सारा खेल परसेप्शन का है!
कुछ दिन पहले अंग्रेजी अखबार ‘द हिंदू’ में महेश व्यास का एक लेख छपा. व्यास सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनोमी (CMIE) के प्रबंध निदेशक हैं. हाल के वर्षों में CMIE के सर्वेक्षणों- खासकर रोजगार की हालत के बारे में उसकी तिमाही रिपोर्टों की खूब चर्चा रही है. चूंकि मौजूदा सरकार ऐसे आंकड़ों को दबाए रखने की राह पर चली और विभिन्न कारणों से जारी सरकारी आंकड़ों की विश्वसनीयता संदिग्ध होती गई, वैसे में CMIE के सर्वेक्षण ही अर्थव्यवस्था एवं रोजगार संबंधी असली सूरत के जानने का जरिया बने रहे हैं. महेश व्यास का ये लेख Sanguine amidst slowdown यानी ‘(आर्थिक) गिरावट के बीच भी आशावादी’ शीर्षक से छपा.
लेख में बिगड़ती गई आर्थिक स्थिति का ब्योरा है. मगर जो बात ध्यान खींचती है, वो ये लाइनें हैं, “भारतीय अर्थव्यवस्था के विभिन्न हिस्से विपरीत दिशा में जा रहे हैं, लेकिन भारतीय परिवार ऐसे भविष्य के प्रति आशावान बने हुए हैं जिसमें अधिक रोजगार पैदा होंगे और आमदनी बढ़ेगी.”
गौरतलब यह है कि ये विश्वास विपरीत नतीजों के बावजूद बना हुआ है. महेश व्यास ने बताया कि दिसंबर 2017 में 9.4 प्रतिशत परिवार मानते थे कि रोजगार की सूरत एक साल पहले की तुलना में बदतर है, लेकिन 33.6 फीसदी परिवारों को विश्वास था कि अगले एक साल में हालत सुधरेगी. दिसंबर 2018 में फिर 8.7 फीसदी परिवारों की राय में रोजगार की स्थिति बदतर थी, मगर तब 37.6 प्रतिशत परिवारों का अगले एक साल में हालत सुधरने का भरोसा बना हुआ था. आरबीआई सर्वे के मुताबिक ये आशावाद जुलाई 2019 तक कायम था.
अगर इन तथ्यों को ध्यान में रखें तो फिर हाल के आम चुनाव में आए नतीजों को बेहतर ढंग से समझा जा सकता है. यानी यह समझा जा सकता है कि नरेंद्र मोदी सरकार रोजी-रोजी के मुद्दों पर चौतरफा नाकामी के बावजूद क्यों और भी ज्यादा बड़े बहुमत से सत्ता में लौट आई. यह घटनाक्रम इस बात का सबूत भी है कि आज के दौर में मीडिया और सोशल मीडिया के उपयोग से यथार्थ के विरुद्ध जन-धारणाएं गढ़ी जा सकती हैं. उस हाल में आम लोगों की सोच- खासकर उनकी राजनीतिक प्राथमिकताएं अपनी ठोस स्थितियों से नहीं, बल्कि बनाई गई धारणाओं से तय हो रही है.
आज ऐसा होने के संकेत दुनिया के अनेक ‘लोकतांत्रिक’ देशों में है. यह आम अनुभव है कि ऐसे अलग-अलग देशों में वहां के सामाजिक-सांस्कृतिक विभाजनों या सामुदायिक द्वेष को भड़का कर बहुमत बनाने की कोशिश कर रहे नेता अक्सर “alternative fact” (अलग सच) का जिक्र करते हैं. उनकी कामयाबी का राज यह है कि वे इस कथित वैकल्पिक सच में अपने समर्थक तबकों का भरोसा बनाने में सफल हो रहे हैं. जाहिर है, इस दौर में सारा खेल परसेप्शन का है. आज गढ़ा गया परसेप्शन ठोस आर्थिक और सामाजिक यथार्थ पर भारी पड़ गया है.
लेकिन उसका परिणाम क्या होगा? दरअसल, इसका उत्तर भविष्य के गर्भ में नहीं है. काफी हद तक इसका नतीजा हमारे सामने उभर चुका है. यह नतीजा है सत्ता में जोर-जबरदस्ती की प्रवृत्ति का तेजी से बढ़ना. मार्क्सवादी चिंतक एंतोनियो ग्राम्स्की ने सत्ता के चरित्र का विश्लेषण करते हुए इसके दो रूपों की चर्चा की थी. उनके मुताबिक सत्ता कुछ मौकों पर जोर-जबरदस्ती का रुख अख्तियार करती है, जबकि कुछ दूसरे मौकों पर वह आम-सहमति से संचालित होने का रूप धारण करती है. वह कब-किस रूप में उपस्थित होगी यह सामाजिक शक्तियों (सत्ताधारी वर्ग और शासित वर्ग) के बीच संतुलन की अवस्था से तय होता है. आज यह संतुलन प्रतिकूल दिशा में है. इसकी एक बड़ी वजह उदार लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं से जुड़ी उम्मीदों का टूट जाना है.
आमजन के मन में इन व्यवस्थाओं की प्रासंगिकता तभी बनी रहती, अगर ये आर्थिक और अन्य न्याय का अपना वादा पूरा करती दिखतीं. मगर नव-उदारवादी अर्थव्यवस्था के दौर में वे इस वादे से पीछे हटने लगीं. तकरीबन तीन दशक के अनुभव ने आमजन में इन व्यवस्थाओं की उपयोगिता को संदिग्ध कर दिया. इसी पृष्ठभूमि में जनोत्तेजक (demagogue) नेताओं का उभार हुआ है. इसी दौर में सोशल मीडिया के उदय एवं प्रसार ने उनका काम आसान कर दिया है. उदार लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं से मायूस हुए और उसके कर्ता-धर्ताओं के प्रति आक्रोश का भाव रखने वाले जन-समुदायों को अपनी कथित वैकल्पिक कहानी बेचने में ये नेता कामयाब हो गए हैं. समस्याओं की जड़ें कहीं और बता पाने और समस्याओं के हल के रूप में खुद को पेश करने में उन्हें सफलता मिली है.
मगर इसका परिणाम उनके देशों को भुगतना पड़ रहा है. भारत में अर्थव्यवस्था पर आज जैसा गहरा संकट मंडरा रहा है, वैसा आजादी के बाद कभी नहीं हुआ. ग्रामीण और कृषि संकट के बीच करोड़ों लोगों की आजीविका खतरे में पड़ी हुई है. दूसरे विभिन्न क्षेत्रों में लाखों की संख्या में लोग रोजगार हो रहे हैं. उत्पादन, निवेश, निर्यात, उपभोग का ढहना आज की प्रमुख आर्थिक कहानी है. ये दीगर बात है कि इससे वर्तमान सत्ताधारी पार्टी और उनके नेतृत्व की राजनीतिक संभावनाओं पर कोई उलटा असर नहीं हुआ है.
लोगों के परसेप्शन में नरेंद्र मोदी का नेतृत्व देश को खुशहाली की तरफ ले जा रहा है, जिसके परिणास्वरूप देर-सबेर उनके ‘अच्छे दिन’ का आना तय है. यानी जो असल कहानी है, धारणाएं उसके उलट हैं. ये अंतर्विरोध कब तक हावी रहेगा, ये कहना कठिन है. मगर ये बात आसानी से कही जा सकती है कि ये दौर जितना लंबा खिंचेगा- देश, अर्थव्यवस्था और आमजन की दुर्दशा उतनी ही गहरी एवं व्यापक होती जाएगी.