सोनचिड़िया: तीखे वजनी संवाद और कमाल का अभिनय
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निर्देशक: अभिषेक चौबे
कलाकार: मनोज वाजपेयी, सुशांत राजपूत, भूमि पेडनेकर, रणवीर शौरी, अशुतोष राणा
स्क्रीन प्ले: अभिषेक चौबे, सुदीप शर्मा
डॉन से पहले हिन्दी फिल्मों में डाकुओं ने राज किया है! गंगा जमुना, खलनायक, शोले, पान सिंह तोमर, बैंडिट क्वीन कुछ ऐसी ही फिल्में हैं जो डाकुओं के खौफ को पर्दे पर उतारती हैं. वैसे तो इन सभी फिल्मों में नायक बने डकैतों ने काफी दमदार भूमिका निभाई है, लेकिन ‘शोले’ के ‘गब्बर सिंह’ का कैरेक्टर आज भी सबसे ज्यादा चर्चा का हिस्सा बनता है. डाकुओं पर बनी इन फिल्मों के द्वारा ही आम लोग डाकुओं के जीवन और उनके द्वारा दूसरों के जीवन में मचने वाली खलबली को जान सके हैं.
मध्य प्रदेश में बहने वाली चंबल नदी के आस-पास का इलाका डाकुओं का गढ़ माना जाता रहा है. इस इलाके के डाकू खुद को ‘बागी’ कहते हैं. ‘सोनचिड़िया’ फिल्म एक बार फिर उन्हीं बागियों की बीहड़ दुनिया के रोमांचक सफर पर हमें लेकर जाती है. निर्देशक अभिषेक चौबे ने इन बागियों के जीवन को काफी खूबसूरती से बडे़ पर्दे पर उतारा है.
फिल्म डाकुओं के एक गिरोह के मुखिया मान सिंह (मनोज बाजपेयी) के इर्द-गिर्द बुनी है. उसी गिरोह में दो और मुख्य किरदार हैं, लखना (सुशांत सिंह राजपूत) और वकील सिंह (रणवीर शौरी). और इस गिरोह के पीछे हाथ धोकर पड़ा है पुलिस वाला वीरेंद्र सिंह गुज्जर (आशुतोष राणा). गुज्जर की इस गुट से एक निजी दुश्मनी भी है. इन सब किरदारों के चलते जो ट्विस्ट एंड टर्न्स हैं वे तब और भी बढ़ जाते हैं, जब एक लड़की इंदुमती (भूमी पेडणेकर) इनके साथ हो लेती है. इंदुमती के साथ 12 साल की एक लड़की सोनचिड़िया जो चाइल्ड एब्यूज़ का शिकार है कहानी का हिस्सा बनती है.
‘इश्कियां’ और ‘उड़ता पंजाब’ जैसी फिल्मों से अपने सिनेमा का एक अलग दर्शक वर्ग बना चुके निर्देशक अभिषेक चौबे की खासियत, जमीनी हकीकत को गिरेबान से पकड़ने की है. इस फिल्म में भी वे चंबल के बागियों की बीहड़ जिंदगी को जिस तरह से पकड़ते हैं वह एक बार फिर चौंकाता है. पहले सीन से आखिरी सीन तक निर्देशक ने कहानी को बारीकी से बुना है. इतना कि दर्शक कहानी की गिरफ्त से खुद को छुड़ाने की कोशिश भी नहीं करना चाहेंगे.
निर्देशक चंबल और वहां की जान रहे बागियों के जीवन को काफी रिअलिस्टिक ढंग से दिखाने में कामयाब रहा है. डाकू कैसे पैदल, भूखे-प्यासे बीहड़ में घूमते हैं और किस तरह पुलिस से बचते-बचाते हुए इधर-उधर बीहड़ में ही छिपते हैं, फिल्म में इसको बड़ी खूबसूरती से दिखाया गया है. साथ ही वर्गभेद और जातिभेद का समाज में किस तरह से एक वर्गीकरण किया गया है और किस तरह यह सब काम करता है इस पर भी फिल्म रौशनी डालती है.
अभिनय की बात करें तो ‘लखना’ के किरदार को सुशांत सिंह राजपूत के जीवन का अभी तक का बेस्ट परफॉर्मेंस कहा जा सकता है. सुशांत सिंह लुक्स और एक्सप्रेशंस से पूरी तरह बीहड़ के बागी लगते हैं. संवाद-अदायगी में भी उन्होंने काफी मेहनत करके असर पैदा किया है. डायलॉग डिलीवरी से लेकर अपने पोस्चर तक को उन्होंने अपने बागी किरदार के अनुसार पूरी तरह ढाला है. 1994 में आई फूलन देवी की बायोपिक ‘बैंडिट क्वीन’ में मान सिंह की भूमिका निभाने वाले मनोज बाजपेयी एक बार फिर से इसी नाम के किरदार को निभा रहे हैं. उनका अभिनय वैसी ही दहशत पैदा करता है. मनोज बाजपेयी डाकू मानसिंह की भूमिका के रूप में आते हैं और अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज करवाते हैं. अपने किरदार में पूरी तरह ढल जाने का उनमें गजब का हुनर है. उनके हिस्से में आए तीखे संवाद उनके किरदार को और भी वजनदार बना देते हैं.
