मुशीरुल हसन: भारतीय इतिहास बोध को गढ़ने वाला इतिहासकार


mushirul hasan a well known historion

 

ये सचमुच विडंबना ही है कि प्रोफेसर मुशीरुल हसन ने एक ऐसे वक्त में दुनिया को अलविदा कहा है जब भारत अपनी संकल्पना के कुछ मूल तत्वों को बचाने के लिए संघर्ष करता हुआ दिख रहा है. रोज दर रोज घट रही साम्प्रदायिक घटनाओं और राष्ट्र तथा राष्ट्रवाद की इकहरी होती व्याख्याओं ने हमारे सार्वजनिक विमर्श की जो शर्तें निर्धारित कर दी हैं, इसमें प्रोफेसर हसन की इतिहास दृष्टि को याद करने की कितनी गुजाइंश बची है, यह सोचने का विषय है.

इसके बावजूद भारतीय किस्म का इतिहास बोध गढ़ने में उनकी भूमिका को याद किए जाने की जरुरत है, क्योंकि यह इतिहास बोध ही हमारी विरासत है. इसमें संदेह नहीं कि प्रोफेसर हसन की इतिहास दृष्टि धर्मनिरपेक्षता और बहुलतावाद जैसे तत्वों से ही निर्मित थी. वे मानते थे कि भारत के धर्मनिरपेक्ष और सर्वसमावेशी लोकतांत्रिक प्रयोग से दुनिया बहुत कुछ सीख सकती है.

अपने विभिन्न लेखों और किताबों में वे इस बात का जिक्र बार-बार करते रहे कि बहुसांस्कृतिक और बहुधर्मी समाजों को देर-सबेर भारतीय लोकतंत्र की आत्मसात करने की प्रवृत्ति को समझना होगा. इस मामले में प्रोफेसर हसन की इतिहास दृष्टि कितनी दूर तक जाती थी, ये यूरोप और अमेरिका के वर्तमान हालात देखकर समझा जा सकता है.

लेकिन स्वयं भारतीय लोकतंत्र में कट्टरपंथी ताकतों के उभार और उनसे पैदा होने वाली चुनौतियों से वे अंजान नहीं थे. एक तरफ तो वे भारतीय राष्ट्र की हिन्दू कट्टरपंथियों द्वारा की जाने वाली कथित ‘भारतीय’ व्याख्या के खिलाफ रहे, वहीं उन्होंने बेलाग कहा कि इस्लाम के आधारभूत सिद्धान्त धर्मनिरपेक्ष राज्य की अवधारणा के खिलाफ थे.

वे ये भी रेखांकित करते हैं कि आजादी के कुछ वर्षों के बाद ही भारतीय मुस्लिम समुदाय को यह समझ आ गया था कि धर्मनिरपेक्षता का विचार ही उनके कल्याण को सुनिश्चित कर सकता था. भारतीय लोकतांत्रिक प्रयोग के दबाव ने ही बहुत से पारंपरिक मुस्लिम संगठनों को भी अपना रुख बदलने पर मजबूर किया था.

दरअसल, वे हर तरह के कट्टरपंथ को अपनी गहन इतिहास दृष्टि और बेलाग रवैये से हमेशा चुनौती देते रहे. कौन भूल सकता है कि उन्होंने सलमान रुश्दी की किताब ‘सटायनिक वर्सेज’ पर हुए विवाद के समय उनके किताब लिखने के मौलिक अधिकार की वकालत की थी. तब उनके कुछ रूढ़िवादी साथियों ने उनके लिए मौत की सजा तक की मांग कर दी थी.

प्रोफेसर हसन उस समय अपनी बात पर अडिग रहे.महज रणनीतिक और राजनीतिक लाभ-हानि के नजरिए से ओढ़ी गई प्रगतिशीलता को उघाड़ने में भी प्रोफेसर हसन कभी हिचके नहीं. यही वजह रही कि उन्होंने लाल कृष्ण आडवाणी द्वारा बरसों पहले पाकिस्तान में मोहम्मद अली जिन्ना को धर्मनिरपेक्ष बताए जाने की घटना पर सतर्कता से टिप्पणी की.

उन्होंने अपने साक्षात्कारों में बार-बार दोहराया कि आडवाणी ने यह बात अपने निहित राजनीतिक स्वार्थ के लिए की, अन्यथा उन्हें जिन्ना से पहले भारत के धर्मनिरपेक्ष नेता नजर आते.

वास्तव में, प्रो मुशीरुल हसन अपनी अकादमिक सक्रियता को केवल किताबों तक सीमित रखने की हिमायती नहीं रहे. यही बात उनके वैचारिक फलक को कुछ विशिष्ट बनाती रही.

अकादमिक दृष्टि से भी उन्होंने दक्षिण एशियाई इतिहास को समृद्ध बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. मुस्लिम समाज की दुर्लभ सामाजिक-सांस्कृतिक विरासत और भारतीय सभ्यता से उसके संबंध को बताने वाली कई महत्वपूर्ण जानकारियां देने का श्रेय उन्हीं को है.


प्रसंगवश