संविधान की बुनियाद पर प्रहार
नरेंद्र मोदी सरकार जो काम संसद से नहीं करवा पाई, अब उसने उसे नियम बदलकर कर दिया है. संसदीय औचित्य के लिहाज से ये कदम संदिग्ध है. मुद्दा यह है कि जो बिल संसद के विचारधीन है, क्या किसी सरकार को उससे संबंधित नियमों में फेरबदल करना चाहिए? क्या ऐसा करना संसद का अनादर नहीं है?
एनडीए सरकार ने 2016 में नागरिकता (संशोधन) विधेयक संसद में पेश किया था. बिल अभी संसदीय स्थायी समिति के पास है. ज्यादातर विपक्षी दल नागरिकता संबंधी नियमों में बदलाव का विरोध कर रहे हैं. चूंकि यह एक संविधान संशोधन विधेयक है, इसलिए फिलहाल राज्य सभा में इसके पारित होने की संभावना नहीं है. तो अब सरकार ने पुराने कानून के तहत ही नागरिकता देने के नियमों को बदल दिया है.
नागरिकता (संशोधन) बिल में यह प्रावधान किया गया था कि पड़ोसी देशों से आने वाले गैर-मुस्लिम शरणार्थियों को भारत की नागरिकता दे दी जाए. यह बात सीधे कहने के बजाए कहा यह गया कि अफ़गानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान से आने वाले हिंदू, सिख, बौद्ध, पारसी और ईसाई शरणार्थियों के लिए नागरिकता की अर्जी के लिए दिए जाने वाले फॉर्म में एक अलग एंट्री कॉलम बनाया जाए. अब नागरिकता अधिनियम-1955 की धारा-18 में बदलाव कर ऐसा करने का प्रावधान कर दिया गया है. यानी गैर-मुस्लिम शरणार्थियों को नागरिकता देने का रास्ता साफ कर दिया गया है.
व्यावहारिक रूप से देखें तो उपरोक्त देशों (खासकर बांग्लादेश) से हिंदू और मुस्लिम शरणार्थी (अथवा घुसपैठिए) ही आते रहे हैं. नियम में ताजा बदलाव का असर यह होगा कि हिंदू शरणार्थियों (अथवा घुसपैठियों) को नागरिकता दे दी जाएगी, जबकि मुस्लिम शरणार्थियों (अथवा घुसपैठियों) को यह सुविधा नहीं मिलेगी. इस तरह ऐसे जो लोग पहले से भारत में मौजूद हैं, उन्हें देश से निकालने का एजेंडा जिंदा रहेगा.
यह बदलाव भारत के संवैधानिक गणतंत्र की बुनियाद पर् प्रहार है. भारतीय संविधान के मुताबिक हमारे गणतंत्र की इकाई नागरिक हैं. नागरिकता के स्वरूप में परिवर्तन का मतलब गणतंत्र के स्वरूप को बदलना है. हमारे संविधान के मुताबिक भारत की नागरिकता देने में धर्म, जाति, नस्ल, लिंग या ऐसे किसी अन्य आधार पर भेदभाव नहीं किया जा सकता. जबकि नागरिकता (संशोधन) कानून में शामिल प्रावधान धर्म के आधार पर भेदभाव करता है. और इसी को लागू करने के लिए अब नियम में बदलाव कर दिया गया है.
नागरिकता की भेदभाव मुक्त व्यवस्था धर्मनिरपेक्षता की बुनियाद है. नए नियम इसी बुनियाद पर प्रहार करते हैं. यह उल्लेखनीय है कि सुप्रीम कोर्ट यह व्यवस्था दे चुका है कि धर्मनिरपेक्षता भारतीय संविधान के मूल ढांचे का हिस्सा है. सर्वोच्च न्यायालय के मुताबिक संविधान के मूल ढांचे में कोई सरकार या संसद फेरबदल नहीं कर सकती. स्पष्टतः नागरिकता के नए नियम ऐसा ही परिवर्तन करते हैं. गहराई में जाकर देखें, तो इस बदलाव का प्रेरक नजरिया यह है कि भारत हिंदुओं का देश है, अतः हिंदू चाहे जिस देश में जन्मे हों, वे स्वाभाविक रूप से यहां की नागरिकता का दावा कर सकते हैं. कहा जा सकता है कि इस बात को अमली रूप देने के लिए सिख, ईसाई, बौद्ध, पारसी आदि धर्मों को ढाल बनाया गया है.
इस बात को समझने की जरूरत है. नागरिकता के नए नियमों का विरोध करने की आवश्यकता है. क्या विपक्षी पार्टियां इसका साहस दिखाएंगी? अगर वे ऐसा नहीं करतीं, तो उन्हें भी भारतीय गणतंत्र के मूल रूप को बदलने में सहभागी माना जाएगा.