तस्वीरों में कृष्णा सोबती का ‘ज़िंदगीनामा’
कृष्णा सोबती का जाना न सिर्फ हिन्दी साहित्य के स्त्री विमर्श के लिए गहरा खालीपन है बल्कि पूरे उप-महाद्वीप की एक सशक्त आवाज का थम जाना है. सोबती उस दौर में स्त्री विमर्श का सांचा ढाल रही थी जब साहित्य पुरुष लेखकों का क्षत्रप होता था.
Pic Courtesy-Krishna Sobti
कृष्णा सोबती के रचना संसार में स्त्री तमाम पूर्वाग्रह को तोड़ती हुई अपनी आकांक्षा, प्रेम और दमित इच्छाओं को लेकर किसी भी तरह के अपराध-बोध में नहीं होती थी. यह हिन्दी साहित्य का वह दौर था जिसमें सिमोन-द-बोवउआर के ‘सेकंड सेक्स’ का अनुवाद हो कर नहीं आया था.
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साठ के दशक में उनका उपन्यास मित्रो-मरजानी आया था. मित्रो-मरजानी पंजाबी भाषा और संस्कृति की चाशनी में घोला गया था. इस उपन्यास की नायिका मित्रो हिन्दी साहित्य के वितान में फैले मर्दवाद को चुनौती देती है. मित्रो मानती है कि स्त्री बस एक कोमल देह नहीं है. उसकी दुनिया सिर्फ घर, बच्चे और पति तक ही सीमित नहीं है. कृष्णा सोबती की मित्रो पूरे उप-महाद्वीप में एक बेबाक स्त्री का चेहरा है.
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कृष्णा सोबती का रिश्ता चिनाब नदी से है. तब इस नदी को पाकिस्तान में बहता हुआ नहीं माना जाता था. अचानक से एक लकीर खींच दी जाती है. रातों-रात सरहदें बना दी गईं और शुरू होता है मानवता का एक त्रासद युग. कृष्णा सोबती तब 22 साल की थीं. पंजाब जल रहा था जो उनका अपना घर था. इस त्रासदी की छाप उनके दिलो-दिमाग पर गहरे तक थी जो उनकी लेखनी में उभर कर आया भी.
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कुछ साल पहले ही जब लेखक देश में बढ़ती जा रही असहिष्णुता के खिलाफ साहित्य अकादमी अवार्ड वापस कर रहे थे, कृष्णा सोबती इनमें अगली कतार में थी. उन्होंने साहित्य अकादमी की मानद सदस्यता लौटा दी थी. वो अभिव्यक्ति की आजादी की सबसे बुलंद आवाजों में से थीं. असहिष्णुता के खिलाफ लड़ाई में वो शारीरिक अक्षमता को भी चकमा दे रही थीं. कुछ साल पहले इस क्रम में कांस्टीट्यूशन क्लब तक व्हील-चेयर पर पहुंच गई और सरकार को कठघरे में खड़ा करते हुए ‘बाबरी से दादरी तक‘ घेरा था.