हाथरस की बेटी को श्रद्धांजलि
वो हाथरस के बूलगढ़ी की दलित बच्ची थी। वो हमारी भी हो सकती थी ,वो आपकी भी हो सकती थी।
आज के समय में ये सामान्य सी बात है कि मुस्लिम मुस्लिमों के मुद्दे पर लिखते हैं और दलित दलितों के मुद्दों पर लिखते हैं। सब अपने बारे में लिखते हैं। हम जिस पीढ़ी के हैं उन्हें इस तरह का अनुभव नहीं है। विभाजन और आज़ादी के बाद के दिनों में जगन्नाथ आज़ाद ने ईद मिलादुन्नबी पर और हसरत मोहानी ने होली पर लिखा।
मैं एक आस्थावान मुस्लिम महिला हूँ। मैं सभी मुद्दों पर लिखती हूँ। मुद्दा चाहे किसी भी धर्म से जुड़े हुए लोगों से सम्बंधित हो। जब मैं राष्ट्रीय महिला आयोग की सदस्य थी तब अपने चेयरपर्सन मोहिनी गिरी और सदस्य पद्मा सेठ के साथ देश भर में जहां कहीं भी महिलाओं के ख़िलाफ़ हिंसा की शिकायत मिली, पीड़िता के धर्म या जाति की परवाह किये बग़ैर उसकी मदद को पहुँच गए। हरियाणा में ग्राम सुदाका ,यूपी में ग्राम हरिया की गढ़ी ,बिहार के ग्राम कुशेश्वर स्थान, मध्य प्रदेश के ग्राम रेशमपुरा, यूपी के महोबा इत्यादि जगहों पर महिलाओं के साथ सामुहिक बलात्कार ,दहेज़ के लिए ह्त्या, बाल वेश्यावृत्ति,यहां तक कि सती का भी मामला भी देखने को मिला। और ये सब बीसवीं सदी के आख़िरी दशक की बात है।
अपनी केवल एक पहचान के साथ मैं इन तमाम मुद्दों की आग को बुझाने के लिए संघर्षरत रही। और दोषियों को सज़ा दिलाने के लिए प्रयासरत रही। पुलिस चौकी पर हमें ‘घर फोड़ू’ महिलायें कहा जाता था। और इस अवधि के दौरान मुझे सिर्फ़ एक पहचान में क़ैद कर दिया गया था। और वो था मेरा लिंग।
हाथरस की घटना इक्कीसवीं सदी के भारत में घटी है।
एक उन्नीस साल की दलित लड़की जो अपने माँ और भाई के साथ अपने मवेशी के लिए चारा लाने खेत में गई थी। फिर उसके बाद क्या हुआ वो ब्यान से परे है। इंसान के शक्ल में दानवों ने उसे खेत में घसीटा, उसकी रीढ़ की हड्डियाँ तोड़ी ,उसके ज़बान काटे,उसके शरीर के चिथड़े-चीथड़े कर डाले। ये सबकुछ उसकी अपने माँ से अलग होने के एक घंटे के भीतर ही हो गया।
उन्नीस साल की वो लड़की चौदह दिनों तक तड़पते हुए ज़िंदा रहने के लिए संघर्ष किया। क्या बूलगढ़ी गाँव में स्वास्थ्य सुविधा उपलब्ध नहीं है? यहाँ से ज़िला अस्पताल कितनी दूरी पर है? या फिर पड़ोस के ज़िले अलीगढ में अवस्थित जवाहर लाल नेहरू मेडिकल कॉलेज की दूरी कितनी है ? हिन्दू धर्म में जाति व्यवस्था के सबसे निचले पायदान पर विराजमान इस दलित जाति की लड़की के लिए कौनसी स्वास्थ्य सुविधा उपलब्ध थी?
जैसा कि हमने सैंकड़ों मामलों में देखा है कि सवर्णों के लिए दलित लड़की का जिस्म एक भोग की वस्तु है।
पंद्रह दिनों तक वो ज़िन्दगी और मौत के बीच झूलती रही। बड़े मीडिया घरानों द्वारा सूक्ष्मतम विश्लेषण। पुरे मामले पर से परदा सफ़दर जंग अस्पताल से ख़बर आने के बाद ही उठा। सरकार कहाँ थी। दानवों के जुर्म पर पर्दा डालने में मसरूफ़ थी। और पुलिस ? लड़के तो लड़के होते हैं। ये वही पुलिस है जो लड़की के मौत के बाद हरकत में आ गई। और लड़की के शव को जीप में डाल कर आनन् फानन में शमशान घाट ले जाकर उसको जला डाला।
मज़लूम बच्ची की लाश को जब पुलिस जीप में डाल कर ले जा रही थी तो उसे रोकने के लिए उसकी माँ और चाची जीप के बोनट से लिपट गईं। इस डरावनी मंज़र को दुनिया ने देखा। बच्ची की माँ सड़क पर जाते हुए जीप को बेबस हो कर तकती रही। पुलिस के बेपनाह ताक़त के सामने वो गिरगिराती रही। वो ये मांग कर रहीं थीं कि बच्ची के शव को घर के अंदर ले जाने दिया जाए। ताकि उसके शरीर पर हल्दी लगाई जा सके। और उचित मन्त्र का पाठ किया जा सके। लेकिन पुलिस ने अनसुना कर दिया। पुलिस ने कहा ये मांग अनुचित है। क्या होगा अगर जब दलितों ने असहज सवाल करने शुरू कर दिए।