आमतौर पर शहरी किरदारों में दिखते रहे रणवीर शौरी ने ‘वकील सिंह’ के किरदार में सबको चौंका दिया है. वे इस फिल्म के लिए बेस्ट विलेन के अवार्ड्स लेने की तगड़ी दावेदारी पेश करते हैं. पुलिस ऑफिसर के किरदार में आशुतोष राणा जिस तरह से व्यक्तिगत रंजिश के चलते गिरोह का पीछा करते हैं, उसमें वे किरदार के साथ पूरी तरह से न्याय करते दिखाई देते हैं. रणवीर शौरी और आशुतोष राणा ने इस फिल्मों में चार चांद लगा दिए हैं. सिल्वर स्क्रीन पर जब-जब वे आते हैं छा जाते होते हैं. उनकी जगह किसी और एक्टर की कल्पना नहीं की जा सकती.
भूमि पेडनेकर फिल्म-दर-फिल्म खुद को मांज रही हैं और सोनचिड़िया से उनकी चमक और निखरी है. अपने रोल के लिए उन्होंने काफी मेहनत की है. घंटों धूप में बैठना, भारी काम करना जिससे उनमें चंबल की किसी औरत का लुक आ पाए… ये सब किया हुआ उनके किरदार में सफलतापूर्वक झलकता है. अपने टफ लुक में भूमि जबर्दस्त लगती हैं.
सोनचिड़िया के कटाक्ष भरे तीखे संवाद और कमाल का अभिनय इसकी जान हैं. गोलीबारी के एक दृश्य में मनोज बाजपेयी कहते हैं कि ‘सरकारी गोली से कोई कबहौं मरे हैं, मरे तो इनके वादन से है!…भाइयों और बहनों!’ प्रभावी संवादों के शौकीनों की प्यास यह फिल्म अच्छे से बुझाती है! तकनीकी तौर भी सोनचिड़िया काफी मजबूत है. फिल्म की सिनेमेटोग्राफी प्रभावित करती है. अनुज राकेश का कैमरा फिल्म शुरू होते ही दर्शकों को कहानी का हिस्सा बनाने में कामयाब रहता है. उन्होंने जिस तरह से चंबल के बीहड़ को आकर्षक तरीके से पेश किया है वह बेहद सुखद है.
संगीत निदेशक विशाल भारद्वाज एक बार फिर से ‘ओमकारा’ जैसे बांध लेने वाले संगीत के साथ लौटे हैं. वरुण ग्रोवर के शानदार बोल और उन्हें साधती राजस्थानी लोक गायक मामे खान की बुलंद आवाज, फिल्म के ‘बागी रे’ गाने को बहुत ही कर्णप्रिय बना देती है. इसके साथ ही सुखविंदर सिंह, रेखा भारद्वाज और अरिजीत सिंग की आवाजें कानों को सुख देती हैं. गानों के बोल से लेकर, संगीत और मदहोश करने वाली आवाजें ये सब मिलकर फिल्म को संगीत की बेहतरीन जुगलबंदी से नवाजते हैं. कच्ची मिट्टी में सनी और तेज सूरज की आंच में पिघलाती फिल्म का ऐसा सुरीला संगीत एक अच्छा ‘कंट्रास्ट’ है!
फिल्म कहीं भी बुरे कर्मों को ग्लोरिफ़ाई नहीं करती, न ही जस्टिफाई करती है और न ही अपराधियों से कोई सांत्वना रखती है. लेकिन फिल्म में डाकुओं के मोराल को इतना हाई दिखाया गया है हिंसा में सने किरदारों से भी आप डूबकर घृणा नहीं कर पाते. हर किरदार का एक मानवीय पहलू दिखाना फिल्म का एक अन्य सशक्त पक्ष है.
फिल्म एक साथ अन्धविश्वास, जातिवाद, चाइल्ड एब्यूज़, महिला हित जैसे कई सोशल मुद्दों को उठाती है. अच्छी बात यह है कि इन सोशल कॉज पर बात करते वक्त फिल्म चिल्लाती नहीं है. फिल्म सोनचिड़िया की सबसे ख़ास बात है इसका फ्रेम दर फ्रेम लाजवाब ट्रीटमेंट. हर एक अभिनेता के जानदार, शानदार, धुआंधार अभिनय और कटीले, प्रभावी संवादों के कारण फिल्म एक बार देखे जाने लायक बन जाती है.