सड़क से उठती इन आवाजों को सुनें हम!


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अचानक ही सारा देश सड़कों पर उतर आया है! यह गहरी चिंता की भी और बड़ी आशा की भी बात है. जैसे हमारे शरीर में नसों से जीवन का संचार होता है वैसे ही समाज में सड़कों से चेतना का संचार होता है. देश जब-जब सड़कों पर उतरा है तब-तब कुछ नया बना है, कुछ नया घटा है. बैरिस्टर मोहनदास करमचंद गांधी जब जब दक्षिण अफ्रीका में सड़कों पर उतरे और मजदूर-व्यापारियों को लेकर ट्रांसवाल कूच पर चल पड़े तब वहां के इतिहास ने करवट बदली थी; और उन्हीं महात्मा गांधी ने जब साबरमती आश्रम से निकलकर दांडी जाने वाली सड़क पर पांव धरे थे तो गुलामी की धरती दरकी थी. सड़क ऐसे ही चलती है- वर्तमान से भविष्य की ओर!!

और यह भी देखिए कि यह हमारा भविष्य ही है- हमारा छात्र-युवा! कि जो आज सड़कों पर उतरा है- कश्मीर से कन्याकुमारी तक! एक ही आवाज हर तरफ से उठ रही है कि कोई संसद या कोई सरकार देश के नागरिकों से बड़ी नहीं हो सकती है, क्योंकि नागरिकों ने सरकारें बनाई हैं, सरकारों ने नागरिक नहीं बनाए हैं. सरकारें आएंगी, जाएंगी; नागरिक यहीं रहेंगे और नया रचते रहेंगे. हम समझें कि कोई भी दल देश नहीं होता है; कोई भी समाज किसी सरकार का पिट्ठू नहीं होता है.

हमारी नागरिकता सरकार प्रमाणित नहीं, संविधान प्रमाणित है. संविधान कहता है कि भारत में जनमा हर आदमी भारत का नागरिक है; संविधान यह भी कहता है कि भारत की नागरिकता चाहने वाले हर उस आदमी को नागरिकता दी जानी चाहिए जो संविधान में लिखी किसी अयोग्ता का शिकार ना हो. ना धर्म, ना जाति, ना लिंग, ना शिक्षा, ना भाषा, ना बोली, ना रंग- नागरकिता देने में कोई भी सरकार, ऐसा कोई भेद-भाव नहीं कर सकती है. जो सरकार ऐसा करेगी वह असंवैधानिक सरकार होगी; जो सरकार ऐसा कर रही है वह असंवैधानिक सरकार है.

हमारा संविधान यही कहता है और सड़क पर उतरे लोग संविधान की इसी बात को दोहरा रहे हैं. आप गौर से देखेंगे तो पहचान पाएंगे की सड़कों पर उतरे इन लोगों में, इन युवाओं में सभी जातियों-धर्मों के लोग हैं. ये पूरे हिंदुस्तान को, और इस हिंदुस्तान के हर नागरिक को पूरे सम्मान व अधिकार के साथ भारत का नागरिक मानते हैं. कोई भी सरकार हमारी या उनकी या किसी की नागरिकता का निर्धारण करे, यह हमें मंजूर नहीं. इसलिए मंजूर नहीं है कि सभी सरकारों कि तरह ये सरकार भी स्वार्थी है, भ्रष्ट है, संकीर्ण है. ये सांप्रदायिक भी है, जातिवादी भी और मौकापरस्त भी!

यह संविधान से बनी है लेकिन संविधान का सम्मान नहीं करती है, यह वोट से बनी है लेकिन वोट का अधिकार कुछ धर्मों-जातियों-वर्गों तक सीमित करना चाहती है. यह झूठ और मक्कारी को हथियार बनाती है और इतिहास को तोड़-मरोड़ कर अपना मतलब साधना चाहती है. पिछले सालों में इसने हमारे समाज को बांट दिया है, असामाजिक तत्वों कि पौ-बारह है, इसने हमारी शिक्षा-व्यवस्था छिन्न-भिन्न कर दी है, हमारी अर्थव्यवस्था को लकवा मार गया है. सारा विकास कागजी बन कर रह गया है. और अब यह हमारी नागरिकता से खेलना चाह रही है. यह चाहती है कि इस देश में नागरिक ना रहें, सिर्फ उसके वोटर रहें. सत्ता के अपने खेल में यह समाज को खोखला बना देना चाहती है. इसलिए लड़ाई सड़कों पर उतर आई है. जब संसद गूंगी और व्यवस्था संविधान विरोधी हो जाती है तब सड़कें लड़ाई का मैदान बन जाती हैं.

हम गांधी के लोग इस लड़ाई का समर्थन करते हैं क्योंकि जो समाज अपने अधिकारों के लिए लड़ता नहीं है वह कायर समाज होता है, और जल्दी ही बिखर जाता है. इसलिए हम इस लड़ाई का समर्थन करते हैं और इसे आशा से देखते हैं. लेकिन हम सड़क पर उतरे अपने युवाओं से, नागरिक मित्रों से ऊंची आवाज में, साफ-साफ यह भी कहना चाहते हैं की हिंसा हमेशा आत्मघाती होती है. निजी हो या सार्वजानिक, किसी भी संपत्ति का विनाश दरअसल अपने पांव पर कुल्हाड़ी मारने जैसा है. हमारे नारे, हमारे गीत, हमारा जुलूस व हमारा धरना सबमें हमारी नई सोच व नये व्यवहार की झलक होनी चाहिए.

हम पुलिस को अपना दुश्मन नहीं मानते हैं; उन्हें भी समझा कर साथ लेना चाहते हैं. हम चाहते हैं कि पुलिस भी समझे, अधिकारी भी समझें, राजनीतिक दलों के कार्यकर्ता भी समझें, हमारे और उनके मां-बाप भी समझें कि हमारी लड़ाई नया देश बनाने की लड़ाई है. पुराने रास्तों से नया देश कैसे बनेगा भाई! इसलिए हिंसा नहीं, हिम्मत; गालियां नहीं, वैचारिक नारे; पत्थरबाजी नहीं, फौलादी धरना! गोडसे नहीं, गांधी; भागो नहीं बदलो; डरो नहीं, लड़ो; हारो नहीं, जीतो और इसलिए भीड़ नहीं, शांति की शक्ति और संकल्प का हथियार लेकर लड़ने वाली फौज बनो.

जीत निश्चित है- हमारी जीत-अभी जीत!!

गांधीवादी संस्थाओं: गांधी शांति प्रतिष्ठान और गांधी स्मारक निधि की तरफ से जारी बयान.


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