ट्रैजेडी के क्लोज़ शॉट्स से कॉमेडी की पारी खेलने वाले महमूद


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बात साल 1956 की है. साधारण चेहरे मोहरे का एक लड़का बॉलीवुड में दस्तक देना चाह रहा था. नाते-रिश्तेदार फिल्मों में थे, उन्हीं में से एक कमाल अमरोही भी थे, जो मिस मैरी नाम की फिल्म बना रहे थे और उस वक्त ऑडिशन के जरिए एक्टरों की तलाश में जुटे थे. महमूद नाम का ये नौजवान भी ऑडिशन के लिए पहुंचा. अमरोही ने ना सिर्फ महमूद को सिरे से रिजेक्ट किया, बल्कि ये भी कहा कि तुम जीवन में अभिनेता नहीं बन सकते. पैसे उधार लो और कोई और व्यवसाय शुरू कर दो.

लेकिन जैसा कि अपने समय के महान अभिनेता चार्ली चैप्लिन ने कहा है, कि फेल होने के लिए भी हिम्मत चाहिए, जो हर किसी के पास नहीं होती. ज़िंदगी के क्लोज़ शॉट्स की ट्रैजडी को महमूद ने लांग शॉट की कॉमेडी बनाया और एक्टिंग की गाड़ी जैसे चल निकली. आज दुनिया उन्हें कॉमेडी के महान कलाकारों में से जानती है. बॉलीवुड में एंट्री के वक्त निर्देशकों की आंखों में उनके लिए अविश्वास ने उन्हें एक चीज़ शिद्दत से महसूस करवा दी कि नए लोगों को मौका देना कितना जरूरी है. शायद इसीलिए उन्होंने अमिताभ बच्चन, अरुणा ईरानी, संगीतकार आरडी बर्मन और राजेश रोशन जैसे नए लोगों की मदद की, कइयों को ब्रेक भी दिया.

जाहिर है अपने संघर्ष के दिनों का ये अहम सबक उन्होंने सीखा था, तभी तो बतौर जूनियर आर्टिस्ट उन्हें मौका देने वाले गुरुदत्त का पोस्टर उनके बेडरूम में ताउम्र चस्पा रहा.

बॉलीवुड में अपनी लकीर कम ही लोग बना पाते हैं. और महमूद इस कतार में सबसे आगे नज़र आते हैं. कॉमेडी को मुख्यधारा की एक्टिंग मानना महमूद की मौजूदगी के बाद ही हुआ. परंपरागत हीरो का रोल करने वालों को लगता था महमूद के आगे उनकी एक्टिंग फीकी लगेगी तभी, कई सुपरस्टार उनके साथ स्क्रीन पर आने में कतराने लगे.

आज जब बॉलीवुड को भी हिंदू-मुस्लिम कैंपों में बांटा जाता है ऐसे में ये जानना अहम है कि महमूद के बारे में कहा जाता है कि वो शिवभक्त थे. अशोक कुमार ने उनसे एक दफा कहा था कि उनके माथे पर त्रिशूल जैसा निशान है, जिसको लेकर उनका विश्वास पक्का फिल्म छोटी बहन की कामयाबी के बाद हुआ, फिल्म में उनके किरदार का नाम महेश था. इसके बाद की कई फिल्मों में उनके किरदार का नाम महेश ही था.

फिल्म कुंवारा बाप महमूद की ज़िंदगी का आइना है. निजी ज़िंदगी में एक पोलियोग्रस्त बेटे के पिता की पीड़ा परदे पर आंखों में बेबसी बन उतरती है. ये एक कलाकार का सच था. एक पिता का सच था. जो खुद को बेटे की बीमारी के लिए जिम्मेदार मानता था. लेकिन इस पर्सनल ट्रैजडी को महमूद ने सीन-दर सीन कॉमिक फ्रेमों के जरिए जीवंत कर डाला. ये उनकी ज़िंदगी की जिंदादिली की कॉमेडी भी साबित हुई.

महंगी कारों और ब्रांडों से लबरेज लाइफ स्टाइल में भी वो वे दिन नहीं भूले जो उन्होंने बसों में टॉफी और अंडे बेचकर बिताए थे. बतौर ड्राईवर फिल्मिस्तान के चक्कर लगाना और आंखों में कामयाबी का सपना सब एक साथ-साथ चलता था.

महमूद दिल के साफ थे, लिहाज़ा बेहद संवेदनशील भी. लोगों की मदद करना, उन पर भरोसा करना उनकी शख्सियत का अहम हिस्सा रहा. लेकिन संवेदनशीलता उस समुद्र की तरह है, जहां एक किनारे पर वो आपको ज्यादा सामाजिक बनाती है तो दूसरी ओर दुनियावी तौर-तरीकों से एकदम अनजान. यही वजह है कि ज़िंदगी के आखिरी सालों में वो अपने करीबियों की बेरुखी को लेकर बहुत आहत महसूस करते थे

ज़िंदादिली और कामयाबी की सीढ़ियां चढ़ने वाले शख्स के लिए ये सीढ़ियां उतरना और उतरने के बाद लोगों की आंखों में अपने लिए वो सहजता ना देखना, जो आपकी खुद की आंखों में हमेशा रही, दुखदायी हो सकता है.

3 जुलाई 2004 को अमेरिका में एक अस्पताल में वो नींद में ही इस दुनिया को छोड़ कर चले गए. लेकिन कई होठों पर हंसी और आंखों में नमी एक साथ छोड़ कर. क्या करें उनका जीवन ही ऐसा था कॉमेडी और ट्रैजेडी के कल्ट से उलझा हुआ. निखरा हुआ.


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