जेपीसी की प्रासंगिक मांग
राफेल डील संबंधी याचिकाओं को खारिज करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा, ‘मामले को विस्तार से सुनने के बाद हमें ऐसा कोई कारण नजर नहीं आता कि भारत सरकार द्वारा 36 रक्षा विमान खरीदने के संवेदनशील मामले में हम कोई हस्तक्षेप करें.’ मगर इसके साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने “स्पष्ट किया” कि खंडपीठ के विचार ‘मुख्य रूप से संविधान के अनुच्छेद-32 के तहत अधिकार-क्षेत्र के उपयोग के नजरिए’ से है. भारतीय संविधान के अनुच्छेद-32 के तहत नागरिकों को अपने मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटकाने का हक है.
इसी अधिकार का इस्तेमाल करते हुए नागरिकों ने चार अलग-अलग याचिकाएं दायर की थीं. सुप्रीम कोर्ट ने अब इन्हें खारिज कर दिया है. याचिकाकर्ता इससे संतुष्ट नहीं हैं. उनमें से एक प्रशांत भूषण ने कहा है कि विमानों की कीमत और खरीदारी प्रक्रिया के बारे में सरकार ने सीलबंद लिफाफे में कोर्ट को दस्तावेज सौंपे. चूंकि ये दस्तावेज याचिकाकर्ताओं को नहीं दिखाए गए, इसलिए उन पर अपनी दलील पेश करने का उन्हें मौका नहीं मिला. और बिना उन दलीलों को सुने सुप्रीम कोर्ट ने याचिकाएं खारिज कर दीं.
अपना निष्कर्ष बताने के पहले सर्वोच्च न्यायालय ने न्यायिक परीक्षण के अपने अधिकार-क्षेत्र की चर्चा की. अपने देश में ये मुद्दा विवादास्पद है. संवैधानिक परियोजना के तहत सर्वोच्च न्यायपालिका की भूमिका संवैधानिक प्रावधानों और संसद से बनाए गए कानूनों की व्याख्या करना है. मगर भारत के सुप्रीम कोर्ट ने स्वतंत्र कई रूप से कई सिद्धांत विकसित करते हुए अपने अधिकार एवं कार्य-क्षेत्र को काफी विस्तृत कर लिया है. इतना कि कभी-कभी यह लगता है कि राज्य-व्यवस्था का कोई हिस्सा नहीं है, जो अब उसके निर्णय या टिप्पणियों के दायरे से बाहर हो. बहरहाल, जब कभी सुप्रीम कोर्ट अपने दायरे की बात करता है तो उससे कुल मिलाकर अच्छा अहसास होता है.
बहरहाल, यह समझना कठिन है कि अगर रक्षा संबंधी निर्णय या लड़ाकू विमानों के मूल्य निर्धारण जैसे मामलों में सुप्रीम कोर्ट दखल नहीं देना चाहता था, तो उसने दायर याचिकाओं को बिल्कुल आरंभ में ही खारिज क्यों नहीं कर दिया? उसने इस मामले से जुड़े हर अहम पहलू पर सुनवाई की. इनमें खरीदारी संबंधी निर्णय लेने की प्रक्रिया, मूल्य और ऑफसेट (सहयोगी भारतीय कंपनी का) चयन शामिल हैं. कोर्ट को इन मामलों में ऐसी कोई गड़बड़ी नहीं दिखी, जिससे वह जांच का आदेश देता.
जाहिर है, केंद्र और सत्ताधारी दल ने इसे अपनी जीत के रूप में पेश किया है. लेकिन कांग्रेस के मुताबिक उसका आरंभ से यह मानना था कि ये मामला कोर्ट से तय होने योग्य नहीं है. इसलिए उसकी मांग संयुक्त संसदीय जांच समिति बनाने की रही है. मुद्दा यह है कि क्या ये मांग अब भी प्रासंगिक है?
इसका जवाब जानने के लिए हमें इन सवालों पर गौर करना चाहिए- क्या सुप्रीम कोर्ट के निर्णय से देश को यह मालूम हो गया है कि आखिर 126 से घटाकर सिर्फ 36 विमान खरीदने का फैसला क्यों लिया गया? ये फैसला लेते वक्त क्या तयशुदा प्रक्रिया का पालन हुआ? नए करार के तहत विमानों की कीमत क्या तय हुई? और क्या सहयोगी भारतीय कंपनी का नाम राफेल विमानों की निर्मात देसॉं कंपनी ने बिना किसी दबाव के तय किया? ऐसा था तो सार्वजनिक क्षेत्र की प्रतिष्ठत कंपनी हिंदुस्तान एरॉनोटिक्स लिमिटेड पर उसने एक नव-स्थापित निजी क्षेत्र की कंपनी को क्यों तरजीह दी?
ध्यान रहे कि यहां यह नहीं पूछा जा रहा है कि खरीदे जा रहे विमानों की तकनीकी और युद्ध संबंधी खूबियां क्या हैं? इस प्रश्न का संबंध देश की रक्षा व्यवस्था से है. इसलिए इस पर राष्ट्रीय सहमति है कि इसे सार्वजनिक करने की मांग नहीं की जानी चाहिए. मगर जो जिन बातों का संबंध पारदर्शिता और उठे संदेहों से है, उन पर परदा पड़ा रहे, यह उचित नहीं है. दुर्भाग्यपूर्ण है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बावजूद देशवासी इन बातों से नावाखिफ़ बने रहेंगे. इसलिए सरकार को खुद चाहिए कि वह पारदर्शिता का परिचय देते हुए इस बारे में तमाम संदेहों को दूर करे. वरना, जेपीसी गठन की मांग को देशवासियों के एक बड़े हिस्से का समर्थन मिलता रहेगा.