मध्यस्थता मांगी किसने थी?
सुप्रीम कोर्ट ने पहले खुद कहा था कि अयोध्या की विवादित जमीन के केस की सुनवाई वह संपत्ति विवाद के रूप करेगा. इसलिए जब सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले की सुनवाई के लिए संविधान पीठ का गठन किया, तो आम तौर पर उस पर अचरज जताया गया. इसलिए कि ये मानने का शायद ही कोई आधार है कि जहां कभी बाबरी मस्जिद थी, उस जगह पर किसका मालिकाना है- इस सवाल का संबंध किसी संवैधानिक पहलू से है. बहरहाल, यह निर्विवाद है कि ये मामला बेहद गंभीर है. इस पर आने वाले फैसले का परिणाम दूरगामी असर होगा. समझा गया कि संभवतः इसी वजह से सर्वोच्च न्यायालय ने संविधान पीठ का गठन किया है.
मगर पिछले महीने सुप्रीम कोर्ट ने कहीं बड़ा आश्चर्य पैदा किया. प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली बेंच ने इस सवाल पर विचार शुरू कर दिया कि क्या बाबरी मस्जिद- राम जन्मभूमि विवाद का हल मध्यस्थता से निकालने की कोशिश की जाए. यह आश्चर्यजनक इसलिए है, क्योंकि विवाद से संबंधित किसी पक्ष ने मध्यस्थता कराने की गुजारिश सुप्रीम कोर्ट से नहीं की थी. न्यायपालिका से अपेक्षा यह रहती है कि किसी भी विवाद पर वह संविधान की भावना और कानूनी प्रावधानों के मुताबिक निर्णय दे. सर्वोच्च न्यायालय का फैसला अंतिम होता है.
अयोध्या विवाद दशकों से एक नासूर बना हुआ है. भारत का हर विवेकशील व्यक्ति इसका यथाशीघ्र अंत चाहता है. मुस्लिम पक्ष ने बार-बार कहा है कि सर्वोच्च न्यायालय का जो भी फैसला हो, उसे स्वीकार्य होगा. केस में शामिल हिंदू पक्ष ने भी इससे इतर बात नहीं कही है, हालांकि हिंदुत्व की राजनीति करने वाले संगठन जरूर यह कहते रहे हैं कि इस मसले का संबंध आस्था से है, जिस पर अदालत फैसला नहीं दे सकती. इसके बावजूद सभी पक्षों को सुप्रीम कोर्ट के निर्णय का इंतजार है.
ऐसे में अपेक्षित यह था कि सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ प्रति दिन के आधार पर सुनवाई करती और जल्द से जल्द अपना निर्णय देने का प्रयास करती. लेकिन फिलहाल कोर्ट ने अपनी निगरानी में मध्यस्थता कराने का फैसला किया है. यहां ये उल्लेखनीय है कि इलाहाबाद हाई कोर्ट ने भी 2010 में इस मामले में ऐसा फैसला दिया था, जिसकी गुजारिश उससे किसी पक्ष ने नहीं की थी. उसे तय यह करना था कि दस्तावेजों और साक्ष्य के आधार पर विवादित जमीन पर किसका स्वामित्व है. मगर उसने विवादित जमीन को तीन भागों में बांटने का फैसला दे कर ‘सर्वमान्य’ हल निकालने की ऐसी कोशिश की, जो किसी पक्ष को मान्य नहीं हुआ.
हाई कोर्ट ने अजीबोगरीब तरीके से ‘राम लला’ (बाल राम की मूर्ति) को भी एक जीवित इकाई माना. विवादित जमीन को तीन भागों में बांटते हुए एक भाग ‘राम लला’ को देने का निर्णय उसने दिया था. कोर्ट के फैसले के मुताबिक एक भाग हिंदू पक्ष और एक भाग मुस्लिम पक्ष को मिलता. इस तरह व्यावहारिक रूप में हिंदू पक्ष को दो तिहाई जमीन मिल जाती. मगर इस निर्णय से ना तो हिंदू पक्ष संतुष्ट हुआ, ना ही मुस्लिम पक्ष. अन्य लोगों को भी यही महसूस हुआ कि साक्ष्य आधारित ठोस निर्णय देने के बजाय हाई कोर्ट ने सद्भाव से हल निकालने का अनपेक्षित, बल्कि अवांछित प्रयास किया है.
अब यही बात सुप्रीम कोर्ट की मध्यस्थता से सहमति बनाने की कोशिश के संदर्भ में भी कही जाएगी. कोर्ट ने मध्यस्थों की जो नियुक्ति की है, वह भी समस्याग्रस्त है. श्री श्री रविशंकर इस मामले में अपनी राय आक्रामक ढंग से जता चुके हैं. इसलिए उन पर दूसरे पक्ष का यकीन बनना कठिन होगा. बाकी दो मध्यस्थ भी किस तर्क से ऐसे उलझे मामले में सहमति बनाने की कोशिश करेंगे, फिलहाल ये समझना मुश्किल है.
सुप्रीम कोर्ट ने मध्यस्थता से हल निकालने के लिए दो महीने का समय दिया है. यानी इस मामले में सारी न्यायिक कार्यवाही दो महीने के लिए टल गई है. इससे सरकार और कई राजनीतिक दल राहत महसूस करेंगे. लेकिन इससे विवाद का हल संभवतः और दूर हो गया है. और बात यहीं तक नहीं है. न्यायपालिका का तय संवैधानिक दायरे से दीगर अपेक्षित भूमिका लेना समस्या-ग्रस्त है. अब इस पर व्यापक बहस की जरूरत है कि क्या संवैधानिक संस्थाओं को ऐसी भूमिका अपनाने की कोशिश करनी चाहिए?