झारखंड: बीजेपी में बगावत के स्वर
“कोई हाथ भी न मिलाएगा जो गले मिलोगे तपाक से.
ये नए मिज़ाज का शहर है ज़रा फ़ासले से मिला करो.”
मशहूर शायर बशीर बद्र की ये पंक्तियां इन दिनों बीजेपी के बागी नेताओं की जुबान पर है. बगावत का झंडा बुलंद करने वाले ऐसे नेताओं में ज्यादातर निवर्तमान सांसद हैं, जिनके टिकट काट दिए गए हैं. अब वे बीजेपी के केंद्रीय नेतृत्व के खिलाफ बेहद मुखर हैं. आलम यह है कि कुछ निवर्तमान सांसद दूसरे दलों से टिकट लेकर चुनावी दंगल में कूदने की जुगत में हैं तो कुछ निर्दलीय ही किस्मत आजमाने की तैयारी कर रहे हैं. बगावत के स्वर कई राज्यों से उठे हैं. लेकिन झारखंड में विद्रोह सबसे तेज है.
नरेंद्र मोदी के केंद्र की राजनीति में आने के बाद यशवंत सिन्हा, शत्रुध्न सिन्हा और अरूण शौरी की तिकड़ी को छोड़ दें तो संभवत: यह पहला मौका है, जब बीजेपी के सांसद केंद्रीय नेतृत्व के फैसलों के विरूद्ध बगावती तेवर अपनाए हुए हैं. बात इतनी बढ़ी है कि बीजेपी नेतृत्व से लेकर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) तक को विद्रोह शांत करने के लिए मशक्कत करनी पड़ रही हैं.
छत्तीसगढ़ में रायपुर के निवर्तमान सांसद रमेश बैस को छोड़ दें तो बाकी बागी सांसदों के तेवर पर खास असर नहीं दिख रहा है.
बगावती तेवर अपना चुके नेता अपने तर्कों के जरिए साबित करने की कोशिश में हैं कि बीजेपी के भीतर आंतरिक लोकतंत्र नहीं है. कार्यकर्ताओं की भावनाओं को ध्यान में रखकर नहीं, बल्कि केंद्रीय नेतृत्व की इच्छानुसार चीजें तय होती हैं. यही वजह है कि अनुभवी और पुराने नेताओं की कोई कद्र नहीं रह गई है. बीजेपी के लौह पुरूष कहे जाने वाले लालकृष्ण आडवाणी इसके जीवंत उदाहरण हैं.
झारखंड में बीजेपी की जमीन तैयार करने वाले सात बार सांसद रह चुके कड़िया मुंडा का टिकट काट दिया गया है. वे अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित खूंटी संसदीय क्षेत्र से चुनाव जीतते रहे हैं. उनकी जगह झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा को टिकट दिया गया है. कड़िया मुंडा का टिकट यह कहकर काटा गया है कि वह 75 साल पार कर चुके हैं और पार्टी ने तय कर रखा है कि 75 साल से ज्यादा उम्र वालों को किसी हालत में टिकट नहीं दिया जाएगा.
साफ-सुथरी छवि वाले कड़िया मुंडा लोकसभा के डिप्टी स्पीकर रह चुके हैं. केंद्र सरकार ने हाल ही में उन्हें पद्मभूषण से सम्मानित किया था. वह आरएसएस के अनुशासित सिपाही के रूप में ख्यात हैं.
कड़िया मुंडा टिकट काटे जाने के बीजेपी नेतृत्व के फैसले से खुश नहीं हैं. वह टीवी चैनलों और अखबारों को इशारों में अपनी नाराजगी जता चुके हैं. उन्होंने कहा, “वह स्वस्थ हैं और अपने संसदीय क्षेत्र की जनता की सेवा में सदैव तल्लीन रहते हैं. उनके टिकट कटने की खबर से जाहिर है कि कार्यकर्ता बेहद मायूस हैं.”
इस सवाल पर कि अब आपका अगला कदम क्या होगा, वह कहते हैं , “किसान हूं, खेतीबाड़ी में जुट जाऊंगा.“ साफ है कि अर्जुन मुंडा को जीतवाने में उनकी ताकत का इस्तेमाल नहीं हो पाएगा.”
बीजेपी ने 14 संसदीय क्षेत्रों वाले झारखंड की 11 सीटों के लिए प्रत्याशियों के नामों की घोषणा कर दी है. बाकी तीन सीटों रांची, कोडरमा और चतरा के लिए प्रत्याशी तय नहीं हैं. रांची संसदीय क्षेत्र से पांच बार सांसद रहे 77 वर्षीय रामटहल चौधरी ने खुद ही यह बात सार्वजनिक कर दी है कि उनका टिकट काटा जा रहा है, जो उन्हें किसी कीमत पर स्वीकार नहीं है. टिकट की पात्रता के लिए 75 साल की उम्र सीमा की बात उन्हें पच नहीं रही. उनका कहना है कि वह स्वस्थ हैं. संसदीय क्षेत्र में वैसे ही सक्रिय रहते हैं, जैसे 60 साल का कोई नेता सक्रिय रहता है.
