फोटोग्राफ: फिल्म की अनूठी लव केमिस्ट्री आपको खींचती है


review of film photograph

  Poetic License Motion Pictures

निर्देशक: रितेश बत्रा
लेखक: रितेश बत्रा
कलाकार: नवाज़ुद्दीन सिद्दकी, सान्या मल्होत्रा, विजय राज, फारुख जफ़र, गीतांजली कुलकर्णी

फोटो किसी भी इन्सान से जुड़ी इकलौती ऐसी चीज है जो वक्त बदल जाने के बाद भी नहीं बदलती. किसी भी फोटोग्राफ में कैद चेहरे पर न तो वक्त की झुर्रियां पड़ती हैं, न कभी रंग धूसर होते हैं और न चेहरा ही बेनूर होता है. ऐसी ही खासियत वाले फोटोग्राफ को मेन थीम बनाकर निर्देशक रितेश बत्रा एक बार फिर से बहुत सादी लेकिन दिन को छूने वाली फिल्म लेकर आए हैं ‘फोटोग्राफ’.

रितेश बत्रा इससे पहले ‘द लंचबॉक्स’, ‘द सेन्स ऑफ एन एंडिंग’ या ‘ऑवर सोल्स एट नाइट’ जैसी फिल्में बना चुके हैं. रितेश ऐसी कहानी बुनते हैं जहां लोगों को किसी अनदेखे, अनजाने, नितांत अपरिचित शख्स, दोस्त या चेहरे में स्नेह मिलता है और अपने अनकहे अकेलेपन से राहत मिलती है. रितेश बत्रा कहीं भी चुपचाप घट जाने वाले प्रेम को पर्दे पर उतारने में माहिर हैं. उनका प्रेम जीवन में बिन कोई भी बड़ी उठा-पटक किए जीवन की रफ़्तार के साथ सांस लेने में यकीन रखता है. यही उनके प्रेम अभिव्यक्ति की सबसे अनोखी खासियत है, जो उन्हें बाकि सबसे अलग करती है.

जैसा रिश्ता इला (सिमरत कौर) और साजन (इरफान) ‘द लंचबॉक्स’ में शेयर करते हैं, कुछ वैसा ही रिश्ता ‘रफीक’ (नवाज़ुद्दीन सिद्दकी) और ‘मिलोनी’ (सान्या मल्होत्रा) फिल्म ‘फोटोग्राफ’ में जीते हैं. ये दोनों एक दूसरे की ज़िंदगी के अकेलेपन को कुछ इस तरह से भरते हैं जो कोई और नहीं भर पाता. इस फिल्म में ये जोड़ी भले ही मिल नहीं सकती, लेकिन जब तक वो साथ हैं, एक दूसरे को उम्मीद और खुशी देते रहते हैं.

निर्देशक रितेश बत्रा की पिछली फिल्म ‘द लंचबॉक्स’ को दुनिया भर के फिल्म फेस्टिवल में सराहना मिली थी. इस फिल्म को भले ही बॉक्स ऑफिस पर सफलता न मिली हो लेकिन उसे फिल्म की भारत की सर्वश्रेष्ठ फिल्मों में गिना गया था. ‘फोटोग्राफ’ फिल्म का भी बॉक्स ऑफिस पर चाहे जो भी हश्र हो, लेकिन रितेश की इस फिल्म को सनडांस और बर्लिन फिल्म फेस्टिवल में सराहना मिली है.

‘फोटोग्राफ’ फिल्म की कहानी रफीक (नवाज़ुद्दीन सिद्दकी) और ‘मिलोनी’ (सान्या मल्होत्रा) की है. रफीक एक स्ट्रीट फोटोग्राफर है जो गेटवे ऑफ इंडिया के इर्द-गिर्द फोटो खींच के अपनी रोजी-रोटी चलाता है. रफीक और उसकी दादी एक दूसरे से बेइन्तहा प्यार करते हैं. रफीक की दादी उसकी शादी करना चाहती हैं, लेकिन वह इसके लिए तैयार नहीं है. दूसरी तरफ मिलोनी एक टॉपर है और अच्छी गुजराती फेमिली से ताल्लुक रखती है. एक दिन वह मिलोनी की तस्वीर क्लिक करता है. और कहता है ‘सालों बाद भी आपकी ये तस्वीर ऐसी ही रहेगी, बाकी सब बदल जाएगा तब भी’. यही इन दोनों की पहली मुलाकात थी.

ये दोनों ही काफी रिजर्व और शर्मीले किस्म के इन्सान हैं. रफीक अपनी दादी के शादी के दबाव से बचने के लिए मिलोनी को अपनी प्रेमिका के तौर पर मिलवा देता है. रफीक और मिलोनी के बीच जबर्दस्त आर्थिक, धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक फांसले हैं. लेकिन फिर भी दोनों एक दूसरे की तरफ खिंचते हैं. देखा जाए तो फिल्म दो सवालों के इर्द गिर्द घूमती है, कि कैसे दो अलग-अलग तरह के लोग आपस में तालमेल बिठाते हैं और क्यों?

