विज्ञान का राजनीतिक संदर्भ
भारतीय विज्ञान कांग्रेस में फिर बेतुकी बातें कही गईं. लेकिन इस बार विवेकशील लोगों के बीच उस पर पहले जैसा विस्मय या आक्रोश देखने को नहीं मिला. जाहिर है, इसका कारण यह है कि अब ऐसी बातें अपने यहां आम हो गई हैं. देश, हाई कोर्ट के एक जज के मुंह से यह सुन चुका है कि मोर के आंसू से मोरनी गर्भवती हो जाती है. गुजरे पौने पांच साल में ऐसी “सुक्तियों” और सुर्खियों की कोई कमी नहीं रही है.
खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी महाभारत के पात्र कर्ण के जन्म को उस जमाने में प्रचलित जैव विज्ञान और भगवान गणेश को प्लास्टिक सर्जरी की मिसाल बता चुके हैं. पिछले साल विज्ञान कांग्रेस के दौरान केंद्रीय मंत्री हर्षवर्धन ने मशहूर भौतिक विज्ञानी स्टीफन हॉकिंग का निराधार हवाला देकर यह दावा कर दिया था कि वेदों में आईंस्टीन के सापेक्षता के सिद्धांत से भी अधिक उन्नत सिद्धांत मौजूद हैं. जब सत्ता के शिखर से ऐसी अपुष्ट और अप्रमाणिक बातें कही जाती हैं, तो बहुत-से लोग उससे यह संदेश ग्रहण कर लेते हैं कि वर्तमान माहौल में क्या कहना फायदेमंद है. दुर्भाग्यपूर्ण है कि भारतीय विज्ञान कांग्रेस जैसा प्रतिष्ठित आयोजन भी इस माहौल के असर से अपने को अलग नहीं रख पाया है.
एक मौके पर वहां एक ऐसे प्रजेंटेशन की खबर आई थी, जिसमें प्राचीन भारत में विमान मौजूद होने का दावा किया गया था. भारतीय विज्ञान कांग्रेस से जुड़े वैज्ञानिकों का कहना है कि उसके बाद उन्होंने ऐसे इंतजाम किए जिससे बेतुकी प्रस्तुतियों की गुंजाइश ना रहे. लेकिन उनका कहना है कि अगर आमंत्रित शख्सियतें काल्पनिक बातें कहने लगें, तो इस पर उनका नियंत्रण नहीं रह जाता.
बीते शुक्रवार को जलंधर में चल रही विज्ञान कांग्रेस के दौरान ऐसा ही हुआ. आंध्र विश्वविद्यालय के कुलपति जी. नागेश्वर राव ने दावा कर दिया कि कौरव 100 भाई इसलिए हुए, क्योंकि उनका जन्म टेस्ट ट्यूब बेबी तकनीक से हुआ था. उनका अगला दावा था कि चार्ल्स डार्विन महज जलचर से मानव जीवन तक हुए विकास-क्रम (evolution) की ही पहचान कर पाए. जबकि प्राचीन भारतीय ज्ञान ने उससे कहीं व्यापक विकास-क्रम को समझ लिया था, जिसकी मिसाल दशावतार की धारणा है. फिर कहा कि रावण के पास 24 प्रकार के विमान थे.
जब बात निकली तो यहीं तक नहीं ठहरी. एक प्रतिनिधि ने यह बखान भी कर दिया कि अल्बर्ट आइंस्टीन और आइजैक न्यूटन के सिद्धांत दोषपूर्ण हैं, जबकि उन्होंने जो सिद्धांत ढूंढा है कि उससे गुरुत्वाकर्षण की तरंगों का नाम ‘नरेंद्र मोदी तरंग’ रखने का मार्ग प्रशस्त होगा.
ऐसी बातें बेहद महंगी साबित होंगी. इनकी कीमत भारत में विज्ञान और उसकी संस्कृति को चुकानी होगी. अपने देश में वैज्ञानिक आधार अभी वैसे ही इतना उन्नत नहीं है कि यहां आविष्कारों के लिए अनुकूल स्थितियां हों. आम भारतीय समाज में वैज्ञानिक नजरिया उससे भी अधिक संकुचित हाल में है. काल्पनिक, अपुष्ट और अप्रामाणिक बातों को खुलेआम कहने के बढ़े चलन से ये हालात और संगीन हो जाएंगे.
कई वैज्ञानिकों ने उचित ही ध्यान दिलाया है कि बिना जरूरी वैज्ञानिक सैद्धांतिक आधार के कोई तकनीकी उपलब्धि हासिल नहीं हो सकती. मसलन, गाइडेड मिसाइल बनाने के लिए बिजली, धातु-कर्म, प्रक्षेप्य गति (projectile motion) के नियम की जानकारी और मोशन सेंसर्स का होना अनिवार्य है. ये तमाम ज्ञान या चीजें प्राचीन भारत में थीं, इसके कोई प्रमाण नहीं हैं.
लेकिन जब अतार्किक बातें राजनीतिक नेतृत्व के मन-माफिक बैठती हों, तब तथ्यों की फ़िक्र आखिर कौन करता है? वैसे भी किसी ज्ञान- या विज्ञान की अवस्था निरपेक्ष नहीं होती. उस समय के राजनीतिक वातावरण से ही यह तय होता है कि किस ज्ञान या समझ को प्रोत्साहित या हतोत्साहित किया जाएगा. जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व में भारत में जो माहौल बना था, उसमें तर्कपूर्ण, तथ्यात्मक और विवेक पर खरा उतरने वाले ज्ञान-विज्ञान को फूलने-फलने का मौका मिला. अब जो सियासी माहौल है, उसमें सुनी-सुनाई कहानियां, धार्मिक आस्था और काल्पनिक बातें ज्यादा अहम हो गई हैं.
इतिहास में जब कभी ऐसा हुआ है, उसे अंधकार का दौर कहा गया है. अच्छी बात यह है कि मानव विवेक ने हमेशा ऐसे दौर को परास्त किया है. ऐसा फिर होगा, यह भरोसा रखा जा सकता है. मगर सबसे अहम सवाल यह है कि हमें अभी दरपेश चुनौती से उबरने में आखिर कितना वक्त लगेगा?