क्या ये हाथरस की घटना गांधी के देश में हो रही है! घटना के दो दिन पहले यानी 2 अक्टूबर को पुरे देश में गाँधी का जन्म दिन मनाया गया। यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ और उनके मंत्रियों ने भी गाँधी के उस उदास पुतले को श्रद्धांजलि अर्पित की ,जिनकी ह्त्या उन्हीं के शस्त्रागार से ली गई गोली से की गई थी। याद कीजिये आज से दो साल पहले की घटना को जब अलीगढ में हिंदूमहासभा की मेंबर पूजा शकुन पाण्डेय ने गाँधी की प्रतिमा के सीने पर तीन गोली मारी थी। इसी अलीगढ से काट कर हाथरस जिला बनाया गया है। बलिया से भाजपा सांसद सुरेंद्र सिंह ने इस घटना पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा था कि इससे ये सबक़ मिलता है कि हमें अपने बेटियों को अच्छे संस्कार सिखाने चाहिए। तभी हमारा देश सुन्दर बनेगा।
आज एक ही सवाल है। हम और कितने दिनों तक इस तरह की बर्बरता को देख कर नज़रें फेरते रहेंगे। क्या इस दरिंदगी के बाद भी घर पर आराम से बैठे रहेंगे। कुछ दिन बाद हम इस घटना को भूल जाएंगे फिर कोई दूसरी ऐसी ही घटना फिर घटित हो जायेगी। पुलिस ने अंतिम संस्कार कर दिया। बलात्कारियों को बचाने वाली पुलिस के द्वारा किया गया1 एक बकवास सा अंतिम संस्कार है। पुलिस ने बलात्कार से इंकार किया है। ए जी पी प्रशांत कुमार ने मीडिया के कमरे के सामने कहा कि “मेडिकल रिपोर्ट से पता चलता है कि बलात्कार नहीं हुआ है। “हाथरस के एस पी को राष्ट्रीय सवर्ण परिषद् के सदस्यों ने ज्ञापन सौंपा है, जिसमें ये कहा गया है कि लड़की के साथ बलात्कार नहीं हुआ है बल्कि घटिया राजनीति का सहारा ले कर निर्दोषों को फंसाया जा रहा है।
वो हाथरस के भूलगढ़ी की दलित बच्ची थी। वो हमारी भी हो सकती थी ,वो आपकी भी हो सकती थी।
कहाँ है भारत सरकार जब महिलाओं के खिलाफ हिंसा में यूपी शीर्ष पर पहुँच गई है। हाथरस के बाद बलरामपुर फिर आजमगढ़। ये सभी घटनाएं एक सप्ताह के भीतर की हैं। एक के बाद एक किशोरी को हवस का शिकार बनाया गया। प्रधान मंत्री ने यूपी के मुख्यमंत्री से बात की। हाथरस के एक ठाकुर के शब्द जो मीडिया के हवाले से पता चली है उन्होंने कहा है कि “उस लड़की ने इस तरह की घटिया हरकत कर के हमारे गाँव का नाम बदनाम कर दिया है ,अब कौन हमारी बेटियों से शादी करने आयेगा। ”
इस तरह की बातें कि “ये लोग तो ऐसे ही हैं थोड़ी सी बात पर हल्ला मचा देते हैं। ” सोशल मीडिया पर खूब देखने और सुनने को मिल रही है। ‘ये लोग’ शब्द पहले मुस्लिमों के लिए इस्तेमाल किये जाते थे अब दलितों के लिए भी इस्तेमाल किये जाने लगे हैं। हमने इससे पहले भी देखा है। स्थानीय प्रशासन ताक़तवर लोगों के सुर में सुर मिलाती है। और उनके गुनाहों पर पर्दा डालती है। चाहे अख़लाक़ का मामला हो या तबरेज़ अंसारी का मामला हो या रक़बर खान का हो या अफ़राज़ुल इस्लाम सभी कीड़े मकोड़े ने जैसे लोगों की खुशनुमा ज़िन्दगी में ख़लल पैदा कर दी हो।
ये वो देश नहीं है जिसके लिए गांधी जी जिये और मरे। ये वो देश नहीं है जिसके लिए जामा मस्जिद की सीढ़ियों से खड़े हो कर विभाजन के बाद घबराये हुए और असुरक्षित मुसलामानों को खिताब किया था और नए भारत के निर्माण में कंधे दे कंधे मिला कर काम करने के लिए आग्रह किया था। ये वो देश भी नहीं है जहां कैफ़ी आज़मी ने ‘दूसरा वनवास ‘ लिखा हो। और हिन्दू सेना ने उन्हें लिंच न किया हो। ये वो देश नहीं है। जहां महिंदर सिंह बेदी ‘सेहर’ ने हज़ारों तालियों की गड़गड़ाहट के बीच ‘सिर्फ मुस्लिम के मुहम्मद पे इजारा तो नहीं’ गाया हो।
ये वो देश भी नहीं है जहां आज से सात दशक पहले कश्मीर में हमारा जन्म हुआ था।
हाथरस की ये घटना हमें रही मासूम रज़ा की पंक्तियों की याद दिलाता है।
ये चराग़ जैसे लम्हें कहीं रायेगाँ न जाएँ
कोई ख़्वाब देख डालो कोई इंक़लाब लाओ.
डॉ. सैयदा हमीद लेखिका और समृद्ध भारत फाउंडेशन के ट्रस्टी हैं । रेयाज़ अहमद मुस्लिम विमेंस फ़ोरम के फ़ेलो हैं।