भगत सिंह जरूरी क्यों हैं?
जिस सुबह का ख्वाब भगत सिंह ने देखा था वो अब तक मयस्सर नहीं है. हम आज भी उन्हीं गर्द-ओ-गुबार की ज़िन्दगी में हैं जो किसी भी महान साम्राज्य में एक बदनुमा हकीक़त होती है. सभ्यता के विकास में चारों ओर से कराहती जनता की आह सुनाई देती है. चाहे रोमन और ब्रिटिश साम्राज्य रहा हो या हमारा भारत देश महान.
गरीब, मजलूम अब तक पिसते आए हैं और न मालूम कब तक यही हाल बरकरार रहने वाला है. सबसे दुःख की बात यह है कि अब हालात और भी बदतर होते जा रहे हैं. हम आगे बढ़ने की बजाए उलटी दिशा में लौट पड़े हैं. और नफरत, हिंसा, और पूंजीवाद के विकराल भंवर में फंस चुके हैं.
इतिहास ने ऐसे कई विचारों को जन्म दिया है जो इस तरह की व्यवस्था के खिलाफ खड़ा रहा. शोषण और गैर-बराबरी को खत्म कर मानव मुक्ति का पैरोकार रहा. भगत सिंह भी उनमें से एक हैं. जो अपने ज़िन्दगी के आखिरी लम्हे तक मानव मुक्ति का ही सपना देखते रहे. आज उनके विचारों को सबसे ज्यादा पढ़ने, समझने और उन पर सान चढ़ाने की जरुरत है. वे तमाम नफरत, शोषण और उजरती गुलामी के खिलाफ मुहतोड़ जवाब हैं. एक बेहतर दुनिया के निर्माण के लिए हौसला हैं. भगत सिंह तब भी शोषण के खिलाफ एक ‘पर्चा’ थे और अब भी हैं.
ऐसे दौर के खिलाफ भगत सिंह के विचार जिसे तब की सरकार बहादुर षड्यंत्रकारी और उग्रवादी मानती थी, सबसे ज्यादा प्रासंगिक हैं. सत्ता के खिलाफ षड्यंत्र को लेकर उनका मानना था, “षड्यंत्र उन आदर्शवादी लोगों की कोशिश होती है जो चल रही व्यवस्था की कमियों, अन्याय, और ज़ुल्म को सहन नहीं कर पाते. जो अमीर-गरीब, बड़े-छोटे, जालिम-मजलूम, शासक-प्रजा, पूंजीपति-मजदूर, जमींदार-किसान का फर्क खत्म कर एक जैसे अधिकारों और आज़ादी का दौर लाना चाहते हैं. जो पुरानी, गन्दी और अत्याचारी व्यवस्था को खत्म कर एक नई और सुन्दर व्यवस्था स्थापित करना चाहते हैं…जब तक लोग खुलेआम अपनी दुःख-तकलीफें व्यक्त कर सकते हैं और सरकारी अत्याचारों की पोल खोल सकतें है तब तक कोई षड्यंत्र नहीं करता.”
भगत सिंह पूंजीवाद के विरोधी थे. वह इस व्यवस्था को इंसानी खून चूसने की मशीन कहते थे. उनकी चिंता में गरीबी में भूख से तड़पती लाखों-लाख की आबादी थी. वे जो अपनी मेहनत से तमाम ऐशो-आराम की चीजें तो बनाते हैं लेकिन मयस्सर नहीं कर पाते. यही वजह थी कि उनके लिए आज़ादी महज अंग्रेजों से सत्ता हस्तांतरण नहीं बल्कि आज़ादी के साथ साम्यवाद लाना भी था. ताकि देश फिर से गोरे अंग्रेजों के जाने के बाद काले अंग्रेजों के चंगुल में न फंस जाए. उनका सपना समाज में बराबरी लाना था ताकि कोई किसी का मोहताज़ न हो. सब को काम और उनकी जरूरतें पूरी हो सके. कोई भूखा-नंगा न रहे.
भगत सिंह मानते थे कि अन्याय, गुलामी और गरीबी के खिलाफ हमेशा षड्यंत्र होते रहे हैं. और इतिहास गवाह है कि इन षड्यंत्रों को रोकने और हमेशा के लिए ख़त्म करने का एक ही तरीका है कि दुनिया से गरीबी और गुलामी दूर की जाए और आज़ादी के साथ रोटी के सवाल का इंतजाम हो.
भगत सिंह अपने पूरे लेखन में देश के नौजवानों से संवाद किया. उन्होंंने सामंती, सांप्रदायिक और नफरत के खिलाफ आवाज उठाने की वकालत की.
आजादी के बाद एक बार फिर स्थिति प्रतिकूल है. हाल के दिनों में सामाजिक ताना-बाना तेजी से बदला है. देश में मजहबी नफरत बढ़ा है. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता खतरे में है. और सरकार के खिलाफ बोलने वालों को देशद्रोही कहा जा रहा है.
इस बदले माहौल में भगत सिंह और अधिक जरूरी हो जाते हैं.