एक्टिंग की बात करें तो नवाजुद्दीन सिद्दीकी बिना कुछ खास किए ही पर्दे पर बहुत कुछ कर गुजरते हैं. नवाजुद्दीन बिन किसी प्रयास के रोल के मुताबिक ढलने में उस्ताद हो चुके हैं. उनके चेहरे पर प्रेम, रोमांस, शर्माने के भाव इतनी सहजता से आते हैं कि लगता ही नहीं वे एक्टिंग कर रहे हैं. सान्या मल्होत्रा भी मिलोनी के किरदार में स्क्रीन पर बेहतरीन एक्टिंग की छाप छोड़ने में कामयाब रहीं हैं. एक शर्मीली, शांत और घर वालों के हिसाब से ढलने वाली लड़की के किरदार को उन्होंने बखूबी साधा है.

कुछ-कुछ सीन में गीतांजली कुलकर्णी दर्शकों का दिल चुरा लेंगी. आकाश सिन्हा, गीतांजली कुलकर्णी और विजय राज़ के छोटे छोटे किरदार भी कहानी के साथ मेल खाते हैं. लेकिन फारुख ज़फर (दादी) इस पूरे कास्ट में सबसे ताकतवर दिखती हैं और अपनी अभिनय क्षमता से सब पर हावी सी दिखती हैं. दादी पूरी फिल्म में अपने संवादों के माध्यम से हंसी-मज़ाक पैदा करती रहती हैं, जो फिल्म को हल्का-फुल्का बनाए रखने में मदद करता है. दादी का पोते के लिए लड़की ढूंढने की ज़िद, फिर दवा छोड़ना और फिर भूख हड़ताल पर चले जाना कहानी में एक फन पैदा करता है. नवाज़ और दादी के बीच के सवांद बेहद ज़िंदादिल और कहीं-कहीं समझदारी भरे से हैं, जो सुनने में अच्छे लगते हैं.

रितेश बत्रा ने अपनी फिल्म के खूबसूरत फ्रेम में ये दिखाने की कोशिश की है कि अलग-अलग धर्म और क्लास में बावजूद हद दर्जे की विभिन्नताओं के काफी समानताएं भी होती हैं. फिल्म की डिटेल पर उन्होंने बहुत काम किया है. फिल्म में एक अकाउंट्स टीचर है और उसकी क्लास का चित्रण बेहद खूबसूरती से किया गया है. रफीक और उसके दोस्त के कमरे को भी बहुत डिटेल से दिखाया गया है और ये डिटेलिंग ही इस फिल्म को मुंबई की कहानी बना देती है. मुम्बई के आम आदमी, कामगर तबके, रोजी-रोटी के लिए रफ्ता-रफ्ता घिसते असंख्य लोगों के जीवन को रितेश जिस बारीकी से अपनी फिल्मों में दर्शाते हैं वह उनकी फिल्म को खास अंदाज में ‘बम्बईया’ बना देता है!

‘फोटोग्राफ’ फिल्म की सबसे खास बात ये है कि इसमें किसी को प्रभावित करने की कोशिश नहीं की गई है. इस फिल्म की कहानी को सवालों और जवाबों से परे रखा गया है. यहां सिर्फ दो करेक्टर्स हैं, जिनमें तमाम हद दर्जे के फांसलों के बावजूद काफी कुछ एक जैसा हैं जो उन्हें एक दूसरे की तरफ खींचता है. फिल्म बाहरी विविधता को किनारे करके भीतरी एकरसता के हिसाब से चलने और अपने बीच की नई केमिस्ट्री क्रियेट करने पर फोकस करती है.

इस फिल्म ढेर सारे छोटे-छोटे पलों को बेहद खूबसूरती से कैद किया गया है. स्मार्टफोन, ईमेल, फेसबुक, इन्स्टाग्राम और वाट्सएप वाले इस जमाने में रितेश बत्रा को प्रेम की अभिव्यक्ति के पुराने तरीके ही खींचते हैं. तभी फिल्म ‘लंच बॉक्स’ में भी ख़त नुमा हाथ का लिखा एक छोटा सा पुर्जा न सिर्फ फिल्म के पात्रों के बीच, बल्कि दर्शकों के भीतर भी प्रेम की गहरी ऊष्मा जगाने में सफल हो जाता है. इस फिल्म में भी मिलोनी को जब लैंडलाइन पर रफीक से बात करते हुए दिखाया जाता है तो लगता है जैसे फ्रेम के साथ-साथ वक्त भी थम सा गया हो.

जैसे जिंदगी और प्रेम में सभी कुछ बहुत अप्रत्याशित और सकारात्मक सा घटते रहने की उम्मीद बंधी रहती है, कुछ वैसे ही ये फिल्म भी लगती है. ‘द लंच बॉक्स’ जैसी फिल्म को पसंद करने वाले लोगों को ये फिल्म जरूर पसंद आएगी. लेकिन अगर आपको सवाल-दर-सवाल करने और उनके जवाब ढूंढ़ने की आदत है तो ये फिल्म आपको निराश कर सकती है.


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