लाल किले का भाषण: स्टेट्समैन नहीं बन पाए पीएम मोदी!
14 अगस्त 1947 को जब दिल्ली में आज़ादी के जश्न की तैयारियों को अंतिम रूप दिया जा रहा था तो स्वतंत्रता आंदोलन के नायक, सुभाष चंद्र बोस के शब्दों में ‘राष्ट्रपिता’ यानी महात्मा गांधी दूर बंगाल में नोआखाली के अंधेरों में अहिंसा का दीप जलाकर उपवास कर रहे थे. जश्न के बाबत पूछने पर बंगाल के मुख्यमंत्री को उन्होंने टका सा जवाब दिया, “चारों तरफ लोग भूख से मर रहे हैं. फिर भी आप चाहते हैं कि इस तरह के विनाश की घटना के बीच कोई समारोह मनाया जाए.”
73वें स्वतंत्रता दिवस पर लालकिले से देश को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ऐसे किसी भी नैतिक संकट से बरी दिखे. कश्मीर घाटी को कैदखाने में बदल जाने का उन्हें न कोई अफसोस दिखा और न इस घड़ी कश्मीरियों के जख्म पर मरहम लगाने का कोई भाषिक प्रयास ही उन्होंने किया. हाँ, अनुच्छेद 370 हटाने के अपनी सरकार के फैसले को पूरी तरह सही ठहराते हुए उन्होंने यह जरूर पूछा कि अगर यह इतना ही जरूरी था तो इसे दूसरी सरकारों ने संविधान में स्थायी बनाने का प्रयास क्यों नहीं किया?
साफ है कि, प्रधानमंत्री मोदी के लिए यह जश्न का मौका है. वे जम्मू-कश्मीर के तीन-तीन पूर्व मुख्यमंत्रियों समेत, भारतीय संविधान के दायरे में हल निकालने की हिमायत करने वाले पूर्व आईएएस शाह फैसल जैसे तमाम नेताओं को नज़रबंद या हिरासत में लेकर धरती के स्वर्ग के अभूतपूर्व विकास का सपना दिखा रहे हैं. उनका भाषण जोरदार है जबकि घाटी में ताली बजाने वालों के हाथ बंधे हैं.
दरअसल, प्रधानमंत्री मोदी के संबोधन की समस्या भी यही है. वे ओजस्वी वक्ता हैं, लेकिन अगर भाषण विश्वास न पैदा कर सके, सत्य की कमी हो, तो फिर नेता ‘स्टेट्समैन’ नहीं हो पाता.
प्रधानमंत्री मोदी ने अपने भाषण में तमाम महत्वपूर्ण बातें कही जो देश के लिए जरूरी भी हैं. आतंकवाद और अलगाववाद पर नियंत्रण, जनसंख्या नियंत्रण, हर घर पानी या प्लास्टिक से मुक्ति जैसे आह्वान पर कोई दो राय नहीं हो सकती, लेकिन जब वे दो ट्रिलयन डॉलर इकोनॉमी को तीन ट्रिलियन डॉलर के लिए अपनी पीठ थपथपाते हैं और पाँच ट्रिलियन डॉलर होने का सपना दिखाते हैं तो आज की वास्तविकता सवाल बन कर खड़ी हो जाती है.
उनके भाषण में इसको लेकर कोई चिंता भी नहीं दिखी जबकि अर्थव्यवस्था बेहद बुरे दौर से गुज़र रही है. विकास दर गिर गई है और मंदी की मार की वजह से कंपनियां उत्पादन घटाने से लेकर छंटनी तक के लिए मजबूर हैं. और यह छंटनी लाखों की तादाद में की जा रही है. यह सब तब है जब बीते पाँच वर्षों से बतौर प्रधानमंत्री उन्होंने ‘ईज़ ऑफ़ डुइंग बिज़नेस’ और विदेशी निवेश को लेकर गुलाबी घोषणाएँ करने में कोई कमी नहीं की.
इसमें शक नहीं कि प्रधानमंत्री मोदी सपनों के सौदागर हैं. बेरोजगारी और आर्थिक मंदी के मारों को जब वे ‘ऊंची छलांग’ और हर ज़िले में ‘एक्सपोर्ट हब’ बनाने जैसा सपना दिखाते हैं तो ताली बजनी स्वाभाविक है. चीफ ऑफ डिफेंस जैसे पद बनाने की लाल किले से की गई घोषणा में सैन्यशक्ति में कुछ अभूतपूर्व जुड़ने का भाव जगता है और तीन तलाक का खात्मा सीधे महिलाओं के न्याय से. लेकिन हकीकत की जमीन पर छंटनी और पछाड़ खाकर विलाप करतीं पहलू खां के घर की महिलाएं हैं जिन्हें वीडियो प्रमाण के बावजूद न्याय नहीं मिल सका और जब आरोपी बरी हुए तो अदालत में जयश्रीराम के नारे लगे.
हद तो यह है कि प्रधानमंत्री मोदी ने अपने भाषण में महान विभूतियों की बात उलटने से भी परहेज नहीं किया. सरदार पटेल अनुच्छेद 370 के रचनाकार थे और डॉक्टर आंबेडकर हिंदू और बौद्ध इलाके भारत के पास रखकर, मुस्लिम बहुल क्षेत्र को पाकिस्तान के साथ-जाने या आज़ाद होने का विकल्प देना चाहते थे, लेकिन मोदी जी ने अनुच्छेद 370 को खत्म करने को ‘उनका सपना’ पूरा करना बता दिया. उनके हिसाब से यह सरदार साहब का ‘वन नेशन’ के सपने को पूरा करना है और अब ‘वन इलेक्शन’ का सपना पूरा करने की बारी है. संघीय गणतंत्र के पैरोकार डॉक्टर आंबेडकर का इस सपने को लेकर क्या विचार हो सकते हैं, समझा जा सकता है.
प्रधानमंत्री मोदी ने महात्मा गांधी की 150वीं जयंती धूमधाम से मनाने की उचित ही अपील की. लेकिन अगर उन्हें याद करते हुए अहिंसा के उनके मंत्र को याद न किया जाए तो यह गंभीर बात है. संयुक्त राष्ट्र संघ ने 2 अक्टूबर को ‘विश्व अहिंसा दिवस’ घोषित किया है, लेकिन मोदी जी ने भारत में उसे ‘स्वच्छता दिवस’ में तब्दील कर दिया है. स्वच्छता अभियान में गांधीजी का चश्मा इस्तेमाल हो रहा है, लेकिन सत्य और अहिंसा का मंत्र जानबूझकर बहस से गायब कर दिया गया है. यह समझना मुश्किल नहीं कि गांधीजी आज होते तो कश्मीर में कर्फ्यूग्रस्त इलाके के लोगों की तकलीफ से जुड़ते, ना कि दिल्ली में जश्न मनाते.
नि:संदेह मोदी शानदार वक्ता हैं. लेकिन वे जो आशाएं जगाते हैं, उन पर विश्वास न करने की वजह ही वजह है.