विपक्षी एकता के पेंच
यह कहा जा सकता है कि विपक्षी दलों का राष्ट्रीय महागठबंधन बनाने का सपना ठोस जमीन पर नहीं टिका था. लेकिन अगर विपक्षी दलों की शुरुआती समझ और शरद पवार जैसे अनुभवी नेताओं के बयानों पर गौर करें, तो यह साफ होगा कि विपक्ष ऐसी किसी अति-महत्त्वाकांक्षी कोशिश में जुटा भी नहीं था. इन नेताओं ने ये बात बहुत पहले साफ कर दी थी कि गैर-बीजेपी दलों के बीच तालमेल राज्यों के स्तर पर होगा. अगर इस समझ से देखें तो कई राज्यों में तालमेल हो गया है, बिहार में फिलहाल कुछ पेचीदगियां दिखती हैं, जबकि उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा-आरएलडी के आपस में गठबंधन कर लेने के बाद कांग्रेस अपनी भूमिका और जमीन तलाशने में लगी हुई है.
दिल्ली में कांग्रेस अगर दूरदृष्टि दिखाती, तो आम आदमी पार्टी के साथ वह जोरदार गठबंधन बना सकती थी. लेकिन इसकी संभावना अब धूमिल हो चुकी है. पश्चिम बंगाल में सत्ताधारी तृणमूल कांग्रेस मजबूत ध्रुव है, इसलिए वह किसी से तालमेल करती इसकी संभावना कभी नहीं थी. तब देखने की बात यह बची कि क्या 2016 के विधान सभा चुनाव की तरह मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस और लेफ्ट फ्रंट में सीटों का तालमेल होता है. ऐसी चर्चा है कि तृणमूल नेता ममता बनर्जी भी ऐसी सूरत चाहती थीं, ताकि विपक्ष की पूरी जगह बीजेपी ना हथिया ले. फिलहाल, ऐसा होता नहीं दिखता. मगर यह गौरतलब है कि राज्य में कांग्रेस और लेफ्ट फ्रंट के आधार इलाके अलग-अलग हैं. ऐसे में मुमकिन है कि दोनों पक्षों में दूरी बनने से जमीन पर ज्यादा फर्क ना पड़े.
उत्तर प्रदेश के बारे में भी यह ध्यान में रखना चाहिए कि यहां अभी भी कांग्रेस के पास 7-8 फीसदी वोटों का आधार बचा हुआ है. ये वोट कांग्रेस को मिलते हैं, लेकिन इन वोटों को वह अपने गठबंधन सहयोगियों को ट्रांसफर करवा दे इसकी गुंजाइश नहीं रहती. बल्कि मैदान में कांग्रेस के ना रहने पर ये वोट बीजेपी को चले जाएं, इसकी संभावना ज्यादा रहती है. इसीलिए कांग्रेस के अलग से चुनाव लड़ने से यह मान लेना शायद सही ना हो कि सपा-बसपा-आरएलडी गठबंधन को बहुत बड़ा नुकसान होगा. कुछ सीटों-खासकर अल्पसंख्यक बहुल सीटों पर जरूर कुछ भ्रम पैदा हो सकता है, जो बीजेपी के फायदे में जा सकता है.
इसी तरह आंध्र प्रदेश में चंद्रबाबू नायडू की टीडीपी और कांग्रेस का अलग होने को सियासी जानकारों ने रणनीतिक कदम माना है. समझा गया कि तेलंगाना विधान सभा चुनाव में गठबंधन करने का नुकसान इन दलों को हुआ. उस अनुभव को लोक सभा चुनाव में ना दोहराने की समझ सही दिशा में है. इस बीच महाराष्ट्र, कर्नाटक और झारखंड में वहां के तकाजों के मुताबिक विपक्ष का अधिकतम संभव गठबंधन बना है. महाराष्ट्र में लड़ाई विकट है, इसलिए कोई अनुमान लगाना सही नहीं होगा. मगर कर्नाटक और झारखंड में विपक्ष का पलड़ा भारी रहना चाहिए, ये उम्मीद की जा सकती है.
बेशक बीजेपी कई राज्यों में अपने जूनियर पार्टनरों के साथ तालमेल बिठाने में कामयाब रही है. इसके लिए कई जगहों पर वह झुकी. उसने पिछले चुनावों में अपनी जीती हुई कई सीटों को भी छोड़ा. मसलन, बिहार में अपने खाते की पांच सीटें उसने छोड़ दी. विश्लेषकों ने इसकी एक वजह बीजेपी का डगमगाता विश्वास और उसकी घटती लोकप्रियता को माना है. यह कितना सच है, यह जानने के लिए अभी हमें इंतजार करना होगा. बहरहाल, चुनाव के वक्त इस तरह का लचीलापन दिखाना निश्चित तौर पर बीजेपी की समझदारी भरी चुनावी रणनीति को दिखाता है.
मगर यह ध्यान रखना चाहिए कि सत्ताधारी दल के लिए गठबंधन और तालमेल करना हमेशा आसान होता है, क्योंकि उसके पास देने के लिए काफी कुछ होता है. इस मामले में आज बीजेपी जिस हाल में है, कभी उसी हैसियत में कांग्रेस होती थी. इसके बावजूद अलग-अलग राज्यों में तालमेल हुआ है, जिसका असर वहां चुनाव नतीजों पर हो सकता है। उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में सब कुछ विपक्षी गणित के एकजुट होने पर निर्भर करता है, जबकि दिल्ली में फिलहाल कहा जा सकता है कि कांग्रेस की नासमझी ने यहां की सीटें बीजेपी को तोहफे में दे दी हैं.