अजीब रुख निर्वाचन आयोग का
निर्वाचन आयोग का व्यवहार अजीबोगरीब है. न सिर्फ इस आम चुनाव के दौरान, बल्कि हाल के वर्षों में पहले भी कई मौकों पर निर्वाचन आयोग का व्यवहार विवादास्पद रहा है. इस कारण ये धारणा गहराती गई है कि आयोग का रुख निष्पक्ष नहीं है. इस आम चुनाव के दौरान ये इल्जाम और गहराया है. फिलहाल आदर्श आचार संहिता लागू होने के बावजूद आयोग ने खासकर सत्ताधारी पार्टी के नेताओं से उस पर अमल कराने की इच्छाशक्ति नहीं दिखाई है. इस कारण कई नेता धार्मिक रूप से भड़काऊ और नफरत फैलाने वाले भाषण बेखौफ होकर दे रहे हैं.
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और बहुजन समाज पार्टी की प्रमुख मायावती के ऐसे ही भाषणों का मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा, तो आयोग की तरफ से वहां जो कहा गया, उसे विचित्र और हैरतअंगेज ही कहा जाएगा. आयोग के वकील ने कहा कि उम्मीदवारों के धार्मिक और नफरत फैलाने वाले भाषणों को रोकने में आयोग शक्तिहीन एवं लाचार है. स्वाभाविक रूप से इस पर सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश नाराज हुए. उन्होंने आयोग से 24 घंटों के अंदर इस बारे में सफाई देने को कहा. एक मौके पर तो प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई ने यहां तक कहा कि वे आधे घंटे के अंदर मुख्य चुनाव आयुक्त को कोर्ट में हाजिर होने का आदेश दे सकते हैं.
चूंकि आयोग के वकील यह कहते रहे कि आयोग के पास किसी पार्टी की मान्यता खत्म करने जैसे कड़े कदम उठाने का अधिकार नहीं है, अतः सर्वोच्च न्यायालय ने आयोग के अधिकारों के बारे में विस्तार से सुनवाई करने का फैसला किया. मंगलवार (16 अप्रैल) को चुनाव आयोग के एक अधिकारी को व्यक्तिगत रूप से कोर्ट में हाजिर होने का आदेश न्यायालय ने दिया है.
कोर्ट का ये रुख स्वागतयोग्य है. इस बारे में पूरी स्पष्टता की आवश्यकता है. यहां यह उल्लेखनीय है कि सुप्रीम कोर्ट से फटकार पड़ने के कुछ ही घंटों के अंदर आयोग ने योगी आदित्यनाथ और मायावती के खिलाफ सख्त कदम उठा लिया. दोनों के चुनाव प्रचार पर रोक लगाई गई है. सवाल यह है कि कुछ घंटे खुद को लाचार बता रहे आयोग में यह कदम उठाने की ताकत कहां से आ गई? क्या इससे यह जाहिर नहीं होता कि आयोग ने सुप्रीम कोर्ट में जो कहा, वह महज एक बहानेबाजी थी?
साफ है कि निर्वाचन आयोग ने अपने अधिकारों के बारे में बेहद संकरा और तकनीकी रुख लिया है. यह बिल्कुल सही है कि आदर्श चुनाव आचार संहिता का कोई कानूनी आधार नहीं है. आचार संहिता वर्षों में स्वाभाविक रूप से विकसित हुआ एक उपक्रम है, जो जनमत के दबाव और न्यायिक फैसलों से प्रभावी हुआ है. हकीकत यह है कि अतीत में कई चुनाव आयुक्तों ने आचार संहिता को विधायी शक्ति देने का विरोध किया था. उनका तर्क था कि अगर आचार संहिता को कानून का रूप दे दिया गया, तो फिर इस पर निर्णय अदालत के अधिकार क्षेत्र में चला जाएगा. तब फैसलों में इतनी देर लगेगी कि सही समय पर आचार संहिता पर अमल नहीं होगा. उन पूर्व आयुक्तों का जोर इस पर था कि आचार संहिता को निर्वाचन आयोग के ही दायरे में रखा जाए.
बहरहाल, आचार संहिता की मौजूदा स्थिति में ही पिछले चुनाव आयुक्तों ने इसे अत्यंत प्रभावी ढंग से लागू किया है. टीएन शेषन का नाम इसीलिए अक्सर चर्चा में आता है कि उन्होंने आचार संहिता के जरिए आयोग को एक हाई प्रोफाइल संस्था बना दिया. उनके बाद एमएस गिल और जेएम लिंग्दोह जैसे मुख्य चुनाव आयुक्तों ने भी आचार संहिता पर निष्पक्ष एवं प्रभावी अमल को सुनिश्चित कराया. उन दोनों के बाद भी काफी समय तक निर्वाचन आयोग चुनावों के दौरान एक निष्पक्ष और सख्त रेफरी की भूमिका में रहा. इसका भारत में चुनाव प्रक्रिया एवं चुनाव परिणामों को निरंतर अधिक विश्वसनीय बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका रही.
इस पृष्ठभूमि के बावजूद अब वर्तमान चुनाव आयोग अपने को शक्तिहीन और लाचार क्यों बताने लगा है? क्या मौजूदा आयुक्त सचमुच राजनीतिक दबाव में हैं? अथवा, उनकी निष्पक्ष की रेफरी की भूमिका निभाने और सभी दलों को समान धरातल मुहैया कराने में दिलचस्पी नहीं है? क्या उनमें अपेक्षित इच्छाशक्ति का अभाव है? अब तक दबी जुबान में ये सवाल उठाए जा रहे थे. सुप्रीम कोर्ट में निर्वाचन आयोग के ताजा बयान के बाद जाहिर है कि अब इन पर खुलेआम चर्चा होगी.
दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि ऐसी चर्चा का भारत में चुनाव की साख पर बुरा असर पड़ेगा. किसी लोकतंत्र में चुनावों की विश्वसनीयता के संदिग्ध होने से ज्यादा खतरनाक कुछ और नहीं होता है. निर्वाचन आयोग से अपेक्षा यह रहती है कि वह ऐसा नहीं होने देगा. मगर अपने मौजूदा रुख से वह ऐसा होने में सहायक बनता दिख रहा है. इसलिए अब सारी उम्मीदें सुप्रीम कोर्ट पर टिकी हैं. सर्वोच्च न्यायालय से अपेक्षित है कि वह निर्णायक हस्तक्षेप कर आम चुनाव की साख पर गहराते जा रहे साये को दूर करे, ताकि भारतीय लोकतंत्र सुरक्षित रह सके.