NSSO के अध्ययन के बाद जीडीपी को लेकर उठे सवाल हुए और तीखे


industrial output decline by 1.1 percent in august

 

राष्ट्रीय सैंपल सर्वे ऑर्गेनाइजेशन (एनएसएसओ) के अध्ययन से जीडीपी गणना में जो खामियां उजागर हुई हैं, उससे ये बात तो साफ हो गई है कि विकास दर के आंकड़ों को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया जा रहा है.

एनएसएसओ एक सरकारी संस्था है, जिसने अपने अध्ययन में पाया था कि कारपोरेट मामलों के मंत्रालय की जिस वेबसाइट से आंकड़े लिए जाते हैं, वहां सूचीबद्ध 36 फीसदी कंपनियों का कोई अता-पता नहीं है.

हालांकि सरकार का दावा है कि इन फर्जी कंपनियों को गणना में शामिल करने से आर्थिक आंकड़ों पर कोई असर नहीं पड़ रहा है. साथ ही सरकार इन आंकड़ों के इस्तेमाल में आई खामियों के उपचार के भी दावे कर रही है.

ये पूरा विवाद MCA-21 आधारित जीडीपी की नई सीरीज के प्रयोग के चलते शुरू हुआ है. साल 2015 से सीएसओ ने आंकड़ों के संग्रहण के लिए इसका उपयोग करना शुरू किया. MCA-21 डेटाबेस की ऐसी कंपनियां हैं, जिनका उपयोग जीडीपी की गणना के लिए किया जाता है.

एनएसएसओ का ये अध्ययन बीते साल जून 2017 में पूरा हुआ था . जबकि उसकी रिपोर्ट पिछले हफ्ते ही जारी हुई है. इस अध्ययन में पाया गया कि MCA-21 डेटाबेस की 36 फीसदी कंपनियों का कोई अता-पता नहीं है.

मंत्रालय ने इन लापता कंपनियों को ‘सक्रिय कंपनी’ की श्रेणी में रखा है. इस श्रेणी में उन कंपनियों को रखा जाता है, जिन्होंने गुजरे तीन वर्षों में कम-से-कम एक बार टैक्स चुकाया हो.

इस पूरे विवाद में सबसे बड़ी चिंता का विषय अर्थव्यवस्था पर निवेशकों का भरोसा है. जब सरकारी आंकड़े संदेह के घेरे में आ जाते हैं तो अर्थव्यवस्था अपनी साख खो देती है.

जिसके चलते निवेशक विकास दर के आंकड़ों को संदेह की नजर से देखते हैं. जिससे वे ऐसी व्यवस्था में निवेश करने से बचते हैं.

भारत के मामले में भी ऐसा ही हो रहा है. इन आंकड़ों पर संदेह कोई नया नहीं है, पहले भी भारतीय और विदेशी जानकार इन पर सवाल उठाते रहे हैं.

सांख्यिकीविद मानते हैं कि ऐसी कंपनियां जिन्होंने किसी निश्चित साल में अपने आंकड़े नहीं बताए हैं, उन्हें सकल मूल्य वर्धित (जीवीए) गणना में शामिल करने से गलत परिणाम ही मिलेंगे. जीवीए, अर्थव्यवस्था या व्यावसायिक क्षेत्र में उत्पादित कुल माल व सेवाओं के मूल्य की माप है.

इस समय गणना के जिस तरीके का प्रयोग किया जा रहा है, उसके मुताबिक अगर कोई कंपनी गणना के साल के दौरान अपने आंकड़े सार्वजनिक नहीं करती है तो सीएसओ इसके लिए ‘ब्लो-अप’ तरीके का इस्तेमाल करता है.

इस तरीके में सीएसओ उस कंपनी के शुरुआती आंकड़ों का प्रयोग जीवीए गणना के लिए आधार के रूप में करता है. इससे साफ तौर पर जाहिर होता है कि आंकड़े झूठे भी हो सकते हैं. जो वस्तु और सेवाओं के असली उत्पादन को ना दिखाकर फर्जी परिणाम देते हैं.

प्रोफेसर आर नागराज कहते हैं, “जीवीए की गणना में इन फर्जी कंपनियों को किसी भी हालत में नहीं शामिल किया जाना चाहिए. इसमें सिर्फ उन कंपनियों को शामिल किया जाना चाहिए जो नियमित तौर पर अपना डेटा जारी करती हों” प्रोफेसर नागराज इंदिरा गांधी राष्ट्रीय विकास और शोध संस्थान, मुंबई में कार्यरत हैं.

जीडीपी गणना के नए तरीके में ये सबसे बड़ी समस्या बताई जा रही है, लेकिन जानकारों का मानना है कि इसमें कई तरह की समस्याएं हैं. जिससे आर्थिक विकास की गलत तस्वीर सामने आ रही है.

विश्व बैंक के पूर्व मुख्य अर्थशास्त्री कौशिक बसु कहते हैं. “भारत को दुनियाभर में अपने आंकड़ों की गुणवत्ता के लिए जाना जाता था. इस तरह की बातें इस छवि को नुकसान पहुंचा रही हैं. इससे एक बात तो जाहिर हो रही है कि क्यों भारतीय जीडीपी के आंकड़े और यहां पैदा हो रही नौकरियों में सामंजस्य नहीं दिखाई दे रहा है.”

सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय ने इस बारे में सफाई देते हुए कहा, “इस पर जोर दिया गया है कि कारपोरेट क्षेत्र के मौजूदा जीडीपी/जीवीए अनुमान पर इसका कोई असर ना पड़े, इसके लिए प्रदत्त (चुकी हुई) पूंजी पर आधारित आंकड़ों को शुरुआती स्तर पर समायोजित कर लिया जाता है.”

मंत्रालय ने कहा कि एनसएएसओ का हालिया अध्ययन इसी तरह के डाटा-गैप को समझने और उसे ठीक करने के लिए किया गया था. मंत्रालय इसे आगामी 2017-18 सीरीज में प्रयोग करने की बात भी कह रहा है.


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