क्या संघ की संस्कृति वाकई में भारतीय संस्कृति है?


 

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भारतीय सभ्यता और संस्कृति का नाम जरूर लेता है. लेकिन जिस संस्कृति की बात वो करता है, उसका भारतीय संस्कृति से दूर-दूर तक का कोई नाता नहीं है. इन दोनों के बीच के अंतर को जानने से पहले सभ्यता और संस्कृति के अंतर को जान लेना आवश्यक है. सभ्यता जहां एक विशेष कालखंड में मानव समाज द्वारा हासिल की गई भौतिक प्रगति से जुड़ी है, वहीं संस्कृति का स्वरूप आत्मिक है. संस्कृति का मतलब है कि एक विशेष कालखंड में रहने वाले मनुष्यों के जीवन जीने का ढंग क्या है, उनके रीति-रिवाज क्या हैं, उनके मूल्य और मान्यताएं क्या हैं.

भारतीय संस्कृति के मूल में बहु-संस्कृतिवाद है जबकि संघ की संस्कृति विविधिता को पूरी तरह से नकारती है. जैसा कि संघ परिवार के विचारक पंडित दीन दयाल उपाध्याय ने अपने एकात्म मानवतावाद के सिद्धांत में हिंदू संस्कृति को भारतीय संस्कृति के अनुरूप बताकर इसे एक बड़ी-सी नदी बताया है. उनका कहना है कि हिंदू संस्कृति एक बड़ी सी नदी है और बाकी संस्कृतियां छोटी-छोटी धाराएं हैं. ये छोटी-छोटी धाराएं आगे चलकर बड़ी नदी में मिल जाती हैं.

संघ हमेशा एक ऐसी ही कथित शुद्धतावादी संस्कृति का प्रचार आम लोगों के बीच करता है. संघ का एक नारा है- हमसे जो टकरायेगा, संघ में मिल जाएगा. लेकिन आम अनुभव की बात है कि भारत जैसे एक विशाल देश में रहने वाले लोगों के रीति-रिवाज न तो आज और न ही प्राचीन काल में एक जैसे रहे हो सकते हैं. उत्तर भारत में एक कहावत बहुत प्रसिद्ध है- कोस-कोस पर बदले पानी, चार कोस पर बानी (वाणी). मतलब इस देश में रहने वाले लोगों की भाषा से लेकर मूल्य-मान्यताओं तक में गहरी विविधिता है. अगर अलग-अलग धर्मों और संप्रदायों को छोड़ भी दिया जाए तो एक ही धर्म को मानने वालों के मूल्य मान्यताओं में भी गहरी विविधिता है.

संघ इतिहास के स्वर्णिम काल की बात करता है. असल में यहीं से यह सनातनी हिंदू संस्कृति का अपना मॉडल पेश करता है. यह कहता है कि प्राचीन काल में सनातन धर्म पूरे भारत में व्याप्त था और चारों ओर खुशहाली थी. लेकिन अगर हम इतिहास में जाकर देखें तो सिर्फ एक सनातन धर्म ही भारत में रहा हो ऐसा नहीं है. इस देश में जैन और बौद्ध धर्म भी पैदा हुए और बढ़े. बौद्ध धर्म की कीर्ति तो भारत के बाहर भी फैली. इन धर्मों का दर्शन सनातन धर्म से न केवल अलग बल्कि विपरीत था. इनके साथ चार्वाक का भी दर्शन था. यह दुनिया को अलग नजरिए से देखता है. इस दर्शन के अनुसार भौतिक जगत मिथ्या न होकर एक सच है और मनुष्यों के सुख-दुख के कारण इसी जगत में मौजूद हैं.

इसके साथ ही संघ भारत की गंगा-जमुना तहजीब को भी सिरे से खारिज करता है. एक आम भारतीय आम बोल-चाल की भाषा में गंगा-जमुनी तहजीब शब्द का इस्तेमाल करता है. इस गंगा-जमुनी तहजीब का मतलब है कि भारत में तरह-तरह की संस्कृतियों के लोग आपस में मिल-जुलकर रहते हैं. क्या-कश्मीर में रहने वाले लोगों की बोली, खान-पान, पहनावा और रीति-रिवाज वही हैं, जो कन्याकुमारी में रहने वालों के हैं? क्या असम में रहने वालों के उत्सव-त्योहार, रीति-रिवाज और रहन-सहन बिल्कुल वैसे ही हैं, जैसा राजस्थान में रहने वाले लोगों के हैं? इन प्रश्नों का उत्तर नहीं में है.