राजनीतिक हलको में चर्चा के मुताबिक बीजेपी पूर्व आईपीएस अधिकारी अमिताभ चौधरी को मैदान में उतारने के मूड में है. लेकिन चौधरी को यह किसी भी हालत में स्वीकार नहीं है. उनका कहना है कि उनके अलावा बीजेपी का कोई दूसरा नेता रांची से हरगिज नहीं जीत सकता. बीजेपी की कोई लहर नहीं है कि बिना आधार वाला नेता भी जीत जाएगा.
रांची से बीजेपी के टिकट के प्रबल दावेदार अमिताभ चौधरी मौजूदा समय में बीसीसीआई के सचिव हैं. उनकी उम्मीदवारी की बात से रामटहल चौधरी का गुस्सा सातवें आसमान पर है. उन्होंने रांची के अखबारों में बयान दिया है, “अमिताभ को टिकट दिया गया तो समझ लीजिए कि पैसे लेकर रांची सीट बेचा गया है. हद है कि जो लोग भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे रहकर झारखंड को लूटते रहे. वे ही अब चुनाव भी लड़ेंगे. ऐसे में संगठन के झोला ढोने वाले कार्यकर्ता क्या करेंगे? इस बात को कोई बर्दाश्त नहीं करेगा.”
रामटहल चौधरी बीजेपी से टिकट नहीं मिलने की स्थिति में निर्दलीय चुनाव लड़ने का मन बना चुके हैं. उन्होंने इस बात को सार्वजनिक भी कर दिया है. दरअसल, झारखंड के लिए प्रत्याशियों की सूची जारी होने से पहले बीजेपी के केंद्रीय सह संगठन मंत्री सौदान सिंह ने रामटहल चौधरी को फोन किया था. उनका निर्देश था कि वे यह लिखकर बीजेपी मुख्यालय को फैक्स कर दें कि वह चुनाव नहीं लड़ना चाहते हैं. लेकिन रामटहल चौधरी ने सिरे से ऐसा करने से मना कर दिया था. उसके बाद ही रांची सीट का मामला उलझ गया.
रामटहल चौधरी कहते हैं, “ मैं ऐसा कैसे लिख कर दे देता कि मुझे चुनाव नहीं लड़ना है? मैंने रात-दिन मेहनत इसलिए की थी कि चुनाव लड़ने से इनकार कर दूंगा? यदि पार्टी को ऐसा ही करना था तो एक साल पहले बता देना चाहिए था. अंतिम समय में मैदान छोड़कर कार्यकर्ताओं से गाली नहीं सुन सकते.”
उधर झारखंड के उत्तरी छोटानागपुर क्षेत्र के गिरिडीह संसदीय क्षेत्र के निवर्तमान सांसद रवींद्र कुमार पांडेय के विद्रोह का आलम यह है कि वह यहां तक कह चुके हैं कि बीजेपी में ब्राह्मणों की लिए अब जगह नहीं रही. साल 2004 के लोकसभा चुनाव को छोड़ दें तो पांडेय लगातार पांच बार गिरिडीह संसदीय क्षेत्र से चुनाव जीतते रहे हैं. बीजेपी ने इस बार यह सीट अपने सहयोगी दल आजसू को दे दी है. पांडेय इस बात को पचा नहीं पा रहे हैं. वह सार्वजनिक रूप से कह चुके हैं कि पार्टी की नजर में भले उनकी अहमियत नहीं रही. लेकिन कार्यकर्त्ताओं के लिए उनकी अहमियत है. इसलिए वह हर हाल में चुनाव लड़ेंगे.
ऐसा कहते हुए वह शत्रुध्न सिन्हा की पंक्तियों को दोहराते हैं , ”सिचुएशन कोई भी हो, लोकेशन वही रहेगी.” शहीद ही होना है तो घर में रहकर क्यों मैदान में लड़कर शहीद होना पसंद करूंगा. राजनीतिक प्राणी हूं. राजनीति में कभी सूर्यास्त नहीं होता. जहां फुलस्टॉप होता है, वहीं से नई सेंटेंस की शुरुआत होती है.
