हिंदी के खिलाफ उठे दक्षिण से सवाल
नई शिक्षा नीति के तहत प्रस्तावित तीन भाषा फॉर्मूले को थोपे जाने के कड़े विरोध प्रदर्शनों के बीच अब जानकरों का कहना है एक वैज्ञानिक भाषा नीति ही गैर-हिन्दी प्रदेशों में हिंदी को थोपे जाने से रोक सकती है.
लेखकों और क्षेत्रीय भाषाओं के विकास के लिए कार्य करने वाले विशेषज्ञों का मानना है कि एक वैज्ञानिक भाषा नीति ही हिंदी भाषा को थोपे जाने से रोक सकती है जिससे क्षेत्रीय भाषाओं के विकास को बढ़ावा मिलेगा.
कन्नड़ विकास प्राधिकरण के चेयरमैन एस सिद्धारमैया ने बताया कि वो भाषा के विवाद को खत्म करने के लिए आज केंद्र को पत्र लिखेंगे. उन्होंने कहा, “सबसे अच्छा तो ये होगा कि हिंदी को विकल्प के तौर पर दिया जाए. पर हम अक्सर देखते हैं कि हिंदी को किसी न किसी रूप में थोपने की कोशिश की जाती है. नई शिक्षा नीति में इस मामले को सुलझाया जाना चाहिए.”
कैंपेन फॉर लैंग्वेज इक्वैलिटी एंड राइट्स के संस्थापक सदस्यों में शामिल जोगा सिंह ने बताया, “हिंदी एक कृत्रिम भाषा है. जो संस्कृत, उर्दू और कई क्षेत्रीय भाषाओं की एक शाखा है, लेकिन आज सैकड़ों क्षेत्रीय भाषाओं की कीमत पर हिंदी को बढ़ावा दिया जा रहा है.”
वो कहते हैं, “साल 1964 से हम सुन रहे हैं कि हिंदी भाषी राज्यों को दूसरे राज्यों की भाषा भी सीखनी चाहिए. तब से कई बार ये मांग की गई और आज फिर वहीं हो रहा है. ये और कुछ नहीं हमें धोखा देना है.”
लेखक नाटराज हुलिया के मुताबिक तीन भाषा फॉर्मूला हिंदी को थोपना ही है. वो कहते हैं कि ये देशी कन्नड़ संस्कृति, भाषा और राजनीति में उत्तर भारतीय आधिपत्य की बेक डोर एंट्री है.
इस विषय में किताब लिखने वाले लेखक आनंद जी का मानना हैं कि क्षेत्रीय भाषाओं के साथ समान व्यवहार किया जाना चाहिए और ये केवल वैज्ञानिक शिक्षा नीति से ही संभव है. वहीं शिक्षाविद् और समाजसेवी एसएन गन्नानाथ का कहना है, “वैज्ञानिक शिक्षा नीति के लिए जरूरी है कि तीन भाषा फॉर्मूले का वस्तुनिष्ठ अध्ययन किया जाए. भावनाएं एक तरफ रखकर इस फॉर्मूले के प्रभावों को समझने की जरूरत है.”
पिछले दिनों नई शिक्षा नीति को लेकर डॉक्टर के कस्तूरीरंगन कमेटी ने मानव संसाधन मंत्रालय को 500 पृष्ठ का मसौदा सौंपा था.
मसौदे में गैर हिन्दी भाषी राज्यों के लिए तीन भाषाएं सिखाने की सिफारिश की गई है. इनमें हिन्दी, अंग्रेजी और कोई एक क्षेत्रीय भाषा शामिल है. जबकि हिन्दी भाषी राज्यों के लिए अंग्रेजी, हिन्दी और एक आधुनिक भाषा की सिफारिश की गई है.
इस मसौदे को लेकर गैर-हिंदी प्रदेशों खासकर दक्षिण के राज्यों में तेज विरोध हो रहा है. दक्षिण में बीजेपी के सहयोगी दल भी इस मसौदे का विरोध कर रहे हैं.