कर्ज़ सस्ता होने से क्या होगा?
भारतीय रिजर्व बैंक ने मौद्रिक नीति का एलान किया तो लाजिमी है कि रेपो रेट (जिस ब्याज दर पर केंद्रीय बैंक कॉमर्शियल बैंकों को कर्ज़ देता है) में कटौती की ही ज्यादा चर्चा हुई. आम समझ यह होती है कि ब्याज दर कम होगी, तो निवेशक ऋण लेकर निवेश करने के लिए उत्साहित होंगे. निवेश होगा, तो कारोबारी गतिविधियां बढ़ेंगी और उससे अर्थव्यवस्था में गति आएगी.
इसलिए जब कभी ब्याज दर में कटौती होती है, मीडिया में तुरंत यह निष्कर्ष निकाला जाने लगता है कि सस्ते कर्ज से निवेश बढ़ेगा, लोग मकान और ऑटोमोबाइल एवं अन्य टिकाऊ उपभोक्ता वस्तुएं खरीदने के लिए उत्साहित होंगे और इन सबका कुल नतीजा रोजगार एवं खुशहाली बढ़ने के रूप में सामने आएगा.
मगर ये बात अक्सर चर्चा में नहीं आती कि ये अनुमान तभी सच हो सकता है, जब कुछ दूसरी शर्ते भी पूरी होती हों. उनमें सबसे अहम बाजार में मांग की स्थिति है. इस पहलू का संबंध रोजगार और आमदनी की स्थिति से है. अगर रोजगार और आमदनी ना बढ़ रहे हों, तो मांग नहीं बढ़ सकती. और अगर मांग बढ़ने की संभावना ना हो, तो फिर निवेशक किस उम्मीद पर निवेश करेंगे?
यही वो ठोस हालत है, जिसकी वजह से पिछले वर्षों के दौरान कई बार ब्याज दरों में कटौती के बावजूद आम खुशहाली में कोई बढ़ोतरी नहीं हुई. रिजर्व बैंक ने मौद्रिक नीति के ताजा एलान के साथ अर्थव्यवस्था की सेहत के बारे में जो जानकारी दी है, उसे देखते हुए यही लगता है कि इस बार भी ब्याज दर में कटौती से आम अर्थव्यवस्था पर कोई खास फर्क नहीं पड़ेगा.
रिजर्व बैंक ने सीएसओ (केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय) के हवाले से ध्यान दिलाया है कि 2018-19 में सरकारी और निजी दोनों उपभोग में गिरावट आई. पिछले नवंबर-दिसंबर में निवेश संबंधी कुछ संकेतकों में गिरावट दर्ज हुई. इनमें उत्पादन और पूंजीगत वस्तुओं का आयात शामिल है. अनुमान लगाया गया है कि सेवा क्षेत्र के सकल मूल्य संवर्धन (GVA), तथा लोक प्रशासन और रक्षा सेवाओं की वृद्धि दर में गिरावट आएगी.
नवंबर में औद्योगिक उत्पादन सूचकांक गिरा. उपभोक्ता मूल्य सूचकांक में एक साल पहले की तुलना में गिरावट आई है. इसका एक खास पहलू खाद्य पदार्थों की कीमत में कमी आना है. जाहिर है, मुद्रास्फीति का गिरना शहरी उपभोक्ताओं के लिए भले अच्छी खबर हो, लेकिन किसानों और कृषि पर निर्भर आबादी के लिए यह बुरी खबर है. खासकर तब जबकि कृषि लागत से संबंधित मुद्रास्फीति बढ़ी है. साफ है कि किसानों और खेती पर निर्भर समुदायों की मुश्किलें बढ़ती जा रही हैं.
क्या इन हालात में महज ब्याज दर गिरने से अर्थव्यवस्था के अच्छे दिन आने की उम्मीद की जा सकती है? ये बात भी ध्यान में रखनी चाहिए कि ब्याज दर गिरने का मध्य वर्ग पर उलटा असर भी होता है. इससे बैंक या पोस्ट ऑफिस में जमा राशियों पर ब्याज दर गिर जाती है, जिससे उनके निवेश पर अपेक्षित लाभ घट जाता है. जो लोग जमा राशियों के ब्याज से होने वाली मासिक आमदनी पर निर्भर होते हैं, उनकी जिंदगी दूभर होती है. इसलिए विवेकपूर्ण नज़रिया यह है कि मौद्रिक नीति समीक्षा के दौरान दी जाने वाली जानकारियों और इस दौरान होने वाली घोषणाओं को एक साथ रखकर देखा जाए. तभी उसके संभावित व्यावहारिक असर को ठीक से समझा जा सकता है.
समग्र रूप से देखें तो ताजा मौद्रिक नीति महज एक रूटीन कदम के अलावा और कुछ नहीं है. इससे किसी के अच्छे दिन नहीं आएंगे. घिसे-पिटे ढंग से अनुमान लगाकर एक-दो दिन के लिए ऐसी धारणा जरूर बनाई जा सकती है, लेकिन जब कुल हालात बेहद मुश्किल हों, तब ऐसी धारणाएं भी टिकाऊ नहीं होतीं.