की.
उन्होंने घोषणा की कि यदि मई, 2019 में कांग्रेस के नेतृत्व में यूपीए सरकार सत्ता में आई तो वह देश के सभी नागरिकों के लिए ‘न्यूनतम आय गारंटी योजना लागू करेगी. राजनीतिक प्रेक्षकों की मानें तो राहुल गांधी की यह घोषणा प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि योजना पर भारी है.
बीते साल तीन राज्यों में हुए चुनावों के बाद झारखंड कांग्रेस के कतिपय नेता सहयोगी दलों को लेकर जिस तरह बड़बोलापन कर रहे थे, परिवर्तन-उलगुलान रैली के बाद शायद उस पर लगाम लग जाए. इसलिए कि राहुल गांधी ने पूर्व मुख्यमंत्री और जेवीएम के नेता बालूलाल मरांडी से लेकर झामुमो के नेता स्टीफन मरांडी तक को जैसा जवज्जो दिया, उससे संदेश साफ था कि वे तीन राज्यों के चुनावी नतीजों और बिना गठबंधन के ही झारखंड में हुए उपचुनाव में जीत से भले वे उत्साहित हैं, पर गठबंधन के सहयोगियों के सम्मान में कोई कमी होने देने को तैयार नहीं हैं.
उधर झारखंड के गैर भाजपाई संगठनों ने भी रैली में अपनी उपस्थिति दर्ज कराकर और भाषणों के जरिए संदेश दे दिया कि राहुल गांधी का लीडरशिप उन्हें स्वीकार है और समय की यही मांग भी है.