ये आग जो लगी है


mob lynching tendency spreading in india

 

अगर दीर्घकालिक नज़रिए से देखने तनिक भी इच्छाशक्ति बची हो, तो बुलंदशहर जिले में हुई भीड़ की हिंसा से दिल्ली और लखनऊ में बैठे हुक्मरानों को बेहद चिंतित होना चाहिए. इस घटना का एक ही निष्कर्ष है-यूपी (वैसे तो देश के बाकी हिस्से भी इससे अछूते नहीं है) में कानून-व्यवस्था पूरी तरह भीड़ के हवाले हो चुकी है. सरकारी संरक्षण में कानून के राज (rule of law) की उपेक्षा करने की प्रवृत्ति अब उस मुकाम पर है, जब भीड़ बेखौफ़ होकर पुलिस को भी निशाना बनाने लगी है.

पुलिस अधिकारी सुबोध कुमार सिंह के परिजनों ने शक जताया है कि सिंह को एक साज़िश के तहत मारा गया. महाव गांव में हुई हिंसा जिन हालात में हुई उससे पूरे घटनाक्रम के पीछे षड्यंत्र के संकेत मिलते हैं. पुलिस अधिकारियों ने इसके लिए बजरंग दल, हिंदू युवा वाहिनी और शिव सेना के कार्यकर्ताओं को जिम्मेदार ठहराया है. (बजरंग दल के जिला संयोजक को इस मामले में मुख्य अभियुक्त भी बनाया गया है.) उत्तर प्रदेश के मंत्री ओम प्रकाश राजभर ने इसमें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का भी नाम जोड़ दिया है. ये सभी वो संगठन हैं, जिन्हें आज की सत्ताधारी पार्टी का सहमना माना जाता है. धारणा यह भी है कि इस नाते उनकी पीठ पर सरकार का हाथ है.

हालिया वर्षों में इन संगठनों और उनसे जुड़े लोगों ने अपने बयानों और व्यवहार में कानून के राज की धारणा, संवैधानिक प्रावधानों और न्यायपालिका को खुलेआम चुनौती दी है. गौ-रक्षा, उग्र राष्ट्रवाद और राम मंदिर सहित कई धार्मिक मसलों को लेकर इन संगठनों ने निडर होकर कानून अपने हाथ में लिए हैं और न्यायपालिका (या न्यायिक फैसलों) का सम्मान ना करने का इरादा दिखाया है. सबरीमला इसका एक उदाहरण है. अयोध्या विवाद पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई टलने के बाद आरएसएस प्रमुख सहित संघ परिवार के नेताओं ने न्यायपालिका के प्रति जैसा रुख दिखाया, वह इस बात की दूसरी मिसाल है. गौरतलब यह है कि सत्ता से शिखर पर बैठे नेताओं ने कभी संवैधानिक एवं कानूनी व्यवस्था के पक्ष में खड़ा होने का इरादा नहीं दिखाया.

बल्कि कई बार इनमें से कुछ नेता अपने कई बयानों में सार्वजनिक मर्यादा और संवैधानिक प्रावधानों का मखौल उड़ाते नज़र आए हैं. गो-रक्षा या उग्र-राष्ट्रवाद के नाम पर होने वाली हिंसा के समय ये सरकारें अगंभीर नज़र आईं. बल्कि आरोप यह है कि सत्ताधारी जमात ऐसी हिंसा या उससे बनी स्थितियों का अपने चुनावी फायदे के लिए इस्तेमाल करने में तत्पर रही है. इन हालात में उनकी सहमना भीड़ जब चाहे भयमुक्त होकर मनमानी करने पर उतर आए, तो उसमें कोई हैरत की बात नहीं है.

लेकिन ऐसी लापरवाही (या रणनीति) शेर पर सवारी करने जैसी होती है. किसी समाज में कानून का राज अगर खत्म हो जाए, तो यह सोचना कठिन है कि वहां कोई व्यवस्था कायम रह सकेगी या कोई सुरक्षित रह पाएगा. इस संदर्भ में ये कहावत अवश्य याद रखनी चाहिए कि आग दोस्त या दुश्मन की पहचान नहीं करती.

भारत जैसे समाज में, जहां सदियों तक कुछ तबकों का सामाजिक-सांस्कृतिक वर्चस्व रहा और वे बेखौफ़ दूसरों पर अपनी मनमानी चलाते रहे, वहां वैसे ही rule of law एक विजातीय पहलू है. भारतीय संविधान ने इस सिद्धांत को अपना कर भारत को आधुनिक एवं न्याय आधारित समाज बनाने का सपना देखा. आज जो कुछ हो रहा है, उससे इस सपने के चकनाचूर हो जाने की आशंका पैदा हो गई है.


दीर्घकाल