भगत सिंह ने कहा था, “हमारी शिक्षा निकम्मी है और फिजूल होती है जब विद्यार्थी-युवा अपने देश की बातों में हिस्सा नहीं लेता..”
देश के कई हिस्सों में मोदी सरकार के खिलाफ छात्र आमने-सामने हैं. जबकि सरकार में हिस्सेदारी रखने वाले प्रदर्शनकारी छात्रों को बता रहे हैं कि वह देश के टैक्सपेयर के पैसे से देश विरोधी गतिविधियों में लगे हैं.
भगत सिंह ने युवाओं को चेतावनी दी थी वो शिक्षा निकम्मी है जो सिर्फ कर्ल्की के लिए हासिल की जाए .
आज देश भर में धर्मांधता और साम्प्रदायिकता का बोलबाला है. मीडिया का बड़ा हिस्सा बिक चुका है. नफरत का माहौल तैयार करने के लिए मीडिया का इस्तेमाल औजार की तरह हो रहा है.
आने वाली ऐसी स्थिति का तापमान भगत सिंह ने पहले ही भांप लिया था, अपने लेखन में वो कहते हैं, “जहां तक देखा गया है, इन दंगों के पीछे साम्प्रदायिक नेताओं का हाथ है. इस समय हिंदुस्तान के नेताओं ने ऐसी लीद की है कि चुप ही भली. अख़बारों का असली कर्त्तव्य शिक्षा देना, लोगों से संकीर्णता निकालना, साम्प्रदायिक भावनाएं हटाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता बनाना था. लेकिन इन्होंने अपना मुख्य कर्त्तव्य अज्ञान फैलाना, संकीर्णता का प्रचार करना, साम्प्रदायिक बनाना, और भारत की साझी राष्ट्रीयता को नष्ट करना बना लिया है.”
अखबार की ऐसी स्थिति को लेकर भगत सिंह के अन्दर काफी चुभन थी. वह लिखते हैं कि भारत की वर्त्तमान दशा पर विचार कर खून के आंसू निकलते हैं. और दिल में सवाल उठता है कि ‘भारत का बनेगा क्या ?
हलांकि वो साम्प्रदायिकता की मूल वजह आर्थिक ही मानते हैं और इसके निदान के लिए आर्थिक दशा में सुधार की वकालत करते हैं. वो लिखते है, “क्योंकि भारत के आम लोगों की आर्थिक दशा इतनी खराब है कि एक व्यक्ति दूसरे को चवन्नी देकर किसी और को अपमानित करवा सकता है. भूख और दुःख से आतुर होकर मनुष्य सभी सिद्धांतों को ताक पर रख देता है. सच है मरता क्या न करता.”
भगत सिंह की बात पर गौर की जाए तो यह आज की परिस्थिति में हू-ब-हू लागू होती है. बढ़ती बेरोजगारी और भुखमरी ने देश को अवसाद के ऐसे मोड़ पर ला खड़ा किया है कि हम ऐसी स्थिति के लिए सरकार की नीतियों को दोष देने की बजाए दूसरों पर थोप रहे हैं. आपस में मार काट कर रहे हैं.
लोगों को साम्प्रदायिक राष्ट्रवाद और धर्मांधता में उलझा दिया गया है. वह सवाल पूछना भूल गए हैं.
प्रगतिशील विचारों की वजह से भगत सिंह अपने समय से बहुत आगे थे. वो जब हिन्दुस्तान में यह सब लिख-पढ़ और कह रहे थे, कोई उस स्तर तक नहीं जा सका था. महज 23 साल की उम्र में ही उन्होंने अपने दौर के तमाम विचारकों को चौंका दिया था. उनके चाहने वाले लाखों की संख्या में बढ़ रहे थे. यहां तक कि अपने विचारों को लेकर उनकी लोकप्रियता गांधी को भी पीछे छोड़ रही थी.
23 मार्च 1931 को अंग्रेजी हुकूमत ने ब्रिटिश पुलिस अधिकारी सैन्डर्स की हत्या मामले में भगत सिंह को फांसी के तख्ते तक पहुंचा दिया. लाहौर जेल में उनके साथ ही उनके क्रांतिकारी साथी राजगुरु और सुखदेव को भी फांसी दी गई थी. तब तक वो ब्रिटिश हुकूमत के लिए सबसे बड़ा खतरा हो चुके थे.
भगत सिंह के फांसी के ठीक 57 साल बाद 23 मार्च को ही पंजाब के क्रांतिकारी कवि अवतार सिंह पाश को खालिस्तान समर्थकों ने गोली मार दी थी. उनकी कविता अपनी गहरी क्रांतिकारी चेतना की वजह से संघर्ष के ऐतिहासिक दस्तावेज हैं.
नामवर सिंह ने उन्हें पंजाबी का ‘लोर्का’ कहा है. लोर्का के बारे में कहा जाता है कि जब उसकी कविता , ‘एक बुलफाइटर की मौत पर शोकगीत’ का टेप जनरल फ्रेंको को सुनाया गया तो जनरल ने आदेश दिया कि यह आवाज़ बंद होनी चाहिए.