जीडीपी के गलत अनुमान पर सरकार ने अरविंद सुब्रमण्यम के दावों को नकारा


Former CEA permanent claim on economic growth

 

पूर्व आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यम के शोध पत्र में भारत के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) दरों में वृद्धि को गलत बताने के बाद सरकार ने इस पर प्रतिक्रिया दी है.

सरकार ने कहा है कि जीडीपी का आंकलन कई चीजों पर निर्भर करता है. इसमें स्वीकार्य प्रक्रियाएं, कार्यप्रणाली, उपल्बध डेटा के साथ अर्थव्यवस्था में विभिन्न क्षेत्रों के योगदान को निष्पक्ष रूप से मापना शामिल होता है.

इससे पहले पूर्व आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यम ने अपने शोध पत्र में कहा था कि साल 2011-12 और 2016-17 के बीच भारत की जीडीपी के आंकलन को बढ़ाकर दिखाया गया था. ये असल से करीब 2.5 फीसदी ज्यादा था.

सुब्रमण्यम ने हाल में ही हावर्ड विश्वविद्यालय में अपना शोध पत्र पेश किया है. उन्होंने शोध पत्र में बताया कि अधिकारिक आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2011-12 और 2016-17 दौरान देश की जीडीपी दर 7 फीसदी के करीब थी. लेकिन सही वृद्धि दर करीब 4.5 फीसदी के इर्द-गिर्द थी.

इस मामले में सरकार ने कहा है कि मैक्रो एग्रीगेट के संकलन की कार्यप्रणाली को समिति में विस्तार के साथ चर्चा की गई है. इस समिति में शिक्षा, राष्ट्रीय संख्यिकी आयोग, भारतीय संख्यिकी संस्थान (आईएसआई), भारतीय रिजर्व बैंक, वित्त मंत्रालय, कॉरपोरेट मामले, कृषि, नीति आयोग, चुनिंदा राज्य सरकार और सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय के विशेषज्ञ शामिल हैं.

इन विशेषज्ञों ने संयुक्त रूप से एक बयान में कहा, “जो फैसला लिया गया है वो एकमत और सामूहिक फैसला है. इसमें सबसे उपयुक्त दृष्टिकोण अपनाने की सिफारिश से पहले उपलब्ध डेटा और कार्यप्रणाली के पहलुओं को ध्यान में रखा गया है.”

सुब्रमण्यम के विचारों को कुछ अर्थशास्त्रियों और सांख्यिकीविदों ने अपना समर्थन दिया है. उन्होंने जीडीपी के आंकड़ों को जांचने के लिए एक स्वतंत्र पैनल के गठन की मांग की है. दूसरी ओर कुछ विशेषज्ञों ने कहा है कि अरविंद ने वृद्धि मापने के लिए मूल्य सूचकांको को ध्यान में नहीं रखा है.

राष्ट्रीय सांख्यिकी आयोग के पूर्व कार्यवाहक अध्यक्ष पीसी मोहनन और इंदिरा गांधी इंस्टीट्यूट ऑफ डेवलपमेंट रिसर्च के प्रोफेसर आर नागाराज ने डेटा में मतभेद रखते हुए विशेषज्ञ पैनल से संपूर्ण जीडीपी संशोधन प्रक्रिया की समीक्षा करने की मांग की है.

अंतर्राष्ट्रीय विकास केंद्र के भारत कार्यक्रम के लिए देश के निदेशक और भारत के पूर्व मुख्य सांख्यिकीविद प्रणब सेन ने कहा, “2004-05 के बाद और 2011-12 से पहले वृद्धि दर मापने के लिए मात्रा सूचकांकों का प्रयोग होता था. और मात्रा सूचकांक से उत्पादकता और मूल्यवर्धन का पता नहीं चलता है. इसलिए 7 फीसदी की वृद्धि दर हो सकती है.

क्योंकि 4.5 फीसदी वॉल्यूम वृद्धि और बाकि 2.5 फीसदी उत्पादकता की वजह है. इसलिए यह नहीं माना जा सकता है कि वृद्धि दर को बढ़ाकर बताया गया है. असल में अगर इस थ्योरी को सही माना जाए तो शायद 2011-12 से पहले तक वृद्धि को कम आंका जा रहा था. क्योंकि तब हम केवल वॉल्यूम आधारित संकेतक का प्रयोग कर रहे थे.”