झारखंड के 14 में से नौ संसदीय सीटों के लिए बीजेपी के पुराने चेहरे ही मैदान में होंगे. एक गिरिडीह सीट गठबंधन दल के पास चली गई. खूंटी संसदीय सीट के लिए अर्जुन मुंडा के रूप में नया चेहरा मैदान में है. बाकी तीन संसदीय सीटों रांची, कोडरमा और चतरा के लिए प्रत्याशियों के नामों पर अंतिम मुहर लगनी बाकी है. माना जा रहा है कि कोडरमा के निवर्तमान सांसद और बीजेपी के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष रवींद्र राय का टिकट कट जाएगा. प्रत्यक्ष वजह यह है कि उन्होंने आजसू से गठबंधन का खुला विरोध किया था.
बीजेपी के अंदरूनी सूत्रों की माने तो राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) में सेंध लग चुकी है. आरजेडी की प्रदेश अध्यक्ष अन्नपूर्णा देवी बड़ी संख्या में अपने समर्थकों के साथ कभी भी बीजेपी का दामन थाम सकती हैं. ऐसी स्थिति में कोडरमा सीट के लिए उन्हें मैदान में उतारा जाएगा.
झारखंड में बीजेपी की डंवाडोल स्थिति की चर्चा काफी समय से होती रही है. टाइम्स नाउ-सीएनएक्स की ओर से दिसंबर में कराए गए सर्वेक्षण के मुताबिक लोकसभा चुनाव में झारखंड की 14 सीटों में एनडीए को चार सीटों का नुकसान होता हुआ दिखा था. सर्वेक्षण के मुताबिक एनडीए को आठ, यूपीए को पांच और अन्य के खाते में एक सीट जाती हुई दिखी थी. जानकारों की मानें तो फरवरी के दूसरे सप्ताह में बीजेपी ने आंतरिक सर्वे कराया तो उसकी चिंता पहले के मुकाबले बढ़ गई. उसे दो और सीटों का नुकसान होता दिखा. यानी बारह जीती हुई सीटों में छह का नुकसान. इसके बाद टिकटों के बंटवारे के लिए रणनीति बदलनी पड़ी. लेकिन टिकट काटे जाने के बाद जैसे राजनैतिक हालात बन रहे हैं, उसे देखते हुए यह कहना मुश्किल है कि बीजेपी की सिरदर्दी कम होगी.
गठबंधन में अब तक सीटों को लेकर बनी सहमति के मुताबिक गिरिडीह सीट जेएमएम के खाते में है. साल 2014 के चुनाव में महज 46 हजार वोटों से हारे जेएमएम के विधायक जगन्नाथ महतो इस सीट के फिर से प्रबल दावेदार हैं. जेएमएम के एक नेता ने नाम गोपनीय रखते हुए कहा कि रवींद्र पांडेय वरीय नेताओं के संपर्क में हैं. लेकिन उन्हें टिकट देना जातीय गणित के हिसाब से आत्मघाती होगा. महतो वोटर नाराज होंगे और इसका सीधा लाभ सुदेश महतो की अगुवाई वाली पार्टी आजसू के प्रत्याशी को मिल जाएगा.
राज्य में आदिवासियों की नाराजगी से दो-चार हो रही बीजेपी महतो वोटरों को लेकर बेहद सतर्क है. तभी पहली बार महतो नेता सुदेश महतो की पार्टी आजसू से लोकसभा चुनाव के लिए भी गठबंधन किया गया. रांची के रामटहल चौधरी भी महतो जाति से ही हैं. उनका भी दक्षिणी छोटानागपुर के अनेक इलाकों में प्रभाव है. इसलिए चौधरी के इस दावे में दम है कि उनका टिकट कटा तो बीजेपी को कई सीटों पर नुकसान हो सकता है.
उधर खूंटी के कड़िया मुंडा की नाराजगी क्या गुल खिलाएगी, यह देखने वाली बात होगी. उनके बयानों की बारीकियों पर गौर करने से साफ है कि अर्जुन मुंडा के लिए खूंटी संसदीय सीट को निकाल पाना आसान नहीं होगा. कड़िया मुंडा का रांची के एक अखबार में बयान प्रकाशित हुआ है. उसमें उन्होंने कहा है, “मैं पार्टी का सच्चा कार्यकर्ता हूं. पार्टी ने जब जो भी जिम्मेदारी दी, उसे सर आंखों पर रखकर पूरा किया है. पार्टी उम्मीदवार तय करती है और जिसे भी टिकट देगी, मैं उनका साथ दूंगा.“
जब उनसे सवाल किया गया कि आपके बनाए पिच पर पूर्व सीएम अर्जुन मुंडा को बैटिंग करना कितना आसान होगा तो उनका जवाब था, “कभी-कभी बॉलर भी गड़बड़ा जाता है.”
अब देखना है कि टिकट से वंचित बीजेपी के निवर्तमान सांसदों का विद्रोह चुनावी गणित को कितना प्रभावित करता है.