देश के सुदूर कोनों को अगर छोड़ दिया जाए तो झारखंड और उत्तर प्रदेश के भीतर ही लोगों के रीति-रिवाज और रहन सहन में अंतर है. आंध्र प्रदेश के एक हिस्से में जहां मामा और मौसी के लड़के-लड़की में शादी हो जाती है, वहीं उत्तर प्रदेश में नहीं होती है. उत्तर भारत के ब्राह्मणों में मांस खाने को लेकर अलग मान्यताएं हैं तो बंगाल और केरल में अलग. यहां तक कि एक ही धर्म को मानने वालों के मिथक भी अलग-अलग हैं. इस देश में हिंदू धर्म के भीतर 300 से अधिक रामायण प्रचलित हैं. उत्तर भारत में जहां मिथकीय चरित्र राजा बलि को दानव माना जाता है, तो केरल में उनकी पूजा होती है. यहां अगर दुर्गा की पूजा की जाती है तो महिसासुर की भी की जाती है. यहां अलग-अलग योगी सम्प्रदाय हैं. यहाँ शैव हैं तो शाक्त भी हैं. यहां संतों की एक अलग श्रेणी है. यहां सिक्ख धर्म भी है और इस्लाम के भीतर भी विभेद हैं. इस्लाम में शिया हैं, सुन्नी हैं तो सूफी भी हैं. सूफी में भी अलग-अलग सिलसिले हैं.

इस देश में हिन्दू धर्म के भीतर कहीं बलि देने की प्रथा है तो कहीं इसे पाप माना जाता है. संघ के लोग नग्न मूर्तियां और चित्र बनाने वाले कलाकारों पर हमले करते हैं. लेकिन अगर हम इतिहास में देखें तो पुराने सामंती समाजों में ऐसी कलाकृतियां न केवल बनाई गईं, बल्कि शासकों ने ऐसे कलाकारों को खूब सरंक्षण भी दिया. इन कलाकृतियों को सहज मानवीय भावनाओं की अभिव्यक्ति माना गया. यहां कामसूत्र जैसे ग्रन्थ की रचना की गई. इससे पता चलता है कि हर संस्कृति के तहत भारतीय संस्कृति में भी स्याह और सफेद पक्ष हैं, लेकिन संघ केवल इसे केवल और केवल एक ही पक्ष में दिखाने की कोशिश करता है.

तो जब देश के भीतर इतनी सारी वैविध्यता है तो संघ किस सम्पूर्ण हिन्दू संस्कृति को भारतीय संस्कृति मानने की बात करता है? इस देश की वैविध्यता की जानकारी इस बात से ही मिलती है कि आम लोग यह कहते हुए मिल जाते हैं कि अमुक चीज तो उनके रिश्तेदारों के घर में अलग तरह से की जाती है.

भाषा पर अगर नज़र डालें तो प्राचीन समय से जिस एक भाषा-संस्कृति के होने की बात आरएसएस करता है वह निराधार है. भाषा वैज्ञानिक बताते हैं कि भारत में आर्यों के आने से पहले हड़प्पा सभ्यता की लिपि अलग थी जो कि अभी तक पढ़ी नहीं जा सकी है. द्रविड़ परिवार की भाषाएँ तमिल, मलयालम उतनी ही पुरानी हैं जितनी संस्कृत. भारत बहु-भाषाई समाज रहा है और आज भी है. प्राचीन काल से लेकर आधुनिक काल तक भारतीयों का दृष्टिकोण भाषा को लेकर कट्टर रहा हो ऐसा नहीं कहा जा सकता है. अलग-अलग भाषा-भाषी समूह चाहे वह आदिवासी समाज हो या कोई अन्य उनकी अपनी भाषाएँ उनकी अभिव्यक्ति का माध्यम रही हैं. ऐसे में संस्कृत भाषा की श्रेष्ठता की मनोग्रंथि का प्रचार उतना सांस्कृतिक है नहीं जितना यह दिखाई देता है. यह निहायत ही राजनीतिक है-संघ की राजनीति का अंग.

एक प्रगतिशील समाज अपनी परंपराओं के प्रति रूढ़िवादी नजरिया रखने की जगह गलत चीजों को छोड़कर सही विचारों और आदर्शों को अपनाकर आगे बढ़ता है. अगर इसी भारतीय समाज में एक बड़े तबके को अछूत के नाम पर मानवीय गौरव से वंचित कर दिया गया था तो इसी समाज में आजादी की लड़ाई के समय हिन्दू-मुस्लिम एकजुट होकर ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ लड़े, शहीद भगतसिंह और उनके साथियों की क्रान्तिकारी विरासत भी इसी भारतीय समाज की देन है. लेकिन संघ को तो यही हिंदू-मुस्लिम एकता फूटी आंखों नहीं सुहाती. वर्तमान हिन्दुस्तान सभी कौमों के मेहनतकश सपूतों की अकूत कुर्बानी के कारण औपनिवेशिक गुलामी से मुक्त हुआ. यह एक साझी-संस्कृति और साझी विरासत है. प्रेमचंद ने कहा था कि ‘साम्प्रदायिकता सदैव संस्कृति की खोल ओढ़कर आती है.’ क्या संघ की कार्यशैली प्रेमचंद के इस कथन को पूरी तरह से सही साबित नहीं करती?


प्रसंगवश