पीसी मोहनन ने डेटा के समीक्षा को जरूरी बताते हुए कहा,”जब से जीडीपी के नए आंकड़े आए हैं तब से कुछ विशेषज्ञों के बीच इसे लेकर मतभेद है. जबकि कार्यप्रणाली उपलब्ध है. हालांकि विस्तृत डेटा सार्वजनिक डोमेन में नहीं हैं. सीएसओ के जारी आंकड़ों पर टिप्पणी करना मुश्किल है. इस मामले में एक विशेषज्ञ पैनल का गठन होना चाहिए जो सभी संदेह को दूर करने के साथ ही सभी सवालों का जवाब भी दे.”

सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय के बयान में कहा गया है कि जीडीपी सीरीज के लिए आधार वर्ष को 2005-05 से 2011-12 संशोधित किया गया था. इसे 30 जनवरी, 2015 को जारी किया गया था. इसमें संयुक्त राष्ट्र के विकसित किए राष्ट्रीय लेखा प्रणाली, 2008 के स्रोत और विधियों का अनुकूलन किया गया था.

मंत्रालय के अनुसार सुब्रमण्यम के शोध मूल रूप से कुछ संकेतक के विश्लेषण पर आधारित है. इसमें बिजली की खपत, दो पहिया वाहनों की बिक्री, कमर्शियल वाहन की बिक्री आदि को शामिल किया गया है. मंत्रालय ने कहा है कि किसी भी अर्थव्यवस्था के लिए जीडीपी का अनुमान लगाना एक जटिल प्रकिया है.

यह पूछने पर कि क्या अनुमान से ज्यादा जीडीपी दर में वृद्धि बताने से नीतिगत फैसले प्रभावित होते हैं.

सेन ने कहा, “नीति को इस बात पर निर्भर होना चाहिए कि विकास के स्त्रोत क्या हैं. खासकर बेहतर विकास के लिए. अगर हम तर्क को इस तरह देखेंगे तो पूरा मैक्रो नैरेटिव बदल जाएगा. खासकर तब जब हम विकास और रोजगार के बीच की कड़ी को देखते हैं. क्योंकि जब विकास उत्पादन में बढ़ोतरी की वजह से हो रहा है तो रोजगार में बढ़ोतरी नहीं होगी. आप जिस तरह मैक्रो-इकॉनॉमिक्स की तस्वीर पेश करेंगे उससे काफी फर्क पड़ता है.”

आईजीडीआर के नागाराज ने कहा कि वे 2015 से लगातार कह रहे हैं कि जीडीपी के वृद्धि दर अनुमान से अधिक मालूम पड़ता है. हालांकि उनके पास भी इसकी सही संख्या नहीं थी. उन्होंने कहा कि संशोधित जीडीपी सीरीज की विश्वसनीयता में दाग जरुर लगा है. और इससे नीति निर्धारण और कॉरपोरेट में फैसले लेने को प्रभावित किया है.

उन्होंने कहा, “कई फाइनेंशियल फर्म, खासकर वैश्विक फर्म ने भारत के जीडीपी का इस्तेमाल करना बंद कर दिया है. इसके बजाय वे उद्योग और क्षेत्रीय डेटा पर निर्भर हैं. मुझसे कहा गया है कि कई फर्म विश्व बैंक के नाइट लाइट डेटा की मदद से आर्थिक गतिविधियों में वृद्धि को समझने के लिए इसका प्रयोग करते हैं.”

उन्होंने कहा कि इसे हल करने का जो एकमात्र रास्ता है वो ये कि जीडीपी के संशोधन प्रणाली के सांख्यिकीय लेखा परीक्षा करनी होगी. इसके साथ ही विश्व भर के विशेषज्ञों को लेकर एक स्वतंत्र समिति का गठन कर भारत के राष्ट्रीय खाते के सभी पहलुओं की गहन समीक्षा करें.


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