भारत में कामकाजी महिलाओं की स्थिति लगातार हो रही बदतर: सर्वे
भारत में पहले ही कार्यबल में महिलाओं की भागीदारी काफी कम है अब नए अधिकारिक आंकड़ों से खुलासा हुआ है कि कामकाजी महिलाएं पुरुषों के मुकाबले पिछड़ती जा रही हैं. पूरी दुनिया में सिर्फ नौ देश इस मामले में भारत से पीछे हैं. ये आंकड़ें एनएसएसओ की नई रिपोर्ट से सामने आएं हैं.
अगर अधिकारिक आंकड़ों पर राज्यवार नजर डालें तो बिहार सबसे पीछे नजर आता है. यहां तक की अगर बिहार को एक देश मान लें तो वो दुनिया में महिलाओं की कार्यबल में भागदारी के स्तर पर सबसे निचले पायदान पर होगा.
जो महिलाएं काम में लगी हुई भी हैं उनके साथ वहां भी भेदभाव है. सर्वे के मुताबिक शहरी क्षेत्रों में ज्यादातर महिलाएं घरेलू साफ-सफाई जैसे काम करती हैं. महिलाओं के लिए कार्यबल के हिसाब से ये काम कपड़ा उद्योग के बाद दूसरे नंबर पर आता है.
विकासशील देशों की कामकाजी महिलाओं की तुलना में एक हफ्ता ज्यादा काम करती हैं.
अंतर्राष्ट्रीय श्रमिक संगठन (आईएलओ) के अनुसार 2018 में अप्रैल से जून के महीने में भारतीय कामकाजी महिलाओं ने औसतन 44.4 घंटे प्रति हफ्ता काम किया था. यह अन्य विकासशील देशों में औसतन 35 से 36 घंटे प्रति हफ्ता था.
विकसित और विकासशील देशों में महिलाएं ज्यादातर अवैतनिक गृहस्थी और देखभाल का काम करती हैं. महिलाओं के काम करने के घंटों पर पुरुष की तुलना में वेतन का अंतर और शैक्षिक योग्यता के बावजूद कोई असर नहीं पड़ा है.
ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं की तुलना में पुरुष कर्मचारियों को 1.4–1.7 गुणा ज्यादा वेतन मिलता है. शहरी क्षेत्रों में महिलाओं की तुलना में पुरुष 1.2 से 1.3 गुणा ज्यादा वेतन पाते हैं.
भारत में फीमेल लेबर फोर्स पार्टिसिपेशन रेट (एलएफपीआर) 2017-18 में 23.3 फीसदी के निचले स्तर पर था. इसका मतलब है कि भारत में 15 वर्ष की महिलाओं में चार में से तीन काम नहीं कर रही हैं, और ना काम की तलाश में हैं. इससे पता चलता है कि या तो वे महिलाएं गृहस्थी चलाती हैं या फिर बच्चों की देखभाल करती हैं.
लेबर फोर्स सर्वे (पीएलएफएस) में यह बात सामने आई है कि भारत के अलावा नौ अन्य देशों में कामकाजी महिलाओं का अनुपात कम है. इसमें यमन, सीरिया, ईराक, जॉर्डन, अल्जीरिया, इरान, सोमालिया, मोरोक्को, और इजिप्ट शामिल हैं.
2011-12 में भारत का एलएफपीआर कम होने की वजह से भारत को वैश्विक स्तर पर नीचे से 12वें स्थान पर रखा गया था. इसके बाद की गिरावट में ज्यादा योगदान ग्रामीण क्षेत्रों का रहा है. महिला एलएफपीआर 7 फीसदी कम हुआ है, जबकि पुरुषों के मामले में यह लगभग एक समान रहा है.
डेटा के मुताबिक महिलाओं के कामकाज में हिस्सेदारी ना लेने की वजह उच्च शिक्षा में जाना है. ज्यादातर युवा महिलाएं उच्च शिक्षा ले रही हैं. इसलिए वे ना काम कर कर रही हैं और ना ही काम की तलाश में हैं. डेटा के मुताबिक बुजुर्ग कामकाजी महिलाओं के काम करने के फीसदी में भी गिरावट आई है.
2011-12 में 15 से 29 वर्ष की कामकाजी महिलाओं के एलएफपीआर में 8 फीसदी अंक की गिरावट हुई थी. यह 2017-18 में 16.4 फीसदी था. 30 से 50 वर्ष की महिलाओं के एलएफपीआर में 7 फीसदी की गिरावट देखने को मिली थी. 35 से 39 वर्ष की महिलाओं में यह सबसे ज्यादा था. इस उम्र की महिलाओं के एलएफपीआर में 9 फीसदी अंक गिरकर के 33.5 फीसदी की कमी आई है.
30 से 50 वर्ष की कामकाजी महिलाओं में तीन में से दो काम नहीं कर रही हैं. इनमें से ज्यादातर का कहना है कि वे गृहस्थी की जिम्मेदारियां निभा रही हैं.
पुरुषों के मामले में जाति और धर्म का कामकाज पर कोई खास असर नहीं पड़ता है. इस संबंध में महिलाओं की स्थिति अलग है. मुस्लिम महिलाओं में एलएफपीआर सबसे कम है, जबकि हिंदू महिलाओं में यह स्थिति ऊंची जाति की महिलाओं की है. इससे यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि सामाजिक मानदंड और धार्मिक रूढ़िवाद भी महिलाओं के काम ना करने की बड़ी बजह है.
भारत में बिहार की स्थिति जहां सबसे खराब है. वहीं दक्षिणी और पूर्वी राज्यों की स्थिति काफी बेहतर है.
ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाएं ज्यादातर खेतीबाड़ी का काम करती हैं. ग्रामीण महिलाएं गैर-कृषि कार्य में बहुत कम हैं. जिससे समझा जा सकता है कि अन्य कामों में महिलाओं की हिस्सेदारी में गिरावट क्यों आई है.
शहरी महिलाओं में ज्यादातर कपड़े के कामों में लगी है. इसके अलावा घरेलू सफाई का काम और कुछ ‘निदेशक और मुख्य कार्यकारी अधिकारी’ हैं. शहरी पुरुषों के लिए निदेशक और मुख्य कार्यकारी अधिकारी होना आम है.
यह सुनने में उच्च कुशल और ज्यादा वेतन पाने वाला लगता है. लेकिन हकीकत इससे अलग है. श्रमिक अर्थशास्त्रियों का मानना है कि वे महिलाएं जो खुद कोई छोटा सा उद्यम चलती हैं, उनका वर्णन करते हुए यह महज सुनने में अच्छा लग सकता है.
99 फीसदी महिलाएं जो खुद को निदेशक और मुख्य कार्यकारी अधिकारी बताती हैं वे सब अपना उद्योग चलाती हैं. इनमें से एक-तिहाई परिवार के लोग बिना वेतन के काम करती हैं.
युवा महिलाओं में ज्यादातर की इच्छा हाई स्किल वाली व्हाइट कॉलर जॉब पाने की होती है. इसके बजाय घरेलू कामकाज, साफ-सफाई, और दुकानों में सेल्स पर्सन का काम शहरी महिलाओं पर हावी है. इसमें एक अपवाद सिर्फ शिक्षा का क्षेत्र है. यह महिलाओं के लिए सबसे आम टॉप 10 जॉब में से है.
आमतौर पर खुद का उद्योग चलाने वाली महिला श्रमिकों का एक बड़ा हिस्सा कम कमाई, कई घंटे के काम और सामाजिक सुरक्षा के बिना भी काम करता है.