क्या है ‘मिशन मंगल’ की कामयाबी का राज़
पहले चार दिनों में 100 करोड़ कमाने वाली ‘मिशन मंगल’ को देखकर आपको इस बात का अंदाजा तो लग ही गया होगा कि आज अगर कामयाब फिल्मकार बनना है तो राष्ट्रवाद की ताजा अवधारणा के साथ चलना होगा. इन चार दिनों में ‘बाटला हाउस’ बेशक उतनी कामयाब न रही हो लेकिन उसे एक कसी हुई फिल्म के तौर पर ज़रूर देखा जा रहा है.
दरअसल बाटला हाउस एनकाउंटर को जिस तरह फिल्माया गया है और इसके आरोपी आतंकी को जिस दौर में पकड़ा गया वह फिर से कहीं न कहीं राष्ट्रवाद की उसी अवधारणा को सामने लाता है. दोनों ही फिल्में इसलिए 15 अगस्त को रिलीज़ की गईं.
‘बाटला हाउस’ में जामिया नगर की तंग गलियां हैं, आतंकवाद, ब्लास्ट और एनकाउंटर का पुराना फार्मूला है, कोई बड़ी स्टार कास्ट नहीं है. फिल्म कहीं न कहीं आपको लगातार तनाव में रखती है. साथ ही कुछ सवाल भी छोड़ती है. लेकिन ‘मिशन मंगल’ में आपके लिए सारे मसाले हैं. यहां स्टार वार्स जैसा रोमांच भी है और हल्की फुल्की कॉमेडी का तड़का भी. आपकी घरेलू ज़िंदगी के छोटे छोटे किरदार हैं और इसरो के मंगलयान मिशन के उन प्रमुख वैज्ञानिकों के दिलचस्प किस्से भी जिनकी बदौलत ये अभियान कामयाब हो सका.
ये फिल्म अक्षय कुमार से ज्यादा विद्या बालन की है. अक्षय कुमार बेशक अबतक प्रधानमंत्री मोदी की योजनाओं के सबसे बड़े फिल्मी ब्रांड एम्बेसडर रहे हों लेकिन कई बार मिशन मंगल में उनका किरदार कुछ हल्का सा नज़र आया.
यहां इसरो के मंगल मिशन को जिस तरह शुरूआती दौर में एक कबाड़ और फ्लॉप मिशन के तौर पर दिखाया गया. इसे एक नाकाम वैज्ञानिक की पनिशमेंट या डंपिंग पोस्टिंग साबित करने की कोशिश की गई. साथ ही जिस तरह अक्षय कुमार को एक बेहद बेफ़िक्र टीम लीडर के तौर पर दिखाया गया है, वह कहीं न कहीं वैज्ञानिकों की गंभीरता पर सवाल उठाने वाला है. दरअसल, फिल्म ये बताने की कोशिश करती है कि इस देश में जुगाड़ तकनीक से आप कोई भी बड़े से बड़े काम कर सकते हैं. पहले इस तरह के चुटकुले लालू यादव के लिए इस्तेमाल किए जाते थे. अब उसी परंपरा को मोदी के दर्शन के तहत दिखाने की कोशिश हो रही है.
अगर आप नरेन्द्र मोदी के तमाम भाषण सुनें और देश चलाने के उनके आसान नुस्खों पर गौर करें तो लगेगा कि दुनिया में कुछ भी मुश्किल नहीं है और यही मिशन मंगल का संदेश भी है. फिल्म के अंत में सबसे कम खर्च और कम समय में मंगल पर पहुंचने वाले भारत की उपलब्धि पर मोदी के भाषणों का इस्तेमाल इसका सबूत हैं.
आपको फिल्म कुछ बचकानी सी लग सकती है. स्पेस मिशन एक खेल और मंगलयान एक खिलौने की तरह महसूस हो सकता है. आप ये सोचने को भी मजबूर हो सकते हैं कि आखिर पूरियां तलते तलते गैस खत्म हो जाने और बगैर गैस के गर्म तेल में पूरियां तलते चले जाने का आइडिया कितना जोरदार है. पॉलिथिन के कचरे से मंगलयान के मज़बूत चिप बना लेने या प्रेगनेंसी के दौरान 18 घंटे काम करने का फार्मूला कितना जबरदस्त है. और तो और स्वच्छता मिशन का संदेश देते हुए एक कबाड़ लैब को रातोंरात वैज्ञानिकों की खुद की मेहनत से आधुनिक और बेहतरीन बना देने का मिशन भी कोई कम नहीं. आपको मुसलमानों को लेकर हिन्दू घरों में बसी सोच का नमूना भी मिलेगा.
नेहा सिद्दीकी (कीर्ति कुल्हारी) के किरदार में मुसलमान होने पर किराये का मकान न मिल पाने का दर्द भी दिखेगा. साथ ही एका गांधी के किरदार में नजर आई सोनाक्षी सिन्हा के तौर पर गांधी सरनेम का मज़ाक भी मिलेगा और शादी से पहले संबंध बना लेने की बिंदास युवा सोच भी दिखेगी.
एक घरेलू महिला की जिम्मेदारी निभाती हुई तारा शिंदे (विद्या बालन) का मजबूत किरदार जब एक वैज्ञानिक के तौर पर मिशन मंगल के लिए सामने आता है तो सबको पीछे छोड़ जाता है. वहीं युवा वैज्ञानिक बनीं कृतिका अग्रवाल (तापसी पन्नू) ने भी अपने सैनिक पति की देखभाल के साथ साथ देश के प्रति अपनी जिम्मेदारी को ठीक से जीने की कोशिश की.
फिल्म को फिल्म की तरह देखें तो मज़ा आएगा. कई बार आपको खबरिया चैनलों पर मिशन मंगल के लांच को लाइव देखने का एहसास भी मिलेगा. बतौर निर्देशक जगन शक्ति की यह पहली फिल्म है. इससे पहले जगन आर बालकी की फिल्म पैडमैन में सहायक निर्देशक के तौर पर काम कर चुके हैं. उसी दौरान उन्हें मिशन मंगल बनाने का आइडिया भी आया था.
दर्शक सिनेमाघरों से किसी तनाव के साथ बाहर निकलते नहीं नजर आए. बच्चे किसी साइंस फिक्शन देखने के एहसास के साथ हंसते मुस्कराते नज़र आ रहे थे. इसलिए अगर ये फिल्म 200 करोड़ के क्लब में शामिल होती है तो ताज्जुब नहीं होना चाहिए.