मोदी सरकार की ‘वादा फ़रामोशी‘ के दस्तावेजी सबूत
देश में बने चुनावी माहौल और चुनावी घोषणापत्रों के शोर शराबे, वादों एवं उपलब्धियों के चुनावी शोर के बीच सरकार के वादों और दावों की तथ्यात्मक पड़ताल करती एक महत्वपूर्ण पुस्तक प्रकाशित हुई है, वादा फ़रामोशी. तीन आरटीआई एक्टिविस्ट दोस्तों शशि शेखर, संजॉय बासु और नीरज कुमार ने विभिन्न मंत्रालयों और विभागों से सूचना अधिकार अधिनियम के माध्यम से प्राप्त सूचनाओं के आधार पर इस पुस्तक को तैयार किया है.
अपने नाम, वादा फ़रामोशी के मुताबिक ही यह पुस्तक मौजूदा सरकार के द्वारा किए गए वादों और वादों के अनुसार शुरू की गई योजनाओं की उपलब्धियों के झूठ को उजागर करने का काम करती है.
वर्तमान सरकार के दौर में सूचना अधिकार अधिनियम को कमजोर करने का काम किस प्रकार किया गया है उसकी साक्षी सूचना आयुक्त की नियुक्ति को लेकर उच्चतम न्यायालय द्वारा कई बार सरकार को लगाई गई फटकार है. उसके बावजूद भी मौजूदा सरकार से सटीक जानकारी हासिल कर पाना और संग्रहित करके प्रकाशित कर पाना बेशक धैर्य और हिम्मत का काम था परंतु इस पुस्तक को पढ़कर यह कहा जा सकता है कि तीनों लेखकों ने तमाम रूकावटों और चुनौतियों के बावजूद भी यह काम बड़ी लगन और धैर्य के साथ किया है.
पुस्तक विमोचन के मौके पर दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल भी मौजूद थे Pic Courtesy- Mahesh Rathi
पुस्तक मोदी सरकार की ‘वादा फ़रामोशी‘ को कुल छह खण्डों में विभाजित करती है और प्रत्येक खंड में दो से लेकर छह चैप्टर हैं जिसमें सिलसिलेवार ढंग से सूचनाओं को इस तरह से दर्शाया गया है कि सरकार से प्राप्त सूचनाएं ही सरकार के झूठे दावों की ना केवल पोल खोलकर रख देती हैं बल्कि कई बार तो यह जान पड़ता है कि जैसे किसी योजना की सफलता विफलता नहीं बल्कि किसी घोटाले की कहानी को पढ़ रहे हैं.
योजनाओं के इस प्रकार घोटाला हो जाने का सबसे सटीक उदाहरण पुस्तक के तीसरे खंड के चौथे चैप्टर में दी गई प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना है.
दरअसल, यह योजना नोटबंदी के भयावह नतीजों और विफलता को ढकने के लिए शुरू की गई थी. नोटबंदी का राजनीतिक लक्ष्य कुछ भी रहा हो परंतु प्रधानमंत्री मोदी ने नोटबंदी लागू करते हुए कहा था कि मुझे 50 दिनों की मोहलत दें, देश में से कालाधन खत्म हो जाएगा, आतंकवाद पर रोक लग जाएगी और नक्सलवाद पर भी नकेल लग जाएगी परंतु 50 दिन बीतने पर भी कुछ नहीं हुआ बल्कि सैंकड़ों लोग नोटबंदी की वजह से अपनी जान से हाथ धो बैठे थे. इस कारण से लोगों में गुस्सा पनप रहा था और बैचेनी बढ़ती जा रही है थी.
इसी गुस्से और बैचेनी को कम करने के लिए इस प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना की घोषणा की गई थी. इस योजना से यह संदेश देने की कोशिश की गई कि अमीर बेईमानों से धन लेकर गरीबों के कल्याण में लगाया जायेगा.
असल में, प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना अघोषित आय को स्वैच्छा से घोषित करने और उस घोषणा से प्राप्त सरचार्ज और जुर्माने से प्राप्त राशि को गरीब कल्याण के लिए इस्तेमाल करने की योजना है. मोदी सरकार द्वारा यह योजना दिसम्बर 2016 से 10 मई 2017 तक चलाई गई थी.
इस योजना के तहत अघोषित आय को घोषित करने वाले व्यक्ति को घोषित की जा रही कुल आय का 30 प्रतिशत कर, 10 प्रतिशत जुर्माना और 30 प्रतिशत का 33 प्रतिशत सरचार्ज के रूप में देना होता था. भारत सरकार के राजस्व विभाग से प्राप्त सूचना के अनुसार सरकार को इस योजना से 2066 करोड़ की प्राप्ति हुई और सरकार के समेकित कोष में जमा करा दिया गया. उसे कैसे खर्च किया गया अथवा किन गरीबों का क्या कल्याण उस धनराशि से किया गया इस बारे में मोदी सरकार का कोई भी विभाग जानकारी देने में कामयाब नहीं रहा.
इसके अलावा मोदी के महत्वकांक्षी नारे ‘‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ” की असलियत भी यह किताब परत दर परत खोलती है. जिस निर्भया फंड के लिए सरकार ने 3600 करोड़ दिए उसमें 3 अगस्त 2018 तक महज 979.70 करोड़ ही जारी किए गए जिसमें से 825 करोड़ पांच प्रमुख कार्यों के लिए हैं. इन पांच प्रमुख कामों में इमरजेंसी रिस्पॉन्स सिस्टम (ईआरएसएस), सेंट्रल विक्टिम कंपंसेशन फण्ड, इंटीग्रेटेड इमरजेंसी रिस्पॉन्स मैनेजमेंट सिस्टम, वन स्टॉप सेंटर, महिलाओें और बच्चों के खिलाफ साइबर अपराध की रोकथाम के इंतजाम आदि प्रमुख काम थे.
इस मोर्चे पर मोदी सरकार ने कितना काम किया यह केवल इंटीग्रेटेड इमरजेंसी रिस्पॉन्स मैनेजमेंट सिस्टम बनाने की पड़ताल से ही पता चल जाता है. महिला एवं बाल कल्याण राज्य मंत्री के हवाले से पुस्तक कहती है कि इस मंत्रालय ने रेल मंत्रालय को 2016-17 और 2017-18 में क्रमश 50 और 100 करोड़ जारी किए परंतु जब रेल मंत्रालय से जानकारी मांगी गई तो उसने जवाब दिया कि उसके पास केवल 50 करोड़ रुपये ही पहुंचे हैं. यह मोदी सरकार के विभिन्न मंत्रालयों की चमत्कारिक कार्यशैली है कि शास्त्री भवन से चले 150 करोड़ रूपये 400 मीटर की दूरी पर स्थित रेल भवन तक 50 करोड़ रूपये ही रह गए. यह विकासवादी मजबूत सरकार के बेहतरीन प्रदर्शन का नमूना है.
वादा फरामोशी के मुताबिक कमोबेश यही हाल प्रधानमंत्री मातृ वंदना योजना का भी है. गर्भावस्था के दौरान होने वाला कुपोषण और खून की कमी, भारतीय महिलाओं की पूरी जिंदगी को बीमार बना देती है जिससे निकल पाना उनके लिए कभी आसान नहीं होता. गर्भवती महिलाओं की सेहत को ध्यान में रखकर कभी इंदिरा गांधी मातृत्व सहयोग योजना बनाई गई थी परंतु सत्ता में आते ही मोदी सरकार ने इसका नाम बदलकर पहले तो प्रधानमंत्री मातृत्व वंदना योजना (पीएमएमवीवाई) कर दिया और इसे देशव्यापी बनाने के नाम पर इसमें दी जाने वाली सहायता राशि को 6 हजार से घटाकर 5 हजार कर दिया और साथ ही दो की जगह तीन किस्तों में देने का प्रावधान कर दिया गया. इसके अलावा योजना शुरू होने के बाद केवल दो प्रतिशत लाभार्थी ही इसका लाभ ले पाये हैं.
यह उपरोक्त योजना की विफलता का एक पहलू है परंतु इससे भी मजेदार और कहें कि भयावह इस योजना का दूसरा पहलू है. 30 नवंबर तक लगभग 18 लाख 82 हजार लोगों को देने के लिए इस योजना के तहत 1655.83 करोड़ रूपये जारी किए गए लेकिन इन 1655.83 करोड़ रुपये को बांटने के लिए आश्चर्यजनक ढंग से 6966 करोड़ रुपये खर्च किए गए अर्थात एक सौ रुपये को देने के लिए साढ़े चार गुना खर्च.
अब अलग अलग राज्यों में इस खर्च का ब्योरा देखें तो हालात और भी आश्चर्यजनक हैं. ओडिशा में 25 हजार रुपये बांटने के लिए खर्च हुए 274 करोड़, असम में 11.58 करोड़ बांटने के लिए खर्च हुए 410 करोड़ रुपये, गुजरात में 96.15 करोड़ को बांटने के लिए आंगनवाडी पर 297. 21 करोड़ अतिरिक्त खर्च किए गए. केरल एक ऐसा राज्य था जिसमें 64.66 करोड़ बांटने के लिए महज 71.06 करोड़ रुपये आंगनवाडी को अतिरिक्त दिये गए. वादा फरामोशी के लेखकों ने इस अध्याय को ठीक ही नाम दिया है, सहायता चवन्नी, सहायता देने पर खर्च रुपैया.
बहरहाल, इस योजना से गरीबों का कोई फायदा अथवा लेना देना बेशक नहीं था परंतु आरटीआई से प्राप्त जानकारी से यह जरूर पता चल गया कि यह योजना गरीबों के लिए है इसे प्रचारित करने के लिए मोदी सरकार ने 60 करोड़ से अधिक खर्च कर डाले. यह योजना ना केवल मौजूदा सरकार की जुमलेबाजी बल्कि कहें तो उसकी पूरी कार्यशैली का पता दे देती है कि कैसे धारणाओं अर्थात पर्सेप्शन की राजनीति करके जनता को मूर्ख बनाया जा सकता और बाद में अपने उसी झूठ अथवा कहें कि घोटाले को अपनी उपलब्धियों के बतौर पेश किया जा सकता है.यह एक योजना हमें बता जाती है कि ढीठ होना किस प्रकार मौजूदा दौर की राजनीति में सफलता की एक अनिवार्य शर्त है और यही ढिठाई राजनीति के मोदी युग का विशिष्ट गुण है.
छह खंडो में विभाजित पुस्तक के विभिन्न अध्यायों को लेखक त्रय द्वारा दिये गए शीर्षक सटीक एवं सार्थक होने के साथ ही बेहद रोचक भी बनाते हैं, मसलन कि मां गंगा ने इसलिए तो नहीं बुलाया था. पुस्तक का यह शुरुआती अध्याय मोदी के वराणसी में अवतरण के समय छोड़े गए जुमले और गंगा की दुर्दशा को तथ्यात्मक रूप से उजागर करता है तो इसी प्रकार मोदी के नारे ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ की हकीकत महज प्रचार से न बेटी बचेंगी, न बेटी पढ़ेंगी नामक लेख से उजागर हो जाती है. “काहे का बंधु, काहे का कल्याण, बदलता है बस योजनाओं का नाम”, “एकलव्य का अंगूठा आज भी कट रहा है”, “सौ एयरपोर्ट की सच्चाई…..हवा-हवाई…हवा-हवाई”, “जल क्रान्ति की भ्रांति”, “विद्यांजलि को क्यों असमय देना पड़ी श्रद्धांजलि”, “बेरोजगारी राजनीति का सबसे बड़ा रोजगार” जैसे विभिन्न अध्यायों के ऐसे शीर्षक हैं जो ना केवल मोदी सरकार की विभिन्न योजनाओं की विफलताओं की खबर दे जाते हैं बल्कि उनमें रोचकता के साथ विरोधी नारों की विपक्षी गूंज और प्रतिपक्ष होने का लेखकीय धर्म भी परिलक्षित होता है.
इसके अलावा छह खंडों को दिए गए शीर्षक भी थोड़ा अनूठे और सटीक हैं. पहला अध्याय मां नाम का है जिसमें भगवा राजनीति की दो मांओं को समाहित किया गया है मां गंगा और गाय माता. दूसरा खंड है बेटियां जाहिर है इसमें मोदी के नारे बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ और उससे जुड़ी योजनाओं की हकीकत को कवर किया गया है, तीसरे खंड ‘गरीब’ में समाज के विभिन्न वंचित तबकों से जुड़ी योजनाओं पर फोकस है, चौथे खंड सड़क और संचार में जाहिर है मोदी सरकार की संचार और परिवहन से जुड़ी योजनाओं को जगह दी गई है, पांचवे खंड में स्वास्थ्य और छठे खंड में बेरोजगारी से जुड़ी योजनाओं को जोड़ा गया है.
सैंकड़ों आरटीआई से हासिल सूचनाओं के संकलन के रूप में इस पुस्तक ने लगभग 25 योजनाओं की हकीकत को सामने लाने का काम किया है. किताब की संकल्पना में इस तथ्य को स्पष्ट किया गया है कि इससे भी अधिक ऐसी योजनाएं हैं जिस पर सूचनाएं उपलब्ध नहीं कराई गई और उनके अनेकों सूचना आवेदन केन्द्रीय सूचना आयोग में अटके पड़े हैं.
बहरहाल, इस चुनावी जुमलेबाजी के दौर में वादा फ़रामोशी के लेखकों ने एक सार्थक और ठोस काम किया है परंतु किताब में यदि शिक्षा और सामाजिक न्याय को भी जोड़ा जाता तो यह किताब और अधिक प्रभावोत्पादक होती और समाज के सभी तबकों के सवाल इसमें समाहित होते.
शिक्षा और स्वास्थ्य को जोड़ा जाना संभव भी था क्योंकि शिक्षा के क्षेत्र में मौजूदा सरकार द्वारा की जा रही बजटीय कटौती की सूचनाएं काफी हद तक उपलब्ध हैं. ठीक यही स्थिति समाजिक न्याय के क्षेत्र में भी है विभिन्न शिक्षा संस्थानों और कई राज्यों में वंचित तबकों से आने वाले छात्र पहले से इस क्षेत्र में सक्रिय हैं और मामूली प्रयास से ही ऐसी ढेरों सूचनाएं उपलब्ध करा सकते थे. हालांकि इसके बावजूद भी इस पुस्तक को एक महत्वपूर्ण और सराहनीय पहल कहा जाएगा जो तथ्यों के साथ मौजूदा सरकार के वादो की पोल खोलती है.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)