कानून के विद्यार्थियों को भारतीय पौराणिक साहित्य पढ़ाने का सुझाव
राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2019 के मसौदे में सरकार ने कानूनी शिक्षा के क्षेत्र में दो प्रमुख सुझाव दिए हैं. पहला सुझाव राज्य न्यायिक संस्थानों को अंग्रेजी के साथ क्षेत्रीय भाषा का विकल्प देने से संबंधित है. जबकि दूसरा सुझाव कानूनी पाठ्यक्रम में भारतीय संस्कृति और परंपरा के विचारों को जोड़ने की बात कहता है.
मसौदे का पहला सुझाव बहुभाषीय कानूनी शिक्षा देने पर जोर देता है. मसौदे के मुताबिक निचली अदालतों में कानूनी कार्यवाही क्षेत्रीय भाषाओं में होती है. जबकि अधिकतर हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में कार्यवाही अंग्रेजी में होती है. ऐसे में ऊपरी अदालतों में केस की सुनवाई होने की स्थिति में दस्तावेजों की अंग्रेजी रूपांतरण होने तक रुकना होता है, जिसकी वजह से केस की सुनवाई में अनावश्यक देरी होती है.
इस समस्या से निपटने के लिए मसौदे में राज्य संस्थानों को क्षेत्रीय और अंग्रेजी भाषा में निपुण शिक्षकों की नियुक्ति का सुझाव दिया गया है. इसके अलावा कानूनी पाठ्यक्रम में दोनों भाषाओं की किताबें उपलब्ध कराने का सुझाव दिया गया है. साथ ही कहा गया है कि छात्रों के पास एग्जाम दोनों भाषाओं में देने का विकल्प होना चाहिए.
इसी संबंध में एक स्पेशल सेल बनाने का भी सुझाव दिया गया है. जहां विभिन्न भाषाएं जानने वाले छात्रों को बुलाकर या उन्हें मुआवजा देकर दस्तावेजों का ट्रांसलेशन कराया जा सकता है.
भारतीय न्यायिक व्यवस्था और शिक्षा आधुनिक विद्वानों और राजनीतिज्ञों के अध्ययन और कॉमन लॉ लीगल (अधिकतर ब्रिटिश) दर्शन पर आधारित है. जबकि एनईपी का दूसरा सुझाव आधुनिक अध्ययन पर आधारित भारतीय कानूनी शिक्षा में पारंपरिक अवधारणाओं और मिथकों को जोड़ने की बात कहता है.
राष्ट्रीय शिक्षा नीति के हिंदी मसौदे के पेज नंबर 423 पर ‘सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भ पर चिंतन हेतु पाठ्यचर्या’ के तहत भारतीय संस्कृति, पौराणिक कथाओं और साहित्य को मौजूदा कानूनी शिक्षा में शामिल करने की बात कही गई है.
धर्म और अधर्म जैसी हिंदुत्व की अवधारणाएं किस तरह एक वकील बनने में अहम भूमिका निभाएंगी ये कहना मुश्किल है. इसके अलावा दूसरे धर्मों से आने वाले छात्र भी कुरान और बाइबल से धार्मिक नियमों को कानूनी शिक्षा में शामिल करने की मांग कर सकते हैं.
सरकार की ओर से दिए गए दूसरे सुझाव के संदर्भ में याद रखना जरूरी है कि कानून ऐतिहासिक तथ्यों पर आधारित होना चाहिए. कानूनी नियमों की व्याख्या का अधिकार न्यायिक अदालतों के पास है, ऐसे में सवाल उठते हैं कि न्यायिक व्यवस्था में साहित्य और पौराणिक कथाओं का दखल कितना सही